झारखंड को अल्पसंख्यकों की आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र सरकार से करोड़ों रुपये मिलते हैं. पर, राज्य उन पैसों का उपयोग नहीं कर पाता. कई बार राज्य केंद्र को डीपीआर बना कर नहीं दे पाता तो कई बार कार्य होने के बाद उसका उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दे पाता, जिससे केंद्र अगली किस्त का पैसा रोक देता है.
ऐसे में नुकसान अल्पसंख्यक समुदाय का होता है. अल्पसंख्यक विकास योजनाओं में पंचायत प्रतिनिधियों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. पर, उन्हें अबतक इसमें भागीदार नहीं बनाया गया. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग क्या सोचते हैं, उनकी क्या जरूरतें हैं, यह जानने के लिए रांची के जिला परिषद सदस्य ऐनुल हक अंसारी से शिकोह अलबदर ने बात की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
अल्पसंख्यक गांवों में लोगों की सामाजिक शैक्षणिक तथा आर्थिक स्थिति में क्या उल्लेखनीय बदलाव आ रहे हैं?
गांवों में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की जहां तक सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक स्थिति की बात है तो इसमें सुधार के लिए सरकार की ओर से प्रधानमंत्री 15 सूत्री कार्यक्रम बनाया गया है. मेरी जानकारी के अनुसार, वर्ष 2008-09 से झारखंड राज्य के तीन जिलों में इस योजना को लागू किया गया है. लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि योजना के पैसों को जिन मुसलिम, सिख या ईसाई बहुल गांवों या क्षेत्रों के विकास में खर्च किया जाना था, वहां इस पैसे को उपस्वास्थ्य केंद्रों में खर्च किया गया है. इसका प्रमाण है. जबकि सरकार के पास इसके लिए अलग से मद है.
सबसे दुखद बात यह है कि माइनोरिटी का स्पेशल फंड है ही नहीं. शैक्षणिक स्थिति को बेहतर और पंचायतों और गांवों में विकास के लिए अल्पसंख्यक बहुल इलाके में आइटीआइ,अल्पसंख्यक नर्सिग कॉलेज के अलावा मैरिज हॉल, सामुदायिक भवन आदि के भी निर्माण का प्रावधान है. प्रत्येक मुसलिम गांव जिसकी आबादी 60 प्रतिशत से अधिक है, वहां पीने योग्य स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के लिए वॉटर टैंक का निर्माण कराना है. लेकिन जब फंड है ही नहीं तो क्या विकास होगा. अब चुनाव नजदीक है तो एमएसडीपी (मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम) के तहत चान्हो और कांके के काटमकुली में एक-एक आइटीआइ खोलने की बात सामने आयी है. चूंकि मैं प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति का सदस्य भी हूं और 15 फरवरी की बैठक में मैं शामिल भी हुआ था, तो मैंने यह महसूस किया कि यहां (रांची) के डीसी अल्पसंख्यक कल्याण के प्रति जागरूक ही नहीं हैं. उनके गांवों के विकास के लिए पदाधिकारियों को अपनी जिम्मेवारी का अहसास नहीं है. जो भी अल्पसंख्यक विकास के लिए फंड है उसका भी सही इस्तेमाल नहीं होता है.
पंचायतों में तब अल्पसंख्यक जनप्रतिनिधि किस तरह से व्यक्तिगत प्रयास कर अपनी भूमिका निभा रहे हैं?
ग्रामसभा को सबसे बड़ा माना गया है. यदि अल्पसंख्यक को वोट देने का अधिकार नहीं होता तो इनकी ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता. पानी बिजली, सड़क इसके लिए पंचायत से जुड़े सभी लोग काम करते हैं. मैं स्वयं संबंधित पदाधिकारियों को पत्र लिख कर उनका ध्यान इन विषयों पर दिलाता रहता हूं और सिर्फ अल्पसंख्यक के लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए. लेकिन यहां के पदाधिकारी के सामने जब विभाग के मंत्री और विधायक की बात नहीं सुनी जाती तो पंचायत स्तर के जनप्रतिनिधियों की कौन सुनेगा. अल्पसंख्यक गांव अथवा पंचायतों में किसी मामले पर आपसी सुलह मशवरा कर काम किया जाता है. सड़क निर्माण, बिजली आपूर्ति, पीने योग्य पानी हो या गांव के केस मुकदमा, इन सभी को आपस में बैठ कर मामले को सुना जाता है, सुलझाया जाता है तथा विकास के सभी कामों को आगे बढ़ाया जा रहा है. गांव में यदि चापानल या ट्रांसफर खराब हो गया हो तो यह व्यक्तिगत तौर पर पंचायत प्रतिनिधि की जिम्मेवारी होती है कि इसे ठीक करायें और ऐसा वे कर रहे हैं. ग्रामीणों को लाल कार्ड आदि बनवाने में सहायता करते हैं. शैक्षणिक अधिकार के तहत छात्रवृत्ति दी जाती है, जिसे प्रत्येक पंचायत में अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों को उपलब्ध कराये जाने का प्रयास किया जाता रहा है. चालीस प्रतिशत छात्रों को इसका लाभ मिला है. छात्र-छात्रएं इन योजनाओं को लेकर जागरूक हो रहे हैं. उम्मीद है तस्वीर बदलेगी.
क्या ऐसा लगता है कि अल्पसंख्यक जनप्रतिनिधि के साथ पक्षपात होता है?
जातिगत भावना तो कुछ हद तक है. अगर ऐसा होता है तो विकास नहीं हो सकता. इसका उदाहरण है हटिया विधानसभा. यहां मुसलिमों की संख्या 75 प्रतिशत है. चुनाव होता आया है, लेकिन किसी पार्टी नें मुसलिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है. यह स्थिति बताती है कि अल्पसंख्यक के साथ पक्षपात होता है तो इसी प्रकार से छोटे स्तर पर के जनप्रतिनिधियों के साथ भी पक्षपात होता होगा.
शहरों में सांप्रदायिक वैमनस्य की भावना बढ़ी है. क्या इसका असर गांवों में भी पड़ा है. क्या गांवों में सांप्रदायिक तालमेल पर असर पड़ा है?
सांप्रदायिक सहिष्णुता को लेकर गांवों में थोड़ा अंतर है. शहर की अपेक्षा गांव में लोगों के व्यक्तिगत संबंध अच्छे हैं और यह कहा जा सकता है कि गांव की स्थिति शहरों की अपेक्षा निश्चित रूप से अच्छी है. मैं पिठोरिया के एक गांव में रहता हूं. यहां एक बार कुछ ऐसा मामला हुआ कि दो समुदायों में तनाव हो गया था. तब अफवाह भी फैली. लेकिन जल्द हमने दूसरे समुदायों के लोगों से मिल कर गांव मुहल्ले के प्रत्येक घरों का दौरा किया और सभी बिरादरी के लोगों को समझाया. ऐसी स्थितियों में अफवाह भी तेजी से फैलती है. ऐसे में उस समयसभी जनप्रतिनिधियों ने लोगों से मुलाकात कर इस पर ध्यान न देने का लोगों से आग्रह किया. सांप्रदायिक तालमेल को बनाये रखने और विश्वास न तोड़ने की अपील की. गांव के लोग इस मामलों पर तेजी से प्रतिक्रिया देकर ऐसी स्थिति पर काबू कर लेते हैं. यह गांवों के समाज की अपनी विशिष्टता है.
अल्पसंख्यक गांवों में आधारभूत संरचना कैसी है?
चुनाव हुआ है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह बात सामने है कि जो भी अल्पसंख्यक जनप्रतिनिधि हैं, उनको वित्तीय अधिकार नहीं मिल पाता है. पंचायत राज में जो भी आता है वह लोगों के द्वारा चुन कर आता है. सभी जनप्रतिनिधि चाहते हैं कि उनके क्षेत्रों का पूर्ण विकास हो मगर निर्णय लेने के लिए वे स्वतंत्र नहीं हैं. इससे अल्पसंख्यक गांवों के विकास पर असर पड़ा है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रलय और आयोग से मिलने वाले सहयोग के बारे में बतायें.
पंचायती राज में नीचे के स्तर के जो जनप्रतिनिधि हैं उन्हें जिस प्रकार से तरजीह मिलनी चाहिए थी वैसी नहीं मिलती. एमपी या एमएलए गांवों को कितना जानेंगे. पंचायत और गांव की समस्या को मुखिया और उपमुखिया और वार्ड पार्षद अधिक जानते हैं. इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान के तहत योजना को लागू किया जाना है और इसे उग्रवाद प्रभावित जिलों के सुदूरवर्ती गांवों में लागू किया जाना है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. अधिकतर योजना शहरी क्षेत्र से सटे गांवों में लागू की जा रही है. तो कैसे मानंे कि इसका लाभ उन अल्पसंख्यक गांवों के हालात बदलने में मिलेगा. अल्पसंख्यक गांवों में विकास के लिए डीसी को जिम्मेवारी दी गयी है और डीसी को क्या पता कि कैसे काम करें. विकास तभी संभव है, जब एक अल्पसंख्यक कमेटी गठित कर विकास की जिम्मेवारी उस समुदाय के लोगों को दी जाये. मेसो की तर्ज पर एमएसडीपी को सही तरीके से लागू किया जाये. उसका अलग कार्यालय हो, अलग पदाधिकारी नियुक्त किये जायें. अल्पसंख्यक स्कूल नहीं चल रहे हैं. देश की दूसरी भाषा उर्दू है. राज्य में 4001 उर्दू शिक्षक की नियुक्ति के लिए वेकैंसी निकली थी, मगर इस पर काम नहीं हुआ. यह मामला अधर में लटका हुआ है. मंत्रलय व आयोग किसी प्रकार से काम नहीं कर पा रहा है.
झारखंड के कई जिलों में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक बुनकर थे. ये सभी हस्तकरघा के काम से जुड़े हुए थे लेकिन अब इनका पलायन हो रहा है. इसके लिए क्या काम किया जा रहा है और कैसे उनके पलायन को रोका जा सकता है.
पंचायत स्तर पर बुनकरों को रोकने का काम किया जाना चाहिए. इरबा रीजनल हैंडलूम के माध्यम से राज्य के कई गांवों में हैंडलूम लगाया गया है, लेकिन कोई सकारात्मक काम नहीं हो पा रहा है. यदि एक गांव में चार हैंडलूम यूनिट लगाये गये हैं. उदाहरण के रूप में इचापीटी पंचायत के ग्राम पीरूटोला नया टोली में. यहां चार हैंडलूम यूनिट है और प्रत्येक यूनिट के 50 सदस्य हैं. इससे 200 लोगों का रोजगार चलता है. लेकिन इरबा रीजनल हैंडलूम पूरी तरह से इस योजना को लेकर गंभीर नहीं है. यूनिट के सदस्यों पर यदि मेहरबान होती तो इनका अच्छा घर परिवार चलता और पलायन रूकता. परिवार की आर्थिक स्थिति बदलती लेकिन कमीशन पदाधिकारी ले लेते हैं और काम कुछ होता नहीं है. इस कारण से अल्पसंख्यक गांव जहां बुनकर अधिक संख्या में हैं, वे बदहाल हैं. पंचायत स्तर पर भी जनप्रतिनिधियों का अच्छा समन्वय नहीं होता है. जरूरी है कि इसके लिए मिलजुल कर काम किया जाये.
अल्पसंख्यक गांवों के विकास के लिए सरकार को क्या ठोस पहल करनी होगी?
अल्पसंख्यकों को आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक संरक्षण देना होगा. अल्पसंख्यक गांवों या पंचायत में जो भी स्कूल चल रहे हैं, वहां की शिक्षण व्यवस्था सही करनी होगी, ताकि समान शिक्षा मिल सके. अल्पसंख्यक समुदाय के युवा वर्ग में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा दिया जाये. साथ ही स्वयं का रोजगार करने के लिए इन समुदायों के युवाओं को बिना किसी भेदभाव के आसान तरीके से कम ब्याज पर लोन देने की व्यवस्था की जाये. रंगनाथन मिश्र तथा सच्चर कमेटी की सिफारिश को सही तरीके से लागू किया जाये.
ऐनुल हक अंसारी
जिला परिषद सदस्य
रांची