केंद्र सरकार के दो मंत्रालयों के बीच मतभेद की वजह से नयी दवा मूल्य नीति के लिए लोगों को लंबा इंतजार करना पड़ा. आखिर में जिस नीति की घोषणा की गयी है, उसमें मूल्य नियंत्रण के दायरे में आनेवाली दवाओं की संख्या तो 74 से बढ़ा कर 348 कर दी गयी है, पर मूल्य निर्धारण का फार्मूला ही बदल दिया गया है. पहले कीमतें लागत मूल्य के आधार पर तय होती थीं, अब यह बाजार मूल्य के आधार पर तय होंगी. इससे जरूरी दवाएं ज्यादा सस्ती होने की उम्मीद खत्म हो गयी है. नयी दवा नीति पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
सरकारी हलकों में पिछले कुछ समय से यह बहस छिड़ी हुई थी कि दवा नीति में दवाओं की कीमतों के निर्धारण का फार्मूला क्या हो? यह फार्मूला लागत आधारित हो या फिर बाजार आधारित? फामरूला लागत आधारित होने पर दवा कीमतें काफी कम हो जातीं और कंपनियों के लाभों पर अंकुश लगता. लेकिन सरकार ने 16 मई, 2013 को जिस नयी दवा नीति की घोषणा की है, उसके अनुसार कीमत निर्धारण का फार्मूला बाजार आधारित होगा. हालांकि सरकारी तौर पर यह बात कही जा रही है कि नयी नीति से दवाएं सस्ती हो जायेंगी, पर यह बात नहीं बतायी जा रही है कि फार्मूला यदि लागत आधारित होता तो कीमतें आधे से ज्यादा तक कम हो जातीं.
दवा मूल्य नियंत्रण का इतिहास
इसमें संदेह नहीं कि जरूरी चीजों में जरूरी दवाएं शामिल हैं. आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत जरूरी चीजों के दामों को नियंत्रित करने का काम सरकार का होता है. वर्ष 1979 में 347 जरूरी दवाइयां दवा कीमत नियंत्रण आदेश के अंतर्गत आती थीं. सरकार इन दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करते हुए सुनिश्चित करती थी कि जरूरी दवाएं आम आदमी की पहुंच में रहें. दवा कंपनियां हमेशा से यह कहती थीं कि इस कीमत नियंत्रण के कारण उन्हें नुकसान होता है या उनके लाभ घटते हैं. ऐसे में कंपनियों के दबाव में 1987 तक आते-आते इस आदेश के तहत आनेवाली दवाओं की संख्या 142 रह गयी और 1995 में यह मात्र 74 रह गयी. इस तरह आज मात्र 74 दवाओं की कीमतें सरकारी नियंत्रण में हैं, जो कुल दवा क्षेत्र का मामूली सा हिस्सा ही है.
जाहिर है कि दवाओं की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने से ये दवाएं महंगी होकर आम आदमी की पहुंच से बाहर होती गयीं. हालांकि देश में ‘जेनरिक’ दवाइयां बनानेवाली कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा होने के कारण छोटे निर्माताओं द्वारा कीमतें काफी कम रखी जाती हैं, लेकिन बड़ी स्थापित कंपनियों द्वारा कीमतें ऊंची रखी जाती हैं. ऐसे में दवा नियंत्रण कानून का दायरा घटने से दवाओं की कीमतें आमतौर पर काफी अधिक हैं.
कंपनियों की मिली लूट की छूट
1995 से सरकार द्वारा दवा कीमत नियंत्रण को 74 दवाओं तक सीमित करने से, कंपनियों को जरूरी दवाओं के दाम बढ़ाने की खुली छूट मिल गयी. यदि दवाओं के बाजार भाव देखें तो एंटीबायोटिक दवा ‘सिपरोफ्लॉक्सासिन’, एफडीसी कंपनी 39 रुपये की दस गोली बेचती है, जबकि रेनबैक्सी 98 रुपये में बेचती है. उसी प्रकार ब्रेस्ट कैंसर के लिए ‘लैट्रोजोल’ दवा ‘बायोकैम’ कंपनी 99 रुपये प्रति गोली के हिसाब से बेचती है, पर ‘नोवार्टिस’ 1815 रुपये में. अस्थि क्षरण रोग के लिए ‘लैफ्लूमोनाइड’ नाम की दवा ‘जाइडस’ कंपनी द्वारा 80 रुपये में और ‘एवैंतिस’ कंपनी द्वारा 440 रुपये में बेची जाती है. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिसमें विभिन्न कंपनियों द्वारा बेची जा रही एक जैसी दवाओं की कीमतों में 100 से 3000 प्रतिशत तक का अंतर होता है. कई बार डॉक्टरों को प्रलोभन देकर ये कंपनियां अपनी महंगी दवा की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश भी करती हैं.
दवा नियंत्रण का फार्मूला
यह सही है कि सरकार ने कीमत नियंत्रण नीति के अंतर्गत दवाओं और फामरूलेशनों की संख्या को बढ़ा कर 652 कर दिया है. पर हमें यह याद रखना होगा कि पहले दवा नियंत्रण फामरूला लागत आधारित था, जिसे बदल कर अब बाजार आधारित बना दिया गया है. इसका मतलब यह है कि किसी जरूरी दवा की अधिकतम कीमत उसे बनानेवाली सभी कंपनियों, जिनका बाजार हिस्सा एक प्रतिशत से ज्यादा है, के बिक्री मूल्य का औसत निकाल कर तय की जायेगी. यह भी शर्त रखी गयी है कि यदि कोई कंपनी इस फामरूले के आधार पर निकाली गयी अधिकतम कीमत से कम कीमत पर दवा बेच रही है, तो वह पुरानी कीमत को जारी रखेगी और जो कंपनियां इस अधिकतम कीमत से ज्यादा पर दवा बेच रही हैं, तो वे दवा की कीमत को कम करेंगी. उधर, बड़ी दवा कंपनियों के संगठन ‘इंडियन फामरूस्यूटिकल एलायंस (आइपीए)’ का कहना है कि 270 दवाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि यदि फामरूला लागत आधारित होता, तो कीमतें आधी से ज्यादा तक कम हो जातीं.
कोर्ट के आदेश का संदर्भ
जब ‘ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क’ की दायर जनहित याचिका के कारण सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को आदेश दिया कि सरकार आवश्यक दवाओं की कीमत नियंत्रण के लिए नीति की घोषणा करे, तो सरकार की ओर से कृषि मंत्री शरद पवार की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह गठित किया गया. गौरतलब है कि 2011 में 348 आवश्यक दवाओं की एक सूची की घोषणा की गयी थी. इन दवाओं से ही सामान्यतौर पर उपयोग होनेवाली 652 दवाओं की फामरूलेशन तैयार होती है. इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार की दवाओं से मिल कर लगभग 7,000 प्रकार की फामरूलेशन इनसे बनती है.
लागत आधारित फार्मूला
वर्तमान में देश में जो 74 दवाएं दवा नियंत्रण कानून के दायरे में हैं, उनकी कीमत लागत आधारित फामरूले से तय होती है. इससे पूर्व 1979 में भी जिन 347 दवाओं को कीमत नियंत्रण के दायरे में रखा गया था, उनकी कीमत भी लागत आधारित फामरूले से ही तय होती थी. शरद पवार की अध्यक्षता में जिस मंत्री समूह को दवा नियंत्रण की नीति तैयार करने का काम सौंपा गया, उसने एक नये फार्मूले का सुझाव दे डाला. इसे कीमत आधारित फार्मूला कहा जा सकता है. हालांकि दवा कंपनियां ऊपरी तौर पर इस फामरूले का और यूं कहें कि किसी भी प्रकार के कीमत नियंत्रण का विरोध कर रही थीं, पर वे इस बात से प्रसन्न थीं कि कीमत नियंत्रण का यह फार्मूला लागत आधारित नहीं है.
बाजार आधारित कानून
हालांकि दवा कंपनियां कह रही हैं कि आधी दवाओं की कीमतें 20 प्रतिशत घटेंगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाले ‘ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क’ का कहना है कि बाजार कीमत आधारित दवा कीमत नियंत्रण की नीति से आम जनता को कोई राहत नहीं मिलेगी और इस कानून से दवाओं की ऊंची कीमतों को कानूनी जामा पहना दिया जायेगा. यही नहीं वित्त मंत्रालय को भी मंत्री समूह के इस फैसले से ऐतराज है. वित्त मंत्रालय का कहना है कि दवा कीमत नियंत्रण कानून पहले की भांति लागत आधारित ही होना चाहिए. यदि लागत आधारित फामरूला दवाओं की कीमतों के निर्धारण में लागू किया जाता है, तो उससे आम लोगों को बड़ी राहत मिलेगी. लेकिन कंपनियों ने वित्त मंत्रलय के सुझाव को न मानने के लिए दबाव बनाया और यह तर्क दिया कि लागत आधारित फामरूले से भारत का दवा उद्योग प्रभावित होगा और दवा कंपनियां घरेलू बाजार में बेचने के बजाय विदेश का रुख करेंगी. अब उनकी इच्छानुसार बाजार आधारित फामरूला लागू कर दिया गया है, फिर भी वे अपने लाभ घटने का रोना रो रही हैं. नये कानून से जो भी थोड़ा बहुत नुकसान होगा वह उन्हीं कंपनियों को होगा जो अन्य कंपनियों की तुलना में कई गुणा ज्यादा कीमत वसूल कर रही हैं.
आज दरकार इस बात की है कि सरकार कंपनियों के दबाव से बाहर आये और जरूरी दवाओं के संदर्भ में पुन: लागत आधारित फार्मूला लागू करे. लेकिन जो सरकार कंपनियों के तर्को को कानूनी जामा पहनाती हो, उससे यह आशा करना शायद सही नहीं होगा.
दवा मूल्य नियंत्रण आदेश, 2013 लागू
केंद्र सरकार ने दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ), 2013 की अधिसूचना जारी कर दी है और यह 15 मई से लागू हो गया है. डीपीसीओ ने 1995 के आदेश का स्थान लिया है. नये आदेश से नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग पॉलिसी (एनपीपीपी), 2012 को 348 जरूरी दवाओं की कीमतें नियंत्रित करने का अधिकार मिल जायेगा. इन दवाओं में कुछ जीवन रक्षक दवाएं भी शामिल हैं.
दवा उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि इस नयी दवा नीति के अमल में आने से कुछ कैंसर रोधी और संक्रमण रोधी दवाओं की कीमतों में 50 से 80 फीसदी तक की कमी आ सकती है. एनपीपीपी-2012 को 22 नवंबर, 2012 को कैबिनेट की मंजूरी मिली थी और इसे 7 दिसंबर, 2012 को अधिसूचित किया गया था. इससे पहले दवा मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 के तहत 74 थोक दवाओं के मूल्य नियंत्रित किये गये थे.
जानें, नयी दवा नीति में क्या है खास
नयी दवा नीति के अनुसार जरूरी दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलक्ष्एम) में शामिल सभी दवाओं की कीमतों को नियंत्रित किया जायेगा. स्वीकृत नीति के मुताबिक, दवाओं की कीमतें तय करने के लिए बाजार में एक फीसदी से अधिक हिस्सेदारी वाली सभी दवाओं की कीमतों के औसत को आधार बनाया जायेगा. अनिवार्य वस्तु अधिनियम, 1995 के तहत जारी डीपीसीओ, 2013 के तहत दवा नीति की रूपरेखा तय होगी, साथ ही यह तय होगी कि दवाओं की कीमतों में नियंत्रण का तरीका क्या होगा. इसके अनुसार, नयी नीति और नये डीपीसीओ को लागू करने का अधिकार नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) को है. उल्लेखनीय है कि एनपीपीपी-2012 को लेकर स्वास्थ्य और रसायन व उर्वरक मंत्रालय के बीच मतभेद की वजह से लंबे समय के इंतजार के बाद अंतिम रूप दिया जा सका.