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रंगों का ‘गृहयुद्ध’ : ठंडे पानी का ‘सिविल वार’

।। उदय प्रकाश ।। प्रसिद्ध साहित्यकार झार मीठी गुझि या खिलाने का मिलन-पर्व बस आप जरा-सा अपना नजरिया बदल दें या कैमरे का एंगल और फिर खुद को इतिहास या पुराने मिथकों-मान्यताओं से अलग कर लें. इतना करते ही आपके सामने ‘गृहयुद्ध’ का एक अद्भुत दृश्य दिखायी देगा. इस ‘गृहयुद्ध’ की खासियत यह है कि […]

।। उदय प्रकाश ।।

प्रसिद्ध साहित्यकार

झार मीठी गुझि या खिलाने का मिलन-पर्व

बस आप जरा-सा अपना नजरिया बदल दें या कैमरे का एंगल और फिर खुद को इतिहास या पुराने मिथकों-मान्यताओं से अलग कर लें. इतना करते ही आपके सामने ‘गृहयुद्ध’ का एक अद्भुत दृश्य दिखायी देगा. इस ‘गृहयुद्ध’ की खासियत यह है कि इसमें बारूद की जगह अबीर-गुलाल, गोलियों की जगह पानी की तेज-नुकीली धार, बंदूकों की जगह पिचकारियां और मिसाइलों-बम बरसानेवाले जहाजों की जगह पानी और रंगों से भरे गुब्बारे हैं. इसमें बमों के धमाकों के कानफोड़ू शोर को ठेल कर बाहर करतीं ढोल-मंजीरे की आवाज और युद्ध में फंसे बच्चों-बूढ़ों-औरतों की डरी हुई चीख-पुकारों की जगह फगुआ-चैती के मनमोहक लोकगीत हैं.

यह ‘सिविल वार’ एक ऐसा भारतीय त्योहार है, जिसकी लोकप्रियता का ग्राफ ग्लोबल हो चुकी दुनिया में भी हर साल चढ़ता ही जा रहा है. यह एक ‘सुपर हिट’ भूमंडलीय भारतीय कल्चलर प्रोडक्ट है. फागुन के महीने के आखिरी दिन, यानी जब आकाश में पूरा चांद उगता है और ठंड का मौसम विदा लेता है, उसकी ठीक अगली सुबह होता है ‘जल और रंगों का यह महा-गृहयुद्ध’.

यह ‘गृह युद्ध’ है किसके विरुद्ध? कहा जाता है कि यह द्वेष, हिंसा, बुराई, विषमता, भेदभाव, भय तथा संदेहों को रंगों में सराबोर करनेवाला अलग-अनोखा त्योहार है. यह पुराने सामंती या मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्थाओं में स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक, सहज, मानवीय संबंधों के बीच वर्जना की दीवारों के विरुद्ध देह के उल्लास का मदनोत्सव है. काम या प्रेम इसका केंद्रीय तत्व है. यह शरद ऋतु यानी दिसंबर-जनवरी की ठिठुरती ठंड में ठूंठ हो चुके ‘पत्रहीन नग्न गाछों’ (नागाजरुन का मैथिल कविता संग्रह, जिसे साहित्य अकादमी सम्मान मिला था) के पोर-पोर से नये कोंपलों और उनकी फुनगियों से हजार रंगोंवाले फूलों के चिटकने-खिलने का वसंतोत्सव है. रति और रंग के उत्सव का पर्व. दोस्तों और दुश्मनों के चेहरों पर अबीर और गुलाल मल कर, उनसे दिल से दिल मिला कर, उन्हें मीठी गुझि या खिलाने का मिलन-पर्व.

लेकिन ये तो वे बातें हैं, जो अमूमन हर त्योहार में हिंदी मीडिया में कर्मकांड की अटकी हुई सुई की तरह सालों से बजती-छपती रहती हैं. पौराणिक संदर्भो और धार्मिक मान्यताओं को बार-बार दोहराती बातें. हिरण्यकश्यपु, होलिका और प्रह्लाद या फिर राधा-कृष्ण की कथाओं का बार-बार हवाला देती हुईं. ऐसा खेती-किसानी से जुड़े और खेत-खलिहानों में जन्मे कई त्योहारों के सांस्कृतिकरण और धार्मिकीकरण के प्रयासों का परिणाम है. होली भी कभी रबी की फसल से जुड़ा एक खेतिहर त्योहार था, ऐसा इतिहास बताता है.

काल ही सबसे बड़ा हुनरमंद फैशन डिजाइनर है. उसके पास गजब का करघा और अजब-सी ‘डाई’ होती है. फिर भला 21वीं सदी का उत्तर-औद्योगिक, नव-कॉरपोरेट समय अपनी रंगरेजियत और दस्तकारी क्यों न दिखाये? इस सदी की एक मौलिकता यह भी है कि यह कई प्राचीन-पारंपरिक सामाजिक बनावटों और सांस्कृतिक फैशनों को नयी तकनीक की खुर्दबीन से देखता है और उनकी फोरेंसिक जांच करता है. इसके ऑपरेशन थिएटर में पुराने वायरस का ‘विखंडन’ या ‘नार्को टेस्ट’ हुआ करता है.

इस राष्ट्रीय माने जानेवाले त्योहार- होली- की देह में अब कई संक्रमण हैं, जो इसे बीमार बनाते हैं. खेत-खलिहानों की धूल-मिट्टी की ‘धुलेंहटी’ से शुरू होनेवाली और पलाश, चंदन, हल्दी, गुलाब, नीम तथा चुकंदर के इंद्रधनुषी रंग की ‘होली’ की सदियों लंबी सड़क पार करते-करते खतरनाक रासायनिक रंगों के हमलों तक पहुंचने का वृत्तांत खासा लंबा है. इसी तरह कृषि-सभ्यता और घने जंगलों के हरे-भरे युग में खेती को नुकसान पहुंचानेवाले खर-पतवारों और गली-मोहल्लों में अनुपयोगी लकड़ियों को सामुदायिक उत्साह और उत्सव के साथ जलाने के त्योहार के निर्जन उजाड़ों और पर्यावरण के प्रदूषणों के खतरों में शुमार हो जाने का का ब्योरा भी विस्तृत है.

21वीं सदी के बारे में ‘उत्तर-आधुनिक’ विद्वान बताया करते थे कि यह अतीत के तमाम भांड़े-बरतनों, डब्बों-मर्तबानों को उलट देता है और उनके भीतर भरे हुए पुराने इतिहासत्व और मिथकत्व के फफूंद लगे अचार को निकाल कर, अपने ताजा और बिकाऊ ‘कॉम्बो पैकेज’ का ग्लोबल उद्योग चलाता है. ‘होली’ के साथ भी यही हुआ. भला कौन औरत ऐसी होगी, जो इसकी कल्पना भी कर सके कि भाई के कहने पर ‘होलिका’ नाम की बहन अपने भतीजे को जला कर मार डालने के लिए आग में बैठ गयी और उसी की राख से ‘होली’ का पौरषत्व से भरा, ‘कबीर’ गाता-बजाता ‘फागुन का फाग’ पैदा हुआ? फिर वह भाई भी कैसा, जिसका नाम हिरणकश्यपु था और जो इतना कट्टर मतावलंबी था कि अपनी विचारधारा से असहमति रखने के ‘अपराध’ में अपने बेटे ‘प्रह्लाद’ की हत्या कर देना चाहता था? क्या वह कोई क्रूर, सर्व-सत्तावादी ‘फैनेटिक’ तानाशाह था, जिसके कई उदाहरण हमने इतिहास में देखे हैं?

मिथक बताते हैं कि प्रह्लाद को उसका पिता हिरणकश्यपु इसलिए मारना चाहता था, क्योंकि वह विष्णु का समर्थक यानी ‘वैष्णव’ था. और विष्णु भी कौन? तीन शीर्ष दैविक त्रिमूर्तियों में एक, बैकुंठ वासी भगवान, जिनके द्वारपाल- जया और विजया- मुनि कुमारों के शाप से राक्षस कुल में हिरणाक्ष और हिरणकश्यपु के रूप में पैदा हुए. प्राचीन संस्कृत को देखेंगे तो आपको हंसी छूट जायेगी, क्योंकि जया और विजया, कहा जाता है कि नशा पैदा करनेवाले दो जंगली पौधों- गांजा और भांग- के ऋगवैदिक नाम हैं.

पिछले दिनों ‘महिषासुर’ को लेकर जो नया विवाद खड़ा हुआ, वह होलिका दहन के साथ भी हो सकता है, क्योंकि होलिका और उसके भाई ‘असुर’ ही थे, जिन्हें मारने के लिए ‘विष्णु’ को दो बार ‘पशु’ योनि में अवतार लेना पड़ा- ‘वराह’ यानी सुअर और विचित्र अर्ध-मानव बब्बर सिंह, जो गुजरात के गिर के वनों में पाया जाता है. अब ‘असुर’ आदिवासी भला इस मिथकीय महा-छाते में क्यों न कोई छेद देखें?

रही राधा-कृष्ण की प्रेम कथाओं में पगी मथुरा, वृंदावन और बरसाने की मशहूर ‘होली’, तो भला कौन ‘फेमिनिस्ट’ बरदाश्त करेगी कि कृष्ण का सांवला-सलोना-श्याम रंग असल में पूतना नाम की ‘राक्षसी’ के स्तन से विष पीने की वजह से हुआ था. ताड़का, पूतना, सूर्पणखा और होलिका, कितनी-कितनी स्त्रियों को ऐसा ‘वैंपायर’ बनाया गया, मिथक और पाप-कल्चर इससे भरे पड़े हैं. कहा जाता है कि अतीत के असंख्य मिथकीय नायक-खलनायक अब 21वीं सदी में किसी वास्तविक राजनीतिक-सामाजिक ‘गृहयुद्ध’ को जन्म देंगे.

फिलहाल हम रंगों और पानी का ही ‘सिविल वार’ देख रहे हैं और खुश हैं. काश! हमारी खुशी की उम्र लंबी हो. हां! खतरनाक रासायनिक रंगों का इस्तेमाल कम-से-कम करें, मिलावटी खोये से बनी मिठाइयां और गुझि या न परोसें और होलिका-दहन के लिए प्लास्टिक-पॉलीथिन या ‘रि-साइकल’ होनेवाले कूड़े-कचड़े ही जलाएं. लकड़ियां तो अब गांवों के गरीबों के चूल्हे जलाने के लिए भी नहीं बची हैं.

21 वीं सदी के बारे में ‘उत्तर-आधुनिक’ विद्वान बताया करते थे कि यह अतीत के तमाम भांड़े-बरतनों, डब्बों-मर्तबानों को उलट देता है और उनके भीतर भरे हुए पुराने इतिहासत्व और मिथकत्व के फफूंद लगे अचार को निकाल कर, अपने ताजा और बिकाऊ ‘कॉम्बो पैकेज’ का ग्लोबल उद्योग चलाता है. ‘होली’ के साथ भी यही हुआ..

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