2014 के आम चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रीय राजनीति में एनडीए और यूपीए का विकल्प बनने के लिए 11 दलों का तीसरा मोरचा आकार ले रहा है. इसके गठन में वामपंथी पार्टियां सक्रिय भूमिका निभा रही है. कद्दावर भाकपा नेता एबी बर्धन की इसमें प्रमुख भूमिका है. देश में तीसरे मोरचे की क्यों है जरूरत और क्या इस बार यह मोरचा कामयाब हो पायेगा, ऐसे सवालों पर बर्धन ने बेबाक तरीके से अपनी बात रखी. पेश है एबी बर्धन से हमारे संवाददाता विनय तिवारी की खास बातचीत.
मौजूदा समय में तीसरे मोरचे की जरूरत क्यों है, जबकि पहले के प्रयोग सफल नहीं रहे हैं. क्या तीसरा मोरचा एनडीए और यूपीए का बेहतर विकल्प बन सकता है?
तीसरा मोरचा इसलिए जरूरी है, क्योंकि देश की जनता कांग्रेसनीत यूपीए-2 सरकार से नाराज और निराश है. 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीए के 100 से अधिक सीटें जीतने की संभावना नहीं है और वह सत्ता में नहीं आयेगी. दूसरी तरफ प्रमुख विपक्षी पार्टी होने के नाते भाजपा और एनडीए के सहयोगी कांग्रेस के खिलाफ असंतोष का लाभ उठा सकेंगे. लेकिन भाजपा अपनी सांप्रदायिक नीति के कारण और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के बाद आक्रामक और विभेदनकारी हो गयी है. वह संभवत: कांग्रेस से अधिक सीटें हासिल करेगी. लेकिन इस देश की धर्मनिरपेक्ष जनता एनडीए को 150 से अधिक सीटें नहीं देगी. ऐसे में उसका सत्ता में आना मुश्किल है. इस स्थिति में गंठबंधन के लिए एक जमीन तैयार हो जाती है और दरवाजा खुल जाता है. देश में कांग्रेस और भाजपा विरोधी दलों और वामपंथी दलों के मोरचे की सरकार आने की संभावना मौजूद है.
क्या तीसरे मोरचे में मौजूदा 11 दलों के अलावा अन्य दलों को भी शामिल करने की कोशिश होगी, क्योंकि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल एक-दूसरे के धुर-विरोधी हैं. इस मोरचे का नाम क्या होगा?
तीसरा मोरचा, यह नाम पत्रकारों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है. इस गंठबंधन का नाम क्या होगा, यह चुनाव के बाद सामूहिक रूप से तय किया जायेगा. साथ ही कांग्रेस और भाजपा के विरोधी अन्य दलों को भी शामिल करने की कोशिश होगी. इस संदर्भ में यह कहना जरूरी है कि एक नयी वैकल्पिक नीति के आधार पर ही यह नया गंठबंधन सत्ता पर काबिज होगा. वैकल्पिक नीति का काफी महत्व है, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक और सामाजिक नीति एक समान है. देश की जनता इन नीतियों को बदलना चाहती है. अत: वैकल्पिक नीति के आधार पर एक वैकल्पिक सरकार बनने की संभावना मौजूद है.
कई लोगों का कहना है कि तीसरे मोरचे में शामिल दलों में काफी अंतर्विरोध है. ऐसे में इस गंठबंधन की मौजूदा समय में कोई संभावना नहीं है. क्या इस स्थिति में यह गंठबंधन टिकाऊ होगा?
यूपीए की सरकार भी गंठबंधन की सरकार थी और एनडीए की सरकार भी गंठबंधन की सरकार थी. किस आधार पर यह समझ लिया गया कि इन गंठबंधनों में पार्टियों के बीच अंतर्विरोध नहीं है. इसलिए नये गंठबंधन में भी विभिन्न पार्टियों के विचार रहेंगे, लेकिन एक सामान्य और सर्वमान्य कार्यक्रम के आधार पर यह चलेगा. हमलोग वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम पर बल दे रहे हैं. यूपीए-1 में इसलिए वाम मोरचे की भूमिका अहम थी और हमारे हटते ही यूपीए-2 सरकार भटकती रही, क्योंकि उसकी कोई निश्चित नीति नहीं थी. जो वैकल्पिक गंठबंधन बनेगा, उसमें एक सामान्य कार्यक्रम तय करने और उसके क्रियान्वयन में वाम मोरचे की भूमिका अहम रहेगी.
अब तक देश में गैरकांग्रेस और गैरभाजपा विकल्प सफल नहीं रहा है. ऐसे में लोग इसकी स्थिरता को लेकर कैसे यकीन करेंगे?
यह कहना सही नहीं है कि तीसरे मोरचे का प्रयोग सफल नहीं रहा है. इन सरकारों ने काफी अच्छा काम किया है, लेकिन बहुमत नहीं होने के कारण परेशानियां आयी हैं. कांग्रेस और भाजपा ने इन सरकारों को अस्थिर करने की पुरजोर कोशिश की. अब किसी एक दल का बहुमत में आना मुश्किल है. कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की नीतियों के कारण लोग परेशान हैं. भाजपा की आर्थिक नीतियां कांग्रेस जैसी ही हैं, साथ ही वह सांप्रदायिक नीतियों को आगे बढ़ाने में यकीन करती है. ऐसे में लोगों के सामने तीसरा मोरचा एक बेहतर विकल्प बन सकता है. कई राज्यों में कांग्रेस-भाजपा आधारविहीन हैं. इन राज्यों में मौजूद पार्टियों की नीतियां कांग्रेस और भाजपा की नीतियों से मेल नहीं खाती हैं, ऐसे में सभी दल एक मोरचे की अगुवाई में एक वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिश में हैं और अगर बहुमत मिला तो यह सरकार स्थायी होगी.
सबसे बड़ा सवाल प्रधानमंत्री पद को लेकर होगा. मुलायम सिंह और जयललिता ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर की है. ऐसे में आपको नहीं लगता कि तीसरे मोरचे की सरकार अस्थिर होगी और प्रधानमंत्री पद को लेकर मोरचा बिखर जायेगा?
प्रधानमंत्री बनने की इच्छा बहुतों की हो सकती है, लेकिन चुनावी नतीजों के आधार पर एक सर्वमान्य नेता का चुनाव संभव है. नयी सरकार और नयी नीति देने के उद्देश्य से यह काम पूरा किया जायेगा. अस्थिर सरकार की बात लोगों को गुमराह करने के लिए फैलायी जा रही है. पूर्व में भी राष्ट्रीय मोरचा और संयुक्त मोरचा की सरकारों में प्रधानमंत्री का चयन सबकी सहमति से हुआ था और इस बार भी ऐसा ही होगा. देश में कांग्रेस-भाजपा के इतर वैकल्पिक सरकार ही लोगों की समस्याओं का हल कर सकती है.
कांग्रेस और भाजपा का कहना है कि चुनाव से पूर्व हर बार तीसरे मोरचे की कवायद होती है. 2009 के चुनाव के वक्त भी इसकी कोशिश की गयी थी, लेकिन सफलता नहीं मिली. क्या इस बार तीसरा मोरचा बन पायेगा?
देश में तीसरे विकल्प की संभावना हमेशा रही है. मौजूदा समय में इसकी अहमियत और भी अधिक है. कांग्रेस के कुशासन और भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों के संदर्भ में इस मोरचे के गठन का माकूल समय है. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से सभी परेशान हैं. यह स्थिति मौजूदा आर्थिक नीतियों के कारण है. यह मोरचा वैकल्पिक आर्थिक नीतियों को लेकर आगे बढ़ेगा, ताकि समाज के हर वर्ग को इसका लाभ मिल सके. कई क्षेत्रीय दल भी गरीबों को लेकर काफी संवेदनशील हैं. ऐसे में हम सब मिल कर हाशिये पर पड़े लोगों की आवाज को मजबूती देने के लिए एक वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
पश्चिम बंगाल में हार के बाद वाम मोरचे की ताकत कम हुई है. क्या ऐसे में तीसरे मोरचे में वाम मोरचा एक सक्रिय सहयोगी की भूमिका निभाने में सफल होगा?
पश्चिम बंगाल में हार का मतलब यह नहीं है कि हमारी ताकत कम हुई है. आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है और वहां के हालात काफी खराब हैं. जिस परिवर्तन के नारे के सहारे ममता बनर्जी को सत्ता मिली, उस परिवर्तन से लोगों में निराशा है. ऐसे में वाम मोरचा एक बार फिर वहां विकल्प के तौर पर उभर रहा है. लोकसभा चुनाव में वाम मोरचे का प्रदर्शन अच्छा होगा. साथ ही विभिन्न राज्यों में भी हम क्षेत्रीय दलों से गंठबंधन कर रहे हैं और उम्मीद है कि 2014 के चुनाव में वाम मोरचा एक बड़ी ताकत के तौर पर उभरेगा और तीसरे मोरचे में अहम भूमिका निभायेगा. तमिलनाडु में एआइएडीएमके, बिहार में जदयू और ओड़िशा में बीजद के साथ मिल कर हम चुनाव लड़ेंगे. इस दिशा में हमारी बातचीत चल रही है.
पिछले साल दल्ली में हुए सांप्रदायिकता विरोधी आयोजन में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी शामिल थी. क्या तीसरे मोरचे में लाने के लिए उससे भी बात होगी?
फिलहाल राकांपा का कांग्रेस से महाराष्ट्र में गंठबंधन है. अगला चुनाव भी दोनों दलों ने मिल कर लड़ने की घोषणा की है. अगर दोनों के बीच महाराष्ट्र में गंठबंधन नहीं हुआ, तो हमारी कोशिश होगी कि राकांपा को भी इसमें शामिल किया जाये. वैसे भी राकांपा का कांग्रेस से गंठबंधन सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित है.
तीसरे मोरचे में शामिल कई दल पूर्व में यूपीए और एनडीए का हिस्सा रहे हैं. क्या ऐसे में चुनाव के बाद कुछ दल एनडीए या यूपीए के पाले में नहीं जा सकते हैं?
फिलहाल तो ऐसा नहीं है. क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद न ही यूपीए और न ही एनडीए को इतनी सीटें मिलेंगी कि दोनों में से कोई भी सरकार बना पाने की स्थिति में हो.