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देश में राजनीतिक दलों की यह बाढ़!

।। अवधेश कुमार।। (वरिष्ठ पत्रकार) देश में इस समय पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1392 हैं. साल-दर-साल यह संख्या बढ़ती ही जा रही है. इनमें से ज्यादातर पार्टियों के गठन के पीछे कोई गंभीर विचार-विमर्श या व्यापक सोच नहीं होता, इसलिए वे केवल नाम के ही राजनीतिक दल रह जाते हैं. जनाधार नहीं होने के […]

।। अवधेश कुमार।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

देश में इस समय पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1392 हैं. साल-दर-साल यह संख्या बढ़ती ही जा रही है. इनमें से ज्यादातर पार्टियों के गठन के पीछे कोई गंभीर विचार-विमर्श या व्यापक सोच नहीं होता, इसलिए वे केवल नाम के ही राजनीतिक दल रह जाते हैं. जनाधार नहीं होने के कारण इनकी प्रभावी भूमिका न तो चुनावों में होती है और न ही गैर चुनावी राजनीतिक गतिविधियों में. ऐसे में कुछ बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों की बाढ़ को एक बड़ी समस्या मानते हुए नये दलों पर रोक लगाने की मांग करते हैं, जबकि कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि यह लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रकृति है. देश में राजनीतिक दलों की लगातार बढ़ती संख्या के विभिन्न पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

जो लोग चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर नजर नहीं रखते, उनके लिए हमारे देश में राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या पर सहसा विश्वास करना कठिन होता है. चुनाव आयोग ने इस समय जो सूची जारी की है, उसके मुताबिक अभी कुल 1392 दलों का निबंधन हो चुका है. इसमें राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय और निबंधित लेकिन गैर मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल शामिल हैं. चुनाव आयोग इससे पूर्व कई बार दलों की बढ़ती संख्या से होनेवाली परेशानियों का जिक्र करते हुए इनको हतोत्साहित करने की बात कर चुका है.

भारत में राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या पर हमेशा दो मत रहे हैं. एक पक्ष इसे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक बताते हुए कहता है कि इनमें से ज्यादातर का न कोई जनाधार होता है न कोई बड़ा राष्ट्रीय लक्ष्य और ये सिर्फ समस्याएं पैदा करते हैं. इसके समानांतर दूसरा पक्ष इसमें कोई खतरा नहीं देखता और इसे लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रकृति मानता है. तो फिर इसे कैसे देखा-समझा जाये?

2009 के आम चुनाव में राजनीतिक दलों की स्थिति

सबसे पहले हम पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों पर एक नजर डालें. 2009 के लोकसभा चुनाव में 543 संसदीय क्षेत्रों के लिए 8070 उम्मीदवार मैदान में थे. चुनाव में 363 राजनीतिक दलों ने शिरकत की थी. इन 363 में से केवल 7 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दल थे. शेष 356 में से 34 दलों को राज्यस्तरीय दल के रूप में मान्यता मिली हुई थी, जबकि बाकी 322 गैर-मान्यता प्राप्त दल के रूप में पंजीकृत थे. राष्ट्रीय दलों ने कुल 1623 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें से 376 जीते. राज्य स्तरीय दलों ने कुल 394 उम्मीदवार खड़े किये, जिनमें से 146 जीते. गैर मान्यता प्राप्त निबंधित दलों ने सबसे ज्यादा 2222 उम्मीदवार उतारे, जिनमें से केवल 12 ने जीत हासिल की.

उम्मीदवारों और दलों की इतनी बड़ी संख्या निस्संदेह थोड़ा चिंतित करती है. लेकिन परिणाम से जब यह पता चलता है कि जीतनेवालों में से ज्यादातर राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के उम्मीदवार ही थे तो निष्कर्ष यह आता है कि आम मतदाताओं तक ज्यादा पहुंच अब भी मुख्य दलों की ही है. इस नाते ये ढेर सारे दल लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं माने जाएंगे. आखिर 543 में से 376 सांसद तो राष्ट्रीय दलों के ही निर्वाचित हुए.

2009 के चुनाव में 3831 निर्दलीय उम्मीदवारों में से केवल 9 का ही लोकसभा पहुंचना भी इसी तथ्य को साबित करता है कि बहुत से दल और निर्दलीय उम्मीदवार यद्यपि प्रत्याशियों की संख्या तो बढ़ाते हैं, लेकिन उनका प्रभाव कुछ क्षेत्रों में ही सीमित होता है. राष्ट्रीय दलों के 779 उम्मीदवारों के जमानत जब्त हुए थे, जबकि निर्दलीय उम्मीदवारों में से 3806, गैर मान्यता प्राप्त निबंधित दलों में से 2164 के जमानत जब्त हो गये थे. यानी कुल 5970 उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो गये थे.

तसवीर का दूसरा पहलू

हालांकि इस तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि गैर मान्यता प्राप्त निबंधित दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों ने देश भर में कुल 5 करोड़ 34 लाख 59 हजार 813 मत पा लिये. ध्यान रहे कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 71 करोड़ 69 लाख 85 हजार 101 मतदाता पंजीकृत थे, जिनमें 41 करोड़ 71 लाख 59 हजार 281 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. इनमें से गैर मान्यता प्राप्त निबंधित दलों और निर्दलियों द्वारा पांच करोड़ से अधिक मत हासिल करना अनेक क्षेत्रों में लोगों के मुख्य दलों और उम्मीदवारों के प्रति बढ़े हुए असंतोष या विभाजित आकांक्षाओं का प्रकटीकरण है.हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आंध्र प्रदेश में प्रजा राज्यम् पार्टी, महाराष्ट्र के महाराष्ट्र नव निर्माण सेना जैसे दलों ने ही ज्यादा वोट पाये, जिनका अपने-अपने राज्यों में अस्तित्व है. राज्य स्तरीय पार्टियों को 9 करोड़ 84 लाख 51 हजार 563 (कुल मतदान का 14.39 प्रतिशत) मत, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों को 26 करोड़ 52 लाख 47 हजार 905 (कुल मतदान का 63.58 प्रतिशत) मत मिले. यानी करीब 78 प्रतिशत मत राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय दलों ने ही प्राप्त किया. फिर भी 22 प्रतिशत मतों का इनके पाले से छिटक जाना सामान्य स्थिति नहीं है, किंतु इसका भी आप विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि इनमें उन दलों ने ही ज्यादा मत हासिल किये, जो स्थानीय स्तर पर जनाधार के साथ उत्पन्न हुए थे और जिनका अस्तित्व या तो आज भी है या फिर वे किसी बड़ी पार्टी का हिस्सा बन चुके हैं.

2004 के आम चुनाव में राजनीतिक दलों की स्थिति

2004 में राष्ट्रीय दलों की संख्या छह, राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त पार्टियों की संख्या 51 और निबंधित पर गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों की संख्या 173 थी. अब जरा इनके चुनावी प्रदर्शन पर भी नजर डालिए. राष्ट्रीय पार्टियों ने कुल 1351 उम्मीदवार खड़े किये, जिनमें 364 जीत कर लोकसभा में पहुंचे. राज्यस्तरीय मान्यता प्राप्त पार्टियों ने 801 स्थानों पर लड़ कर 159 स्थानों पर विजय पायी, बाकी गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों ने 898 उम्मीदवार खड़े किये, जिनमें से केवल 15 जीते. निर्दलीय उम्मीदवारों की कुल संख्या 2385 थी, जिनमें से केवल पांच जीत पाये.

यानी 2004 में भी लोकसभा तक पहुंचने में ज्यादातर वे ही उम्मीदवार सफल हुए जो या तो राष्ट्रीय दलों के टिकट पर मैदान में थे, या राज्य स्तर पर मान्य दलों के टिकट पर. हां, परिणाम में राष्ट्रीय दलों के सांसदों की संख्या 2009 की तुलना में 12 कम थी, तो राज्य स्तरीय दलों के सांसदों की संख्या 13 ज्यादा. अगर दोनों को मिला दें तो दोनों चुनावों में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दलों के सम्मिलित प्रदर्शन में केवल एक सांसद का अंतर था. दूसरी ओर गैर मान्यता प्राप्त दलों के और निर्दलीय सांसदों की संख्या को मिला दें तो वह 2004 की तुलना में 2009 में एक ज्यादा था.

मतों की संख्या के आधार पर विचार करें तो 2004 में कुल 38 करोड़ 97 लाख 79 हजार 784 मतदाताआें ने मताधिकार का प्रयोग किया था. इनमें राष्ट्रीय दलों को कुल 24 करोड़ 51 लाख 23 हजार 629 मत मिले. राज्य स्तरीय दलों को 11 करोड़ 26 लाख 64 हजार 459 मत. दूसरी ओर गैर मान्यता प्राप्त दलों को केवल 1 करोड़ 54 लाख 41 हजार 786 और निर्दलीय उम्मीदवारों को 1 करोड़ 65 लाख 49 900 मत मिले. इस प्रकार राष्ट्रीय पार्टियों को 62.89 प्रतिशत मत मिले, तो राज्य स्तरीय पार्टियों को 28.90 प्रतिशत. इसे अगर मिला दें तो कुल 91.79 प्रतिशत मत देश और राज्य के स्तर पर सक्रिय और मान्य प्राप्त मुख्य दलों ने ही प्राप्त किया. दूसरी ओर निबंधित किंतु गैर मान्यता प्राप्त दलों को केवल 3.96 प्रतिशत, जबकि निर्दलियों को केवल 4.25 प्रतिशत मत मिले. राष्ट्रीय दलों के कुल 1351 उम्मीदवारों में 541 के जमानत जब्त हुए, तो राज्य स्तरीय दलों के 801 में से 440 और गैर मान्यता प्राप्त निबंधित दलों के 898 में से 867 के और कुल 2385 निर्दलीय में से 2370 के जमानत जब्त हो गये. यानी कुल 5435 उम्मीदवारों में से 4218 के जमानत जब्त हो गये, 1217 उम्मीदवार ही अपनी जमानत बचा पाये.

गैर मान्यता प्राप्त दल एवं निर्दलीय राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं बदलते

पिछले दो लोकसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण यह साबित करता है कि निबंधित गैर मान्यता प्राप्त दलांे और निर्दलीय उम्मीदवार अभी तक राष्ट्रीय परिदृश्य को बदलने की ताकत नहीं बन पाये हैं. गैर मान्यता प्राप्त दलों में भी सफल होनेवाले ज्यादातर वे ही नेता हैं, जो राज्यों में या क्षेत्र विशेष में सक्रिय हैं या किसी दल से अलग हुए हैं. यही स्थिति निर्दलियों के साथ है. गैर मान्यताप्राप्त दलों का मत एक साथ जोड़ने के कारण ही यह 3-4 प्रतिशत या कुछ करोड़ हो जाता है. निर्दलीय उम्मीदवारों में बहुत से ऐसे भी हैं, जो कुल 200 मत भी नहीं पा सके. हां, कुछ उम्मीदवार ऐसे थे जिन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी, लेकिन यह न भूलें कि इनमें 96 प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो गये.

मान्यता रद्द करने का तर्क

इसे आधार बनाकर तर्क दिया जाता है कि जिन दलों का प्रदर्शन चुनाव में अच्छा नहीं होता उनकी मान्यता रद्द कर दी जाये. पूर्व चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने पिछले चुनाव के समय यह बयान दिया था कि निबंधित पार्टियों में से ज्यादातर चुनाव नहीं लड़ते, इसलिए उनकी मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए. चुनाव आयोग कई बार ऐसे मत व्यक्त करता है और वह जो तर्क देता है उसके ठोस आधार भी दिखाई देते हैं. जितने दलों का निबंधन होता है, वे सभी आम चुनाव में भाग नहीं लेते. 2009 में यदि 363 दलों ने चुनाव लड़ा, तो 2004 के चुनाव में 980 दलों में से 173 ने ही. इस साल के आम चुनाव में भी चुनाव मैदान में उतरनेवाले दलों की संख्या इससे बहुत ज्यादा नहीं होगी. जब ये चुनाव में भाग ही नहीं लेते, तो फिर चुनाव आयोग के यहां निबंधन बनाये रखने या इनकी मान्यता कायम रखने का वजनदार औचित्य नहीं दिखता. इस तर्क के पीछे और भी ठोस आधार आपको दिखाई देंगे.

आदर्श, अखंड से लेकर सोशलिस्ट रिपब्लिक तक

जरा इन दलों के नामों की शुरुआत पर नजर डालिए. आदर्श नाम से आरंभ सात पार्टियां हैं. अखिल से नाम की शुरुआत करनेवाली 48 पार्टियां हैं, जिनमें अखिल भारतीय नाम से 40 हैं. 39 पार्टियां ऑल इंडिया नाम से अपनी शुरुआत करती हैं. आठ पार्टियां तो आंबेडकर के नाम पर हैं, 17 पार्टियां बहुजन नाम से हैं, भारत, भारती और भारतीय से शुरू होनेवाले 120 दल हैं, जिनमें भारती से 4, भारत से 22 तो 94 दल भारतीय से नाम शुरू करते हैं. 7 पार्टियां दलित के नाम से और एक दलितिस्तान नाम से है. गरीब नाम से पांच और गरीबजन नाम से एक पार्टी है. हिंदुस्तान से दस पार्टियों का नाम आरंभ होता है, तो हिंदुस्तानी से दो. हिंद नाम से सात और हिंदू से दो पार्टियों का नाम आरंभ होता है. 30 पार्टियों के नाम की शुरुआत इंडिया से होती है. 12 पार्टियों के नाम का आरंभ जय से है. 12 पार्टियों के नाम में झारखंड, तो नौ के नाम में जम्मू है. जन के नाम से शुरू होनेवाली 35 पार्टियां हैं. किसान नाम से आरंभ होनेवाली 11 पार्टियां हैं. 11 पार्टियां क्रांति नाम से हैं, तो 33 के नाम का आरंभ लोक से है. मानव नाम से 9 पार्टियां हैं. 21 पार्टियों की शुरुआत नेशनल और 4 की नेशनलिस्ट से है, तो 147 राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी 10 एवं राष्ट्र से 7. 14 पीपुल्स पार्टियां हैं, तो प्रजा वाली पार्टियां हैं 9. रिपब्लिकन से 13 दलों की शुरुआत होती है. 7 तो सोशलिस्ट नाम से पार्टियां हैं. यानी विचार के स्तर पर शायद ही कोई नाम बचा हो जिनसे हमारे देश में पार्टियां नहीं हों. ये कितने आदर्श, अखंड, राष्ट्रीय हैं, इसका मूल्यांकन करने से चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान आ जाती है.

क्या राजनीतिक दलों की इस बाढ़ का निषेध हो सकता है?

जैसा हमने आरंभ में कहा इसे कुछ लोग भारतीय लोकतंत्र या राजनीति का रोग मान कर ऐसे उपाय करने की सलाह देते हैं, ताकि इनके उद्भव की संभावना ही नि:शेष हो जाये या फिर इनकी मान्यता रद्द करने या पार्टियों के निबंधन की और चुनावों में भागीदारी की शर्तें कठोर करने की सलाह दी जाती रही है. क्या ऐसा करना वांछनीय होगा? पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि जब ये निर्थक रूप से बने हुए हैं तो फिर इनका न होना ही बेहतर है, किंतु यह लोकतांत्रिक अवधारणाओं के विपरीत जानेवाले कदम होंगे.

संविधान के अनुसार संगठन, समूह, दल बनाने के अधिकार से हम किसी को वंचित नहीं कर सकते और न ऐसा होना ही चाहिए. हमें यदि किसी दल का सदस्य बनने का अधिकार है तो दल के गठन का अधिकार कैसे खत्म किया जा सकता है? सरकारी ढांचे में दल गठन के लिए कठोर शर्ते कठिन और जटिल होंगी. यह आंशिक अधिनायकवाद का कदम होगा. आप इसका आधार क्या बनाएंगे? मान लीजिए, किसी ने दल बनाया, लेकिन वह चुनाव में भाग नहीं लेना चाहता तो यह उसका अधिकार है. इस आधार पर कैसे उसका निबंधन रद्द हो सकता है कि आपने चुनाव में भाग नहीं लिया. जहां तक जमानत जब्त होने की ही बात है तो राष्ट्रीय पार्टियों के भी औसतन 40 प्रतिशत उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो रहे हैं और राज्य स्तरीय दलांे के करीब 60 प्रतिशत उम्मीदवारों के. क्या हम इस आधार पर इन दलों के या इनके उन उम्मीदवारों के भी, जिनके जमानत जब्त हुए, चुनाव लड़ने पर रोक लगा सकते हैं? नहीं न. तो इस अधार पर दूसरे को कैसे रोक सकते हैं? निर्दलियों के तो 99 प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो जाते हैं. इसके आधार पर हम किसी को स्वतंत्र रूप से चुनाव में खड़ा होने से नहीं रोक सकते. कुछ शर्तें लगी भी हैं.

अच्छे उद्देश्य से गठित पार्टियां भी

निस्संदेह, इनमें से अनेक दल किसी या कुछ लोगों की निजी महत्वाकांक्षाओं या कुंठाओं, व्यापक समझ न होने या अन्य संकुचित कारणों से पैदा होते हैं. लेकिन सारे इसी श्रेणी के नहीं होते. ऐसे सदाशयी और संवेदनशील लोग भी पार्टियां गठित करते हैं, जो मानते हैं कि इसके द्वारा वे शायद कुछ बेहतर काम कर सकें. इनकी शक्ति सीमित होती है, पर इनकी भावना अच्छा काम करने की होती है. आप देखेंगे कि इनमें अनेक पार्टियां तो प्रमुख पार्टियांे और नेताओं से मोहभंग, निराशा या उनकी वादाखिलाफी के विरुद्ध पैदा हुईं हैं. अगर ये प्रमुख पार्टियां, ये नामचीन नेता अपना दायित्व ठीक प्रकार से निभाते, या फिर अपने फैसले में जनता की भागीदारी बढ़ाते जाते तो इतना व्यापक असंतोष पैदा ही नहीं होता. इसलिए समस्या की जड़ तो वर्तमान राजनीतिक दलों व नामचीन नेताओं के क्षरण व विचलन में निहित है. तो इलाज इसका होना चाहिए. दलों के निबंधन या चुनाव में भाग लेने को अति कठोर शर्तों में बांधना या उनकी चुनाव में भागीदारी न करने के अधार पर उनकी मान्यता रद्द करने का कदम समस्याओं को और जटिल बनायेगा.

राजनीतिक दलों के कैसे-कैसे नाम!

जरा कुछ नामों पर नजर दौड़ाइये और अपने अंतर्मन में उभरनेवाले भावों को परखिये. अगर जन पार्टी, आदिम भारतीय दल, अखंड भारतीय कवच पार्टी, अखिल भारतीय भारत माता-पुत्र पक्ष, अखिल भारतीय जनता सहारा पार्टी, अखिलान्द्र महादेशम, ऑल इंडिया गरीब कांग्रेस, ऑल इंडिया क्रांतिकारी कांग्रेस, ऑल इंडिया सद्गुण पार्टी, अल्पजन समाज पार्टी, अन्नदाता पार्टी, बेस्ट क्लास पार्टी, भारत नव निर्माण वोटर सेना, भारतीय नेताजी पार्टी, भारतीय गांव ताज दल, भारतीय ज्वाला शक्ति पक्ष, भारतीय कार्यस्थ सेना, भारतीय मुहब्बत पार्टी, भारतीय स्वर्ण समता पार्टी, बुद्धिविवेकी विकास पार्टी, डेमोक्रेटिक प्रजाक्रांति पार्टी सेक्युलरिस्ट, देव सेना पार्टी, दिव्य शक्ति, गरीब सामना पार्टी, गोल्डेन इंडिया पार्टी, इंडियन ओसियनिक पार्टी, इंडियंस विक्टरी पार्टी, जागो पार्टी, जागते रहो पार्टी, जय विजय भारती पार्टी, जन लोकमत पार्टी, जन सामंत पार्टी, जन समर्थन दल, जन प्रिया, जनानिष्ट, जनरल समाज पार्टी, ज्वाला दल, किशोर राज पार्टी, लाल मोर्चा, लघुजन विकास पार्टी, लोकप्रिय समाज पार्टी, लाइफ पीस पार्टी, महान दल, मन पार्टी, महाशक्ति इन्कलाब पार्टी, मर्यादी दल, मातृभक्त पार्टी, मेधा पार्टी, मूल भारती एस पार्टी, नैतिक पार्टी, नेशनल फ्यूचर पार्टी, नेशनल टाइगर पार्टी, नि:स्वार्थ सेवा पार्टी, नूरी पार्टी, पहचान मंगलकारी पार्टी, परचम पार्टी, प्रेम जनता दल, राष्ट्रीय अग्रणीय दल, राष्ट्रीय जनसचेतन पार्टी, राष्ट्रीय जनशांति पार्टी, राष्ट्रीय कर्मयोग पार्टी, राष्ट्रीय साकार पार्टी, राष्ट्रीय समाधान पार्टी, राष्ट्रीय सामंत दल, राष्ट्रीय समदर्शी देशभक्त दल, सबका दल, भारतीय समाजवादी कांग्रेस, टोला पार्टी, त्रिलोकशक्ति कांग्रेस भारत, त्रिलिंग प्रजा प्रगति पार्टी, विजेता पार्टी, विश्व माया पॉलिटिकल पार्टी..

इन अजीबोगरीब नामों से कोई क्या निष्कर्ष निकालेगा? इनसे दो बातें तो बिल्कुल साफ हैं. एक, ये पार्टियां गंभीर विचार-विमर्श के बाद किसी दूरगामी बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखकर गठित नहीं हुईं. और दूसरा, इनके पीछे जो लोग हैं उनके सोच अत्यंत ही सीमित हैं या फिर कुछ मन:स्थितियों की भी समस्याएं इनके पीछे होंगी. जब पार्टियों के गठन के पीछे गंभीर विचार-विमर्श नहीं, कोई व्यापक सोच नहीं, तो फिर इनके विस्तार की योजना भी नहीं हो सकती और इस कारण इनमें से ज्यादातर केवल नाम के ही दल रह जाते हैं. इनकी भूमिका न गैर चुनावी राजनीतिक गतिविधियों में होती हैं और न चुनाव में ही इनकी प्रभावी उपस्थिति दर्ज हो पाती है. तो मुख्य निष्कर्ष यह है कि इनके होने का कोई अर्थ नहीं. ये बस हमारे संविधान और कानून की उदारता का लाभ उठा कर कतिपय कारणों से गठित कर दिये जाते हैं.

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