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जिन्ना श्रीनगर में ईद नहीं मना सके

बलबीर दत्त अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर हमले की कुटिल योजना बनाते समय मुहम्मद अली जिन्ना ने 25 अक्तूबर को श्रीनगर में ईद मनाने का हसीन सपना देखा था. तीन जून 1947 को देश विभाजन की योजना पर मुहर लगने के बाद अन्य देशी रियासतों की तरह यदि कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भी […]

बलबीर दत्त
अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर हमले की कुटिल योजना बनाते समय मुहम्मद अली जिन्ना ने 25 अक्तूबर को श्रीनगर में ईद मनाने का हसीन सपना देखा था. तीन जून 1947 को देश विभाजन की योजना पर मुहर लगने के बाद अन्य देशी रियासतों की तरह यदि कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भी भारत में विलय का निर्णय कर लिया होता, तो बहुत-सी अनिष्टकारी घटनाएं नहीं घटतीं. महाराजा को निर्णय का अधिकार प्राप्त था.
1947 के भारतीय स्वाधीनता अधिनियम में विलयन की जो व्यवस्था स्वीकार की गयी थी, उसमें कहा गया था कि “किसी भी भारतीय रियासत के शासक द्वारा हस्ताक्षर किये गये विलय पत्र पर गवर्नर जनरल द्वारा स्वीकृति प्रदान किये जाने के बाद वह रियासत उस अधिराज्य (भारत या पाकिस्तान) में सम्मिलित मानी जायेगी.”
पाकिस्तान की कुटिलता
14-15 अगस्त 1947 तक, जब पाकिस्तान और स्वतंत्र भारत का जन्म हुआ, महाराजा ने दोनों ही देशों में से किसी में शामिल होने का चयन नहीं किया था. उन्होंने भारत और पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ (यथास्थिति समझौता) किया था. शायद उनका इरादा स्वतंत्र राज्य के रूप में रहने का था.
महाराजा के निर्णय या अनिर्णय से पाकिस्तान को लगा कि कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने की संभावना बहुत कम है. पाकिस्तान ने महाराजा के साथ हुए अस्थायी समझौते का उल्लंघन किया और कश्मीर पर आर्थिक और अन्य दबाव डालने शुरू कर दिये. पाकिस्तान ने कश्मीर में आवश्यक वस्तुओं खाद्यान, पेट्रोल, नमक और चीनी आदि की सप्लाई के दोनों मुख्य मार्ग बंद कर दिये. जब इन दबावों का कोई असर नहीं हुआ, तब पाकिस्तानी सीमा की ओर से सरहदी सूबे के पठान कबाइलियों की घुसपैठ और हमले की योजना बनायी गयी.
यह योजना पाकिस्तान के षडयंत्र-प्रिय सैनिक अधिकारी मेजर जनरल अकबर खान और सरहदी सूबे के मुख्यमंत्री कयूम खान ने बनायी थी. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान में शामिल करने की हरी झंडी अपने वजीरे आजम लियाकत अली खान को दे चुके थे. कबाइली हमले के पीछे पाकिस्तानी फौज का समर्थन और ताकत आवश्यक मानते हुए उसी के अनुरूप तैयारी की गयी थी.
महाराजा की गुहार
24 अक्तूबर को यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था कि सरहदी सूबे के पठान कबाइलियों का हमला न केवल पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रेरित था, बल्कि हथियार व अन्य साधनों के साथ उसी के द्वारा प्रायोजित भी था. 24 अक्तूबर को विजयादश्मी थी. शत्रु के बारामूला के निकट पहुंचने और फिर श्रीनगर की बारी आने की खबर से लोगों का हौसला पस्त हो जाता. इसे ध्यान में रखते हुए भारी जोखिम के बावजूद महाराजा की शोभायात्रा निकाली गयी.
रात्रि दरबार समाप्त होने के बाद एकाएक बिजली गुल हो गयी. पता लगा कि हमलावरों ने मोहरा बिजलीघर, जो बारामूला से मात्र 17 मील की दूरी पर था और जहां से श्रीनगर और कश्मीर के कई अन्य नगरों को बिजली मिलती थी, को नाकारा कर दिया है. इस समाचार से राजमहल में निराशा छा गयी. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए महाराजा ने रात 11 बजे भारत सरकार को संदेश भेज कर सैनिक सहायता का अनुरोध किया. महाराजा का अनुरोध प्राप्त होने के बाद 25 अक्तूबर को जब स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन की अध्यक्षता में नयी प्रतिरक्षा समिति की बैठक हुई, तब यह महसूस किया गया कि कबाइली हमलावरों को रोकना आसान नहीं है. हमलावर श्रीनगर से कुछ ही मील दूर रह गये थे. इस खतरनाक धावे को रोकने के लिए जमीन के रास्ते कुमुक भेजने में कुछ कठिनाइयां आतीं.
भारत सरकार ने निर्णय किया कि भारतीय सेनाएं कश्मीर में तभी भेजी जा सकती हैं जब महाराजा हरि सिंह कश्मीर का भारत में विलय कर दें. 26 अक्तूबर को महाराजा ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये.
जिन्ना का हसीन सपना
इस बीच कबाइली हमलावरों के भोग-विलास और लूटपाट में लग जाने के कारण उनके श्रीनगर पहुंचने में विलंब हो गया। पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना 25 अक्तूबर को श्रीनगर में ईद मनाना चाहते थे. हमलावरों के सरदार उन्हें जल्द से जल्द कूच कर 25 अक्तूबर तक श्रीनगर पहुंचने के लिए प्रेरित कर रहे थे.
लेकिन हमलावर बारामूला में ही जश्न मनाने लग गये. 27 अक्तूबर की सुबह एक नया संदेश लेकर आयी. सुबह आठ बजे कश्मीर घाटी में भारतीय डकोटा विमानों की आवाज गूंजने लगी. श्रीनगर हवाई अड्डे पर भारतीय विमानों को मंडराते देखकर लोगों की हर्ष ध्वनि के बीच पहली सिख रेजिमेंट के 329 जवानों और अधिकारियों की पहली खेप को उतारा गया, उनके पास काफी गोला-बारूद था.
भारतीय सैनिकों को हवाई अड्डे से युद्ध क्षेत्र तक ले जाने के लिए हवाई अड्डे के बाहर जनता के बीच ‘जय हिंद’ और ‘सतश्री अकाल’ के नारे लगाते हुए सिख सैनिक ट्रकों पर रवाना हो गये. उनके वहां पहुंचते ही श्रीनगर का वातावरण बदल गया. बाद में भारतीय सैनिकों की दूसरी टुकड़ियां पहुंची. उन्होंने हमलावरों को खदेड़ना शुरू किया. वायुसेना ने भारतीय सैनिकों की ऊपर से मदद की. हमलावरों में से 300 मारे गये.
पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार ने नैतिक सिद्धांतों और कथित अंतरराष्ट्रीय कायदे-कानूनों की बारीकियों को लेकर विलय को मंजूरी देने में देर लगायी और दो दिन का अत्यंत महत्वपूर्ण समय, जिसमें एक-एक मिनट का महत्व था, व्यर्थ बरबाद कर दिया.
इसका नतीजा यह हुआ कि कबाइली और पाकिस्तानी सेना के छद्म हमलावर श्रीनगर एयरपोर्ट के पास पहुंच गये. यदि पाकिस्तानी हमलावर बारामूला में लूटपाट और दुष्कर्म में मश्गूल नहीं हो जाते, तो श्रीनगर एयरपोर्ट पर उनका दखल हो ही जाता. राजधानी श्रीनगर उनके हाथ में आ जाने से पूरा खेल खत्म हो जाता और मुहम्मद अली जिन्ना जोश-खरोश के साथ श्रीनगर में ईद मना रहे होते. भारत सरकार हाथ मलते रह जाती.
यह लड़ाई लंबी खिंचनी ही थी, क्योंकि बाद में पाकिस्तान ने खुद अपने झूठ का पर्दाफाश और अत्यंत निर्लज्जता के साथ अंतरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए कबाइली हमलावरों के अलावा अपनी फौज के बकायदा नियमित सैनिक भी युद्ध क्षेत्र में उतार दिये. भारत राष्ट्र संघ में फरियाद लेकर गया, लेकिन पश्चिम की साम्राज्यवादी शक्तियों के कारण इसका उल्टा ही परिणाम हुआ.
लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने बहुत सा इलाका हमलावरों से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की. लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय दबाव-प्रभाव में भारत युद्ध-विराम के लिए राजी हो गया, तब वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को भी आश्चर्य हुआ. उनका मानना था कि युद्ध विराम संधि कदापि नहीं करनी चाहिए थी, क्योंकि उस समय जो स्थितियां थीं उसमें कुछ हफ्तों में कश्मीर के शेष भाग को भी मुक्त करा लिया जा सकता था.
हमलावरों ने किया मार-काट व लूटपाट
21 अक्तूबर 1947 की शाम तक पाकिस्तान की ओर से सरहदी सूबे के जरायमपेशा कबाइली पठान, जिनमें दुनिया के सबसे खूंखार और लड़ाकू अफरीदी और मसूद कबाइली शामिल थे, सीमा के अनेक स्थानों पर इकट्ठे हो गये. आधी रात को उन्होंने कश्मीर सीमा पार की.
पहला हमला मुजफ्फराबाद पर हुआ. 22 अक्तूबर की रात और 23 अक्तूबर को दिनभर कबाइली मुजफ्फराबाद को लूटते रहे, मार-काट और दुष्कर्म की वारदातों को अंजाम देते रहे. मुजफ्फराबाद के बाजारों में उन्होंने जबरदस्त लूटपाट मचायी. उन्होंने मुसलमानों को भी नहीं बख्शा. इतनी दौलत, ऐसी खूबसूरत चीजें उन्होंने कभी देखी ही नहीं थी. जिसके हाथ जो लगा, वह ले उड़ा. इनमें से कई हमलावर माल-टाल के साथ वापस अपने वतन की ओर भाग निकले. हमलावरों को श्रीनगर की ओर बढ़ने में देर हो गयी.
उधर, महाराज ने जम्मू-कश्मीर रियासत के सेनापति ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जामवाल को अपनी थोड़ी सी और बिखरी हुई सेना को उरी भेजकर आखिरी आदमी और आखिरी गोली तक लड़ने का निर्देश दिया. ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने वहां पहुंच कर अदम्य साहस का परिचय दिया. उन्होंने हमलावरों के मुख्य दस्ते को दो दिनों तक रोके रखा और राज्य की रक्षा में बहुमूल्य सहयोग देते हुए एक शूरवीर की तरह शहीद हो गये. इसके बाद हमलावर बारामूला की ओर बढ़ गये.

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