मित्रों,
अदालत, मुकदमा और पुलिस को लेकर अनेक कहावतें और लोकोक्तियां प्रचलित हैं. इन सभी कहवतों और लोकोक्तियों में इन्हें तबाही और परेशानी का सबब बताया गया है, जबकि अगर पुलिस, अदालतें और मुकदमे दायर करने के जनता को अधिकार न हों, तो समाज में अराजकता अपनी पराकाष्ठा पर होगी. हम सुरक्षित नहीं रह सकते. हमारे मानवीय अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती. हर कोई अपनी ताकत और धन की बदौलत किसी के भी रहने-खाने, रोजी-रोजगार, जीने और आगे बढ़ने के अधिकार को छीन लेगा. एक ताकतवर व्यक्ति अगर किसी की हत्या करने से डरता है, तो इसलिए कि उसके खिलाफ मुकदमा हो सकता है, पुलिस उसे पकड़ सकती है, अदालत उसे सजा दे सकती है और कानून उसे जेल भेज सकता है. यानी सभ्य समाज के लिए इनकी जरूरत बहुत बड़ी है.
फिर भी इन संस्थानों और प्रावधानों को लेकर ऐसी नकारात्मक सोच क्यों है? इस सवाल पर विचार करें, तो बातें साफ दिखती हैं. एक कि अंगरेजों ने इनका इतना गलत इस्तेमाल किया, निर्दोष जनता में इनके नाम से खौफ पैदा हो गया. आजादी के बाद भी इनका यह चेहरा बहुत अधिक नहीं बदला. दूसरा कि न्याय पाना और निदरेष व्यक्ति का आरोपों से मुक्त होना इतना जटिल काम हो गया कि तमाम अच्छी बातों के बावजूद इस संस्थानों और प्रावधानों की छवि बिगड़ती चली गयी. इसलिए इस बात पर भरपूर जोर दिया गया कि ‘देर से दिया गया न्याय, न्याय से इनकार के बराबर है.’ अक्सर मुकदमों के फैसले इतने देर से आते हैं कि मुकदमों का संदर्भ और नतीजे का प्रभाव बदल जाता है. निदरेष व्यक्ति बिना अपराध के या तो जेलों में बंद रहता है या मुक्ति पाने के लिए अदालत का सालों चक्कर लगाता है. इस स्थिति से जनता को बाहर निकालने का रास्ता ढूंढ़ लिया गया है. यह है लोक अदालत. हम इस अंक में इसी विषय पर बात कर रहे हैं कि कैसे और किस तरह कोई व्यक्ति लोक अदालत और स्थायी लेाक अदालत का लाभ ले सकता है. विधिक जागरूकता कैसे हमें हमारे कानूनी अधिकारों के बारे में बताता है?
आरके नीरद
एक लघुकथा है.
एक दफा जंगल के सारे जानवर इधर-उधर भाग रहे थे. उनमें खरगोश जैसे मासूम भी थे और शेर जैसे खुंखार भी. बिल्ली जैसे छोटे जानवर भी थे और हाथी जैसे विशालकाय भी. यह देख कर लोग हैरान थे. एक व्यक्ति ने एक हाथी को रोका और पूछा,‘भाई बात क्या है? तुम सभी भाग क्यों रहे हो?’
‘दरअसल जंगल में एक चीते की हत्या हो गयी है और पुलिस को शक है कि यह काम किसी लोमड़ी ने किया है.’ – हाथी ने कहा.
आदमी यह सुन कर हैरान था. बोला,‘पुलिस को शक लोमड़ी पर है, तो तुम लोग क्यों भाग रहे हो?’
‘भाई, हो सके तो तू भी भाग जा. अगर पुलिस ने कहीं लोमड़ी के नाम पर चालान कर दिया, तो पूरा जीवन यही साबित करने में बीत जायेगा कि तू लोमड़ी नहीं, आदमी है. हत्या की या नहीं, यह तो बहुत बाद की चीज होगी.’
हाथी की बात आदमी ने सुनी और सरपट भाग निकला.
छवि सुधारने की चुनौती
पुलिस और अदालत की यह छवि बदलने की कोशिश होती रही है. एक जनतांत्रिक देश की अदालत और पुलिस की तसवीर बनने के लिए इनमें सुधार की बड़ी जरूरत है.
अब तक की पहल
देश की पुलिस और अदालत की छवि को लोकतांत्रिक देश के अनुरूप बनाने में सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट दशकों से लगे हुए हैं. 1976 का संविधान संशोधन, 1980 में बना कानूनी सहायता बोर्ड, 1987 में पारित विधिक सेवा प्राधिकार एवं 2002 में इसमें किया गया संशोधन, 10वें वित्त आयोग की सलाह और उस पर अमल करते हुए 2001 में देश में एक साथ 1734 फास्ट कोर्ट की स्थापना आदि इसकी कड़ी हैं. इसी में लोक अदालत, स्थायी लोक अदालत और विधिक सेवा आती हैं.
लोकतंत्र की बुनियाद की मजबूती के लिए
हमारे लोकतंत्र की बुनियाद न्याय और समता के सिद्धांत पर आधारित है, लेकिन अफसोस है कि यह बुनियाद अब भी कमजोर है. देश में न्यायालयों की संख्या आवश्यकता के करीब 20 प्रतिशत है. अमेरिका की तुलना में यह 14-15 प्रतिशत के करीब है. भारत में प्रति दस लाख की आबादी पर 11-12 न्यायालय हैं. अमेरिका में इनकी संख्या 130 और ब्रिटेन में 55 है. दूसरी ओर विधिक सेवा प्राधिकार के माध्यम से लोगों को उनके न्यायिक अधिकार और कानून की जानकारी का प्रसार किया जा रहा है. शिक्षा की दर में आयी वृद्धि, महिला और ग्रामीण जागरूकता तथा मीडिया की पहल से विधिक जागरूकता तथा न्याय पाने के लिए मुकदमों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. सेवा तथा उपभोक्ता क्षेत्र (जैसे बैंक, टेलीफोन, बिजली, बीमा, पोस्ट ऑफिस, मोटर वाहन आदि) के विस्तार ने भी मुकदमों की संख्या बढ़ायी है. पहले से ही स्थिति यह रही है कि मामूली अपराध के लिए भी लोगों को अदालत के आदेश के इंतजार में लंबे समय तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में रहना पड़ा है. जिन्हें जमानत मिली, उन्हें भी सालों अदालत के चक्कर काटने पड़े. जिसने अदालत की शरण ली, उन्हें न्याय पाने में ही सालों इंतजार करना पड़ा. जो आपसी रंजिश के कारण मुकदमे में फंसाये गये, उन्हें निदरेष साबित होने में सालों लगे. बिना अपराध के लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा. इसमें कानूनी अधिकारों की जागरूकता और सरकारी सहायता के कारण मुकदमों की संख्या के बढ़ने से स्थिति का और भी खराब होना स्वाभाविक है. इस स्थिति से निबटने में लोक अदालत और फिर स्थायी लोक अदालत की व्यवस्था बहुत की राहत पहुंचाने वाला कदम है. यह कोर्ट, पक्षकार और समाज तीनों के लिए राहत देने वाली व्यवस्था साबित हुई है.
लोक अदालत क्या है
यह जनता की अदालत है. यानी इसमें जनता की सुविधाओं का पूरा ख्याल रखा जाता है. न्याय की यह सबसे सरल, सुविधाजनक और सस्ती व्यवस्था है. इसे अदालत की तरह न्यायिक शक्तियां हासिल हैं, लेकिन नियमित कोर्ट से अलग है. एक निश्चित तिथि को लोक अदालत लगायी जाती है. जिला जज अलग-अलग बेंच गठित करते हैं, जिनमें एक न्यायिक अधिकारी एवं दो सदस्य (एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक अधिवक्ता) होते हैं. इसमें नियमित कोर्ट द्वारा भेजे गये मुकदमों का निष्पादन किया जाता है.
लोक अदालत आदर्श न्याय का माध्यम
लोक अदालत की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें दोनों पक्ष (मुकदमा करने वाला और जिस पर मुकदमा हुआ)की सहमति से मुकदमे का निष्पादन होता है. यह एक आदर्श निष्पादन है. सामान्य न्यायालय जब किसी मुकदमे या दावे का निष्पादन करता है, वह एक आदेश होता है. उसमें एक पक्ष की जीत और दूसरे की हार जैसी भावना होती है. इस तरह के न्यायिक आदेश से दोनों पक्षों को संतुष्ट नहीं किया जा सकता. एक पक्ष, जो असंतुष्ट या क्षुब्ध होता है, उसे ऊपरी अदालत में अपील का अधिकार तो है, लेकिन न्याय के आदेश के प्रति दोनों पक्षों में समान स्वीकृति का भाव नहीं होता. लोक अदालत इसके ठीक विपरीत है. इसमें तभी मुकदमे के निष्पादन पर विचार होता है, जब दोनों पक्ष इसके लिए राजी हो. इसमें दोनों पक्षों के बीच एक सहमति बनती है. उसी के आधार पर ही मामले का निष्पादन होता है. इसलिए इसके फैसले के खिलाफ कहीं अपील नहीं होती. यह कानून बाध्यता भी है.
लोक अदालत की विशेषताएं
इसमें न्यायालय शुल्क नहीं लगता
इसमें दोनों पक्षकार कोर्ट से सीधी बात करते हैं और अपना पक्ष रखते हैं. दोनों पक्षकार भी आपस में सीधी बात करते हैं और विवाद का हल तलाशते हैं. इसमें वकील नहीं रखा जाता है.
इसमें सबूतों और बहस को महत्व नहीं दिया जाता है. पक्षकारों की मनोदशा कानूनी लड़ाई लड़ने की नहीं, मामले को निबटाने की होती है. इसलिए यह एक सकारात्मक कोर्ट है. इसमें दंड प्रक्रिया संहिता या साक्ष्य अधिनियम लागू नहीं है.
फिर संबंधित पक्षों को यह नोटिस भेजी जाती है कि उनके मामले का निष्पादन लोक अदालत में संभव है. अगर वे चाहें, तो इस अवसर का लाभ ले सकते हैं. उन्हें लोक अदालत के लिए निर्धारित तिथि की जानकारी दी जाती है और उसमें बुलाया जाता है. लोक अदालत के लिए जिला जज मुकदमों की संख्या और प्रकृति के आधार पर अलग-अलग अस्थायी बेंच बनाते हैं. प्रत्येक बेंच में एक न्यायिक अधिकारी, अधिवक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं. लोक अदालतें कब-कब लगेंगी, यह जिला विधिक सेवा प्राधिकार के सचिव तय करता है. इसे अंतिम स्वीकृति प्राधिकार के अध्यक्ष के नाते जिला जज देते हैं. तिथि की जानकारी आम संबंधित पक्षकारों और आम लोगों तक पहुंचाने के लिए जिला अधिवक्ता संघ, संबंधित अधिवक्ता और स्थानीय समाचार-पत्रों की मदद ली जाती है.
लोक अदालत पक्षकार से लिखित रूप में अपना पक्ष दाखिल करने की अपेक्षा करता है. इसमें सभी संबंधित सबूत, दस्तावेज और शपथ-पत्र भी होता है. इसके आधार पर लोक अदालत दूसरे पक्ष की राय जानने की प्रक्रिया अपनाता है. जब दोनों पक्ष राजी हो जाते हैं, तो दोनों के बीच समझौता कराने की पहल होती है. इसके लिए शिकायत और मुकदमे के आधार पर शर्त तैयार की जाती है. उस पर दोनों को सहमत कराया जाता है. दोनों पक्षकार जब सहमत होते हैं, तो कोर्ट अपना अंतिम आदेश पारित कर देता है. अगर किसी बिंदु पर दोनों पक्ष सहमत नहीं हो पाते हैं, तो कोर्ट निष्पक्षता का व्यवहार करते हुए अपने तीन सदस्यों के बीच बहुत को आधार बनाता है.