डॉ एन भास्कर राव
चेयरमैन, सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज
ऐसे वक्त में, जबकि 2014 के आम चुनाव में अभी कुछ महीने शेष हैं, इसके लिए न तो पार्टियों के बीच गंठबंधन की तसवीर साफ हो पायी है और न ही उम्मीदवारों की पूरी सूची जारी हुई है, कई संस्थानों ने चुनाव पूर्व सर्वे करा कर बता दिया है कि देश में मतदाताओं का मूड कैसा है. जबकि भारत के बारे में माना जाता है कि यहां चुनाव से एक माह पहले की तुलना में एक सप्ताह पहले मतदाताओं के मूड में काफी तब्दीली आ जाती है. ऐसे में इन सर्वेक्षणों की मंशा और विश्वसनीयता पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. कितने सही हैं ऐसे सवाल और क्या है सही रास्ता, ऐसे ही मसलों के बीच ले जा रहा है आज का समय.
भारत में चुनावों का आकलन करना काफी कठिन काम है. यहां चुनावों में कई कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ऐसे में चुनाव से पहले का कोई भी सर्वेक्षण सटीक नहीं हो सकता है. सर्वे सिर्फ लोगों के मूड की ओर इशारा करते हैं. पिछले एक दशक में टेलीविजन चैनलों की बाढ़ के कारण सर्वे की विश्वसनीयता कम हुई है. पहले प्रिंट मीडिया के चुनावी सर्वे आते थे, जो विश्वसनीय होते थे, लेकिन अब चुनावी सर्वे स्पांसर आधारित हो गये हैं. सर्वे कौन कर रहा है, उसकी जानकारी लोगों को नहीं होती है. एक एजेंसियां ही कई चैनलों के लिए सर्वे करती है और उसके परिणाम अलग-अलग होते हैं. इससे इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठता है. सर्वे की एजेंसियां पहले की तुलना में अब फील्ड वर्क कम करती है, इससे भी सर्वे की साख कम हुई है.
भारत में चुनाव में कई फैक्टर काम करते हैं. राज्य दर राज्य मुद्दे और चुनावी गणित अलग-अलग होते हैं. ऐसे में चुनाव से काफी पहले होनेवाले सर्वे के नतीजों पर भरोसा करना मुश्किल है. कई राज्यों में विभिन्न दल मिल कर चुनाव लड़ते हैं, इससे चुनावी नतीजों पर खासा असर पड़ता है. इसके अलावा कई राज्यों में जातिगत फैक्टर अहम कारक है. इन चीजों की अनदेखी नहीं की जा सकती है.
वर्ष 2007 में मैंने एक अध्ययन किया और पाया कि पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में 10 फीसदी वोटर पेड थे, जबकि अन्य राज्यों में ऐसे वोटरों की संख्या 15 से 55 फीसदी तक थी. चुनावों को प्रभावित करने में पैसा भी एक अहम कारक रहा है. भले ही हाल के वर्षो में चुनाव आयोग की सक्रियता के कारण इसका प्रभाव कम हुआ है. फिर भी इसके असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सच्चई यह भी है कि सर्वे के नतीजों के जरिये विभिन्न पार्टियां अपने पक्ष में हवा बनाने की कोशिश करती हैं. इससे अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम किया जाता है, ताकि चुनावों में वे सक्रियता से काम कर सकें. हाल के वर्षो में यह भी देखने में आया है कि पार्टियों के प्रति वफादारी रखनेवाले मतदाताओं की संख्या में कमी आयी है. ऐसे में सर्वे के जरिये पार्टियां अपने पक्ष में माहौल होने का दावा कर मतदाताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश करती है.
इतना तय है कि सर्वे के नतीजों का असर होता है. बहुत से अनिर्णय वाले मतदाता सर्वे के नतीजों को देख कर किसी के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित होते हैं. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सर्वे कब किया गया, किस तरह के सवाल पूछे गये, किस समूह से पूछे गये. इन बातों का सर्वे के नतीजों पर खासा असर पड़ता है. जहां दो पार्टियों के बीच मुकाबला होता है, वहां के नतीजे अलग होते हैं और जहां मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय हो, वहां नतीजे अलग होते हैं.
चतुष्कोणीय मुकाबलों का आकलन करना सबसे कठिन होता है. देखना चाहिए कि क्या सर्वे में इन बातों का ध्यान रखा जाता है? पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से 9 फीसदी अधिक मत पाने के बावजूद बसपा को 20 सीटें आयी और कांग्रेस 21 सीटें जीतने में सफल हुई. सर्वे करनेवालों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि वे पिछले चुनाव के प्रदर्शन के आधार पर कोई आकलन नहीं करें.
चुनाव की घोषणा होने से पहले किये गये सर्वे और प्रचार शुरू होने के बाद किये गये सर्वे में काफी फर्क आ जाता है. ज्यादातर क्षेत्रों में चुनाव से एक महीने पहले और चुनाव होने के एक हफ्ते पहले लोगों के मूड में काफी बदलाव आ जाता है. ऐसे में महीनों पहले होनेवाले सर्वे से पार्टियों की सही स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. 2004 के चुनाव से पहले अधिकतर सर्वे एनडीए की जीत की ओर इशारा कर रहे थे, लेकिन वास्तविक नतीजे इन सर्वे के बिल्कुल विपरीत रहे. हालांकि हाल में कुछ सर्वे के नतीजे वास्तविक नतीजों के करीब रहे हैं.
इसे पैमाना नहीं माना जा सकता है. दस सर्वेक्षण में एक-दो सही हो सकते हैं. चुनाव पूर्व सर्वे के पीछे राजनीतिक दलों की भूमिका के कारण भी ये संदेहास्पद हुए हैं. चुनाव प्रचार में पार्टियां इन सर्वे का जोर-शोर से प्रचार करती हैं. ऐसे सर्वेक्षणों को प्रसारित नहीं करने की जिम्मेवारी मीडिया की है. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की बढ़ती संख्या को देखते हुए मीडिया के लिए भी नियम बनना चाहिए. मैंने काफी पहले चुनाव आयोग को सुझाव दिया था कि ऐसे सर्वे के लिए नियम बनना चाहिए ताकि कोई भी राजनीतिक दल प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल नहीं कर सके.
चुनावी सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर इसलिए भी सवाल खड़े होते हैं, क्योंकि भारत में इसे करने के लिए वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता है. साथ ही सर्वे करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी और एनालिटिकल स्किल का होना बेहद जरूरी है. मौजूदा समय में सर्वे का व्यवसायीकरण हो गया है.
चुनाव पर पार्टियों के उम्मीदवार, गंठबंधन और बागी उम्मीदवारों का असर पड़ता है. भारत में कई बार भावनात्मक मुद्दों के कारण भी सर्वे गलत साबित होते हैं. जैसे प्रचार के दौरान किसी नेता की मौत हो जाये, तो माहौल बदल जाता है. इसके अलावा चुनाव की तिथियों में फेरबदल से भी नतीजों पर असर पड़ता है. इन तथ्यों की पर गौर किये बिना कोई भी चुनाव पूर्व सर्वे सटीक नहीं हो सकता है. हर सर्वे में 3-5 फीसदी के गलती की संभावना की बात कही जाती है, लेकिन यह नहीं बताया जाता है कि यह गलती सीटों में होगी या मत प्रतिशत में. एक फीसदी मत कम या अधिक होने से परिणाम चौंकानेवाले आ सकते हैं.
ऐसे में जब 2014 के चुनावों की घोषणा भी नहीं हुई और एनडीए, यूपीए व तीसरे मोरचे की रूपरेखा को लेकर स्पष्टता नहीं है, परिणामों का सही आकलन नहीं किया जा सकता है. कोई भी राजनीतिक दल इन सर्वेक्षणों पर रोक लगाने के पक्ष में नहीं है. अंतर सिर्फ यही है कि जब सर्वे उनके अनुकूल होता है तो वे इसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं और वपरीत होने पर आलोचना करने लगते हैं.
सर्वे को लेकर सही नहीं हैं राजनेताओं के आरोप
सर डेविड बटलर
आधुनिक चुनावी विश्लेषण के जनक
भारत अन्य देशों के मुकाबले असली लोकतांत्रिक देश है. यहां के लोग बगैर किसी लाग-लपेट के चुनावों का आनंद लेते हैं. वास्तव में यह आसाधारण राजनीतिक देश है. यहां के लोग नेताओं से छुटकारा पाने के लिए सबसे अच्छा संभव तरीका, चुनाव का इस्तेमाल करते हैं. चुनाव केवल इतना भर ही नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक दलों द्वारा नीतियों के बचाव और उसे लागू करने का सशक्त जरिया भी है.
पिछले कुछ समय से चुनावी सर्वेक्षणों का राजनीतिक दलों और चुनावों के कवरेज पर खासा असर देखा जा रहा है. चुनावी सर्वेक्षण विज्ञापन और मार्केट रिसर्च के फैलते क्षेत्र का नतीजा है. 50 के दशक में अमेरिका से शुरू हुई यह प्रक्रिया कमोबेश सभी लोकतांत्रिक देशों के चुनावी कवरेज का अमेरिकीकरण की तरह दिखने लगा है. टीवी, मार्केट रिसर्च, ई-मेल, फोन के विस्तार के कारण लोगों से संवाद स्थापित करने में आसानी हुई है. चुनाव पूर्व और बाद मतदाताओं के रुझान को प्रदर्शित करनेवाले सर्वेक्षण को लेकर गाहे-बगाहे काफी नुकताचीनी की जाती रही है. भारत की तुलना में ब्रिटेन में चुनावी सर्वे करना आसान है, क्योंकि वहां कंजरवेटिव और लेबर, दो ही पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला होता है. ऐसे में वहां मतदाताओं के रुझानों को जानना, समझना और परखना आसान होता है. भारत में कई राजनीतिक दल हैं. सभी अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावशाली हैं. अन्य पार्टियों की तुलना में कांग्रेस शुरू से ही पूरे देश में प्रभावी पार्टी रही है. शुरुआती दौर में ओपिनियन पोल में कांग्रेस के खिलाफ मतदाताओं के रुझानों को समझने की दरकार थी, लेकिन गुजरते समय के साथ यह काम जटिल हो गया है.
चुनावी सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की मांग नागरिक अधिकारों के हनन करने जैसा है. सर्वेक्षणों को लेकर राजनेताओं के आरोप सही नहीं हैं. एक स्वतंत्र समाज में लोग जो पसंद करते हैं, उसे जाहिर भी कर सकते हैं. मैंने कई चुनावी सर्वेक्षणों को सफलता पूर्वक संपन्न किया. आज तक कोई शिकायतें सामने नहीं आयी. इस तरह के सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने का विचार सही नहीं है. सर्वेक्षणों से मतदाता प्रभावित होते हैं, यह तर्क स्वीकार करने योग्य नहीं है. मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए पहले से ही कई तरह के हथकंडे राजनेताओं द्वारा अपनाये जाते हैं. सार्वजनिक सर्वेक्षण जायज हैं. राजनीतिक दल गोपनीय सर्वे का भी इस्तेमाल करते हैं.
ब्रिटेन में पांच सर्वेक्षण करनेवाली कंपनियों, जो वास्तव में एक संगठन के तौर पर कार्यरत हैं, के कामकाज को जांचने-परखने के लिए आप स्वतंत्र हैं. सैंपल साइज (नमूनों का आकार), प्रक्रिया आदि पारदर्शी हैं. वहां किसी ने पाबंदी लगाने की बात आज तक नहीं कही. आप आम मतदाताओं को एक-दूसरे से चुनावी संभावनाओं पर बात करने से कैसे रोक सकते हैं. यह मुमकिन नहीं है. सर्वेक्षण करनेवालों को भी चाहिए कि अगर वे इसे पोल कहते हैं, तो इसे नियामानुसार तरीके से करें. पोल को पारदर्शी बनाना चाहिए. वास्तव में सर्वेक्षण कैसे किया गया है, इसकी पक्रियाओं को लोगों के सामने रखना चाहिए. पाबंदी का विचार या आलोचना राजनीतिक दलों के खुद के बचाव का रास्ता भर है.
इतना जरूर है कि अगर सर्वे के नतीजे वास्तव में चुनावी नतीजों में तब्दील होते हैं, तो उनका सम्मान करना चाहिए. अगर ये नतीजे गलत साबित होते हैं, तो लोगों को भविष्य में इससे सचेत रहने की शिक्षा दी जानी चाहिए. नमूने के बड़े आकार और बेहतर ट्रैक रिकार्ड वाले सर्वे पर भरोसा करना चाहिए.
सवाल है कि सर्वे के नतीजे मतदाताओं को कितना प्रभावित करता हैं? मैंने ऐसे कोई सबूत नहीं देखा है. ऐसा कोई वास्तविक सबूत अब तक सामने नहीं आया है कि सर्वे से मतदान व्यवहार पर कोई असर पड़ा हो. अगर कुछ है भी तो वह नगण्य होगा. मतदाताओं की इच्छा स्वतंत्र है और उसे सर्वेक्षणकर्ताओं की चालाकी से पूरी तरह से प्रभावित नहीं किया जा सकता. मतदातओं के मतदान के वास्तविक निर्णय की जड़ें काफी गहरी हैं. अंकगणित के जरिये लोकतांत्रिक प्रकियाओं को प्रभावित नहीं किया जा सकता. मतदान व्यवहार पर राजनेताओं के लुभावने वादों या सर्वेक्षणकर्ताओं के सर्वे के मुकाबले दूसरे कारण ज्यादा प्रभावी होते हैं. (मीडिया में प्रकाशित साक्षात्कार और टिप्पणियों पर आधारित)
पाबंदी नहीं, नियंत्रण की जरूरत
एस वाई कुरैशी
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
चुनावी सर्वेक्षणों की महत्ता को समझता हूं. एक परिपक्व लोकतंत्र अमेरिका में सर्वेक्षणों पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है. कनाडा, फ्रांस, इटली, पोलैंड, टर्की, ब्राजील और कोलंबिया में चुनाव से दो से 21 दिन पूर्व सर्वेक्षणों के प्रकाशन, प्रसारण पर पाबंदी होती है. (ब्रिटेन को चुनावी विेषण के लिहाज से जनक माना जाता है, जहां ब्रिटिश पोलिंग काउंसिल गठित की गयी, जो अॅापिनियन पोल की समीक्षा करता है. काउंसिल को अधिकार है कि वह सर्वे से जुड़ी तमाम जानकारी को सार्वजनकि करे, ताकि लोग नतीजों को परख सकें.)
लेकिन भारत में चुनाव से पहले के सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की मांग उठ रही है, क्योंकि उनकी प्रमाणिकता संदेह के घेरे में है. दरअसल, पेड न्यूज ने लोकतंत्र के चौथे खंभे को पांचवें कॉलम की ओर धकेल दिया है. अगर मीडिया संस्थान विज्ञापन को चालाकी से न्यूज के तौर पर प्रकाशित करने की छूट दे सकते हैं, तो ऐसे में ऑपिनियन पोल का बचाव करना कठिन प्रतीत होता है.
चुनावी सर्वे के बचाव में पक्ष रखनेवालों का तर्क है कि अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकार है. पर भारत के संदर्भ में अधिकारों को लेकर सर्वमान्य हकीकत यह भी है कि कुछ नियंत्रण भी अपिहार्य है. धोखाधड़ी और ठगी का कोई अधिकार नहीं है. जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत भी अभिव्यक्ति की आजादी पर कुछ हद तक नियंत्रण की बात कही गयी है. निर्वाचन आयोग मतदान से 48 घंटे पूर्व तक ही चुनाव प्रचार की इजाजत देता है. उम्मीदवारों पर व्यक्तिगत लांक्षण वजिर्त है. धार्मिक स्थानों का चुनाव से जुड़े किसी भी प्रकार के मसलों को लेकर इस्तेमाल पर पाबंदी है. 2010 से एक्जिट पोल के प्रकाशन और प्रसारण पर मतदान समाप्त होने तक प्रतिबंधित है. जाति और सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगना निषेध है. ऐसा संवैधानिक कारणों से जरूरी है, ताकि चुनाव आयोग भय मुक्त व निष्पक्ष चुनाव आयोजित करा सके. इस पर पुनर्विचार का कोई औचित्य नहीं है.
2002 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉमर्स (एडीआर) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि भय मुक्त और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारभूत विशेषता है. इससे पहले भी 1977 में महिंद्र सिंह गिल बनाम चुनाव आयोग के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही टिप्पणी की थी. कुछ महीने पहले फिर से शीर्ष अदालत ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संदर्भ को दुहराते हुए आयोग को ‘इनमें से कोई नहीं’ (नोटा) का विकल्प वोटिंग मशीन में प्रदान करने का आदेश दिया. भारतीय दंड संहिता में ‘अनुचित प्रभाव’ को अपराध माना गया है, जबकि जनप्रतिनिधित्व कानून में इसे चुनाव का अनुचित तरीका करार दिया गया. कांग्रेस के महासिचव सीपी जोशी 2008 में राजस्थान के नाथवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से एक वोट से हार गये. इसलिए अनुचित प्रभाव डालनेवाला कोई भी तरीका स्वीकारयोग्य नहीं है.
ओपिनियन पोल पर नियंत्रण की मांग नयी नहीं है. वर्ष 1997 में सभी राजनीतिक दलों ने इस पर पाबंदी की मांग की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आयोग कानून नहीं बना सकता और सरकार से इस संबंध में कानून बनाने को कहा था. राजनीतिक दलों ने 1998 और 2004 में फिर से इस मांग को दुहराया. 2010 में यूपीए सरकार ने मतदान समाप्ति के पहले एक्जिट पोल के प्रकाशन और प्रसारण पर तो पाबंदी लगा दी, पर ओपिनियन पोल पर नहीं.
ब्रिटेन का चुनावी सर्वे का मॉडल सही है. सभी सर्वेक्षणकर्ता खुद को सही करार देते हैं और प्रतिस्पर्धी को गलत. प्रसारणकर्ताओं ने पेड न्यूज के मामले में नियामक व्यवस्था जरूर बहाल किया है. इस व्यवस्था के जरिये बड़े चैनलों के खिलाफ भी कार्रवाई की गयी है. ऐसी ही एक संस्था सर्वेक्षण करनेवाली एजेंसियों के लिए भी बनाने की जरूरत है. सर्वे के लिए जुटाये नमूनों के आकार, प्रक्रिया व सवालों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. इसमें ब्रिटिश काउंसिल जैसी बेहतर संस्था का उदाहरण सामने है. (फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स के 21 नवंबर, 2013 को आयोजित कार्यक्रम में दिये गये भाषण के अंश)
मोदी के जादू के बावजूद दिल्ली अभी दूर है
कुल मिला कर 2014 के लोकसभा चुनाव की दौड़ में भाजपा सबसे आगे है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे लोकप्रिय, लेकिन उनकी लोकप्रियता पार्टी को गैर हिंदीभाषी राज्यों में अधिक सीटें जिताने में मदद नहीं कर पायेगी. इन राज्यों में पार्टी को मिले वोट सीटों में तब्दील नहीं हो पायेंगे. ऐसे में 2014 के चुनावी नतीजों के बाद की राजनीति दिलचस्प हो सकती है.
संजय कुमार
राजनीतिक विश्लेषक
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से भाजपा को कई राज्यों में मतदाताओं को लुभाने में मदद मिलती दिख रही है, लेकिन अभी से यह मानना सही नहीं होगा कि यह 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों का आंकड़ा 200 के पार पहुंचाने के लिए पर्याप्त होगा. सर्वेक्षणों में कहा जा रहा है कि मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर भाजपा उत्तर प्रदेश और बिहार में मतदाताओं को लुभाने में सफल हो सकती है. इससे भाजपा इन दोनों राज्यों में न केवल अतिरिक्त वोट हासिल कर सकती है, बल्कि अपनी सीटों की संख्या भी बढ़ा सकती है. लेकिन कई दूसरे राज्यों में मोदी का कोई असर होने की संभावना नहीं के बराबर है. मसलन, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां न केवल सत्ता में हैं, बल्कि उनके नेताओं की लोकप्रियता भी राज्य में सर्वाधिक है. ऐसे में मोदी के लिए अपनी लोकप्रियता के दम पर इन राज्यों में भाजपा को अतिरिक्त वोट दिलवाना मुश्किल होगा. उन राज्यों में, जहां भाजपा अभी सत्ता में है, मोदी पार्टी का मत प्रतिशत बढ़ाने में कामयाब हो सकते हैं, लेकिन ये नये मतदाता भाजपा को केंद्र में सत्ता दिलाने में बहुत मददगार नहीं होंगे. माना जा सकता है कि भाजपा मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अधिकतर सीटें जीत सकती हैं, लेकिन इन राज्यों में उसका आधार पहले से भी है. कुल मिलाकर भाजपा को कई राज्यों में मोदी की लोकप्रियता का लाभ मिलने और मत प्रतिशत बढ़ने के बावजूद दक्षिणी और पूर्वी राज्यों (बिहार-झारखंड को छोड़ कर) में उसकी सीटों की संख्या बढ़ने की उम्मीद कम ही है और हकीकत यही है कि इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन के बिना 200 का आंकड़ा पार करना संभव नहीं होगा.
इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी अन्य सभी पार्टियों के निशाने पर होंगे. इस तरह 2014 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए जनमत संग्रह के रूप में तब्दील होता दिख रहा है. खासकर तब, जबकि कांग्रेस ने चुनाव से पहले राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित नहीं करने का फैसला लिया है. लेकिन इस तथ्य के आधार पर यह कहना सही नहीं होगा कि राज्यों के या क्षेत्रीय दलों के नेताओं की इस आम चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रह जायेगी. कई क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं, मसलन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओड़िशा में नवीन पटनायक, बिहार में नीतीश कुमार, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी, तमिलनाडु में जयललिता और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव एवं मायावती आदि, की अपने-अपने राज्यों में लोकप्रियता एवं जनाधार बरकरार है. संभावना यही है कि ये नेता 2014 के आम चुनाव में भी अपनी-अपनी पार्टियों को सीटें दिलाने में कामयाब होंगे.
क्षेत्रीय पार्टियों के जनाधार वाले दो राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव की दृष्टि से बेहद अहम माने जाते हैं, क्योंकि यहां लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं. जाहिर है, भाजपा इन दोनों राज्यों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की हर मुमकिन कोशिश करेगी. इनमें उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का अपेक्षाकृत कमजोर शासन भाजपा के लिए अपना आधार बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है, ऐसी संभावना है. सीएनएन-आइबीएन के लिए सीएसडीएस की ओर से किये गये हालिया सर्वे में भी यही संकेत मिले हैं.
लेकिन बिहार में भाजपा के लिए अपनी सीटें बढ़ाना बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि उत्तर प्रदेश की तुलना में बिहार में मतदाताओं के बीच राज्य सरकार की छवि काफी बेहतर है. राज्य में वैसे लोग भी, जो जदयू-भाजपा गंठबंधन टूटने के लिए नीतीश कुमार को जिम्मेवार मानते हैं, या फिर नीतीश कुमार की व्यक्तिगत कार्यशैली पर कुछ सवाल उठाते हैं, इस बात से इत्तिफाक रखते हैं कि राज्य में जदयू की सरकार बेहतर काम कर रही है. ऐसे में मोदी की लोकप्रियता बिहार में भाजपा के लिए कुछ हद तक भले मददगार हो सकती है, लेकिन राज्य के चुनावी नतीजों का अभी से सही-सही अंदाजा लगाना जल्दीबाजी होगी.
बिहार के सामाजिक समीकरणों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यहां के चुनावी नतीजों पर सबसे ज्यादा असर राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों के बीच अगले कुछ दिनों में होनेवाले चुनावी गंठबंधनों का पड़ेगा. नीतीश कुमार ही नहीं, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और कांग्रेसी नेता भी यहां गंठबंधन की संभावनाएं तलाश रहे हैं. इसलिए बिहार के नतीजों का अनुमान लगाने से पहले हमें यहां होनेवाले गंठबंधनों का इंतजार करना चाहिए.
भाजपा के लिए उन अहिंदीभाषी राज्यों में सीटें हासिल करना बड़ी चुनौती होगी, जहां गैर कांग्रेसी शासन है. यह माना जा सकता है कि मोदी की लोकप्रियता के कारण कुछ दक्षिणी राज्यों में भी भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ सकता है, पर जरूरी नहीं है कि इससे भाजपा अधिक संख्या में सीटें भी जीत पायेगी. पिछले वर्षो में कई दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्री मजबूत क्षेत्रीय नेता बन कर उभरे हैं. इनकी लोकप्रियता को नजरअंदाज करना सही नहीं होगा. ये नेता अपनी-अपनी पार्टियों को राज्य की ज्यादातर सीटें दिलाने में कामयाब हो सकते हैं.
जिन राज्यों में भाजपा सत्ता पर काबिज है और उसका मुकाबला सीधे कांग्रेस से है, वहां हाल में किये गये सर्वे के मुताबिक भाजपा को अधिकतर सीटें मिलने की संभावना है. भाजपा को इन राज्यों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से कहीं अधिक मत मिलने की उम्मीद तो है, लेकिन इनमें से अधिकतर मत बेकार होंगे, क्योंकि भाजपा इससे कई सीटें बड़े अंतर से जीतेगी. सर्वे के अलावा विधानसभा चुनाव के नतीजे भी इशारा करते हैं कि भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और कुछ हद तक छत्तीसगढ़ में बड़ी जीत मिलेगी. भाजपा का आक्रामक प्रचार अभियान और नरेंद्र मोदी की विभिन्न बड़ी रैलियों ने पार्टी के पक्ष में अतिरिक्त मत जोड़ने की क्षमता को प्रभावित किया है. ऐसा लगता है कि अधिकतर मतदाताओं ने निर्णय कर लिया है कि 2014 में किसे वोट देना है, हालांकि उम्मीदवारों का चयन और प्रचार के दौरान उठाये गये मुद्दे कुछ हद तक उनके सोच को प्रभावित कर सकते हैं.
भाजपा के लिए हाल में बड़ी बाधा के तौर पर आम आदमी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता भी सामने आ रही है. लगता है कि दिल्ली के अलावा हरियाणा और पंजाब में आप ने अपनी जगह बना रही है. आप न केवल दिल्ली में सरकार बनाने में सफल रही है, बल्कि सर्वे के मुताबिक इसके बाद उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी है. इसका आकलन करना मुश्किल है कि आप कितनी सीटें जीतने में कामयाब होगी, लेकिन आप लोकप्रिय हो रही है. अरविंद केजरीवाल ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में और भी लोकप्रिय हो रहे हैं. भाजपा का शहरी क्षेत्रों में खासा प्रभाव है और यह भाजपा और प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी चुनौती है.
कुल मिला कर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 2014 के लोकसभा चुनाव की दौड़ में भाजपा सबसे आगे है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे लोकप्रिय, लेकिन उनकी लोकप्रियता पार्टी को गैर हिंदीभाषी राज्यों में अधिक सीटें जिताने में मदद नहीं कर पायेगी. इन राज्यों में पार्टी को मिले वोट सीटों में तब्दील नहीं हो पायेंगे. ऐसे में 2014 के चुनावी नतीजों के बाद की राजनीति दिलचस्प हो सकती है.