कोई भी बड़ा और कठिन कार्य सच्ची लगन और सही दिशा में की गयी मेहनत से आसान हो जाता है. कुछ ऐसे भी कार्य होते हैं, जिसमें टीम की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. हमारी आजादी भी कुछ ऐसी ही थी. लाखों लोगों ने अपनी जान गंवायी तब जा कर मिली हमें आजादी. आज की कहानी उस वीर की है, जिसने अपनी जमीन को पाने के लिए न सिर्फ बल और शौर्य का प्रयोग किया, बल्कि साम-दाम-दंड-भेद की नीति को बखूबी अपनाया और सफल हुए.
हम बात कर रहे हैं छत्रपति शिवाजी की, जिन्हें उनकी वीरता, फुरती और चालाकी के लिए जाना जाता है. शिवाजी के व्यक्तित्व से रू-ब-रू करा रहा है निभा सिन्हा का आलेख.
19 फरवरी, 1630 को महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में शाहजी भोंसले तथा जीजाबाई के घर एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम शिवाजी राज भोंसले रखा गया. इनकी शिक्षा-दीक्षा माता जीजाबाई के संरक्षण में हुई. माताजी द्वारा दिए गये संस्कारों का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा. इनकी प्रतिभा को निखारने में दादा कोणदेव का भी अभूतपूर्व योगदान रहा है.
आकर्षक व्यक्तित्व के राजा
शिवाजी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि उनसे मिलनेवाला हर व्यक्ति उनसे प्रभावित हो जाता था. उनकी राजनीति में धार्मिक और जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी. शिवाजी के गुणों की प्रशंसा उनके शत्रु भी करते थे. उन्होंने देशवासियों के दिल में देशभक्ति की प्रबल भावना जगायी, जिससे जनता उनके एक इशारे पर मर-मिटने को तैयार रहती थी.
कठिनाइयों से भरा बाल्यकाल
जिस समय शिवाजी का जन्म हुआ था, उस समय हमारे देश में मुगलों का शासन था. दक्षिण भारत के मुगल शासक बड़े निरंकुश थे. प्रजा की भलाई का कोई काम नहीं करते थे. शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान के अधीन थी. इस कारण उनके पिता और उन्हें हमेशा कठिनाइयों और युद्धों का सामना करना पड़ता. कठिनाइयों से शिवाजी तनिक भी नहीं घबराते थे. कठिनाइयां उनके इरादे को और पक्का कर देती थी. बचपन में ही वे युद्ध-कला में पारंगत हो गये और अंतिम समय तक हिम्मत और वीरता से दुश्मनों को नाकों चने चबवाते रहे.
पिता के लिए समर्पित
बाल्य काल में कई कारणों से पिता शाहजी भोंसले, शिवाजी के साथ ज्यादा समय तक नहीं रह पाते थे, फिर भी उन्होंने पिता के मान-सम्मान का ख्याल रखा. जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी भोंसले को बंदी बना लिया, तो आदर्श पुत्र ने सुल्तान से संधि कर पिता को छुड़ाया. पिता की छोटी सी जागीर को अपने साहस, शौर्य और युद्ध-नीति से एक स्वतन्त्र और शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित किया. पिता से अलग एक बड़े राज्य के अधिपति होने के बाद भी अपना राज्याभिषेक पिता के मरने के बाद ही करवाया.
आदर्श शिष्य शिवाजी
गुरुभक्ति की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुयी थी. गुरु समर्थ रामदास उनके आधयात्मिक गुरु थे, जिन्होंने उन्हें देश-प्रेम और देश के उद्धार के लिए प्रेरित किया. एक बार उनके गुरु भिक्षा मांग रहे थे. यह देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ. शिवाजी गुरु की चरणों में बैठकर विनती करने लगे कि आप मेरा समस्त राज्य ले लें पर भिक्षा न मांगे. गुरु रामदास ने उनकी गुरुभक्ति से प्रसन्न हो कर कहा कि वो राष्ट्रबंधन में नहीं बंध सकते इसलिए शिवाजी उनके तरफ से राज्य कुशलतापूर्वक संचालित करें. इतना कहने के बाद गुरु ने केशरिया रंग के दुपट्टे से एक टुकड़ा फाड़ कर दिया और कहा कि यह टुकड़ा सदैव तुम्हारे साथ तुम्हारे राष्ट्र-ध्वज के रूप में रहेगा और तुम्हें अपने कर्तव्यों की याद दिलाता रहेगा. शिवाजी ने अपने गुरु की वाणी को एक आदर्श शिष्य की तरह याद रखा और प्रजा को संतान की तरह मानते रहे. इस कारण उनके शासन-काल में आंतरिक विद्रोह नहीं हुआ.
साहसिक प्रयास से मिली सफलता
शिवाजी अपनी मां और दादाजी के काफी करीब रहे. इसलिए उनके द्वारा दी गयी सीख का प्रभाव शिवाजी के जीवन पर काफी पड़ा. युद्ध की तैयारी से पहले उन्होंने जनता को संगठित करने का काम किया. युद्ध कौशल में प्रवीणता का भी उन्हें भरपूर फायदा मिला. दुश्मनों से लोहा लेने और उन्हें धूल चटाने के लिए शिवाजी ने विशेष योजनाएं तैयार की. उनके प्रमुख दुश्मन अफजल खां, शाइस्ता खां और औरंगजेब को उन्होंने अपनी नीति के बदौलत ही पटकनी दी. एक बार जब वे फंस गये तो चालाकी से फलों की टोकरी में छिपकर भाग निकले, जो उनकी बुद्धि कौशल को दर्शाता है. उनकी गोरिल्ला रणनीति (छापामार रणनीति) भी उनके जीत में काफी सहायक रही, जिसकी प्रैक्टिस आज के सैनिक भी करते हैं. अपनी चालाकी और कुटनीति के बल पर मुगलों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तगालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं को उन्होंने हराया. उनका राज्य विस्तार बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में फैल गया था.