
80 साल के हो चुके, ढाका यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ेसर अजोय रॉय रोज़ अमरीका से अपनी विधवा बहू और पोती के फ़ोन का इंतज़ार करते हैं.
साल 2015 में, दिनदहाड़े, ढाका में इनके जवान और मशहूर ब्लॉगर बेटे अभिजीत रॉय की हत्या कर दी गई थी.
अभिजीत अमरीका में बीवी-बेटी के साथ रहते थे और खुले विचारों की बात करने के अलावा कट्टरवाद की निंदा करते थे.

पिता अजोय रॉय कहते हैं निजी नुक़सान होने के अलावा ये देश एक नुक़सान भी है.
उन्होंने कहा, "अपनों को चरमपंथ की भेंट चढ़ते देख दर्द की सीमा का पता नहीं चलता. बेटे की तस्वीर देखता हूँ तब दर्द आसुओं में तब्दील होकर एहसास दिलाता है कि जीने का अब कोई मतलब नहीं रहा."
पिछले तीन सालों में बांग्लादेश में चालीस ऐसी हत्याएं हुई हैं जिनके पीछे इस्लामिक चरमपंथियों का हाथ बताया गया है.
ब्लॉगर, अल्पसंख्यक, नास्तिक या विदेशी नागरिक इस हिंसा के शिकार हुए हैं.
लेकिन एक जुलाई 2016 की शाम ढाका की जान कहे जाने वाले गुलशन इलाक़े के एक कैफ़े में जब हमलावरों ने लोगों को बंधक बनाया तो बांग्लादेश ही नहीं पूरी दुनिया सकते में आ गई.
बीस मौतें हुईं जिनमें 18 विदेशी नागरिक थे.

जब हमलावरों की पहचान होनी शुरू हुई तो बांग्लादेश को बड़ा धक्का लगा क्योंकि ज़्यादातर का ताल्लुक़ समृद्ध और पढ़े-लिखे परिवारों से था.
अजय रॉय के मुताबिक़, "अब बात ब्लॉगरों और नास्तिकों को निशाना बनाने से कहीं आगे निकल चुकी है."
महंगे स्कूल-कॉलेजों से निकलकर, विदेशों से लौटने वाले कुछ युवा चरमपंथ से कब-कैसे जुड़े, इनके घरवालों को भी पता नहीं.
बांग्लादेश में युवाओं के बीच भी इस बात को लेकर अनिश्चितता का माहौल है.
कॉलेज जाने वाली एक छात्रा ने नाम न लिए जाने की शर्त पर बताया, "मेरे पिता अब पूछने लगे हैं कि मैं किससे मिलती-जुलती हूँ, मेरे दोस्त कैसे हैं और उनके विचार कैसे हैं. गुलशन हमले से पहले ऐसा बिल्कुल नहीं था."
गुलशन कैफ़े पर हमला और एक हफ़्ते बाद ही ईद के दिन ढाका के क़रीब एक मस्जिद पर हमले ने इस बात को और पुख्ता किया कि देश में कुछ युवा कट्टरवाद की तरफ खिंच चुके हैं.

बांग्लादेश के पूर्व चुनाव आयुक्त शख़ावत हुसैन का मानना है कि भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया के लिए ये ख़तरे की घंटी है.
उन्होंने बताया, "मान लीजिए कि अगर 50 नौजवान कट्टरवादी हो गए, तब तो 50 मानव-बम बन सकते हैं. यही 50 दूसरे 500 को अपनी धारा में शामिल करवा सकते हैं. ज़्यादा चिंता इस बात की है कि ये पढ़े-लिखे कट्टरवादी फ़िदायीन हमारे बीच में कोई भी हो सकता है."
दोनों मुल्कों के बीच बहुत बड़ी सीमा होने के अलावा भारत में बांग्लादेशियों की संख्या भी बड़ी है.
हालाँकि मौजूदा सरकारों के बेहतरीन सम्बंध होने के बावजूद भारत सजग हो चुका दिखता है.
हाल की नरेंद्र मोदी और शेख हसीना सरकारों में ख़ासा तालमेल भी देखा गया है जिसके दौरान बॉर्डर एन्क्लेव जैसे कुछ बड़े समझौते भी हुए हैं.

इस्लामिक स्टेट के गुलशन कैफ़े हमले और शोलाकिया मस्जिद पर हुए हमले की कथित ज़िम्मेदारी लेने के बाद दोनों देशों में ख़ुफ़िया जानकारी भी साझा हो रही है.
वजह ये भी है कि भारत में भी कुछ युवाओं के इस्लामिक स्टेट की धारा से जुड़ने के कथित मामले सामने आए थे.
वैसे, बांग्लादेश में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त वीना सीकरी के अनुसार भारत को बांग्लादेश में बढ़ती हिंसा से पहले भी ख़तरा था और अब और बढ़ चुका है.
उन्होंने कहा, "जब भी शेख हसीना अपने देश में जमात-ए-इस्लामी या दूसरे संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करती थीं उसका सीधा असर पश्चिम बंगाल में दिखाई पड़ता था क्योंकि कई ऐसे लोग आकर भारत के सीमावर्ती राज्यों में बस जाया करते थे."
उधर ढाका में शेख हसीना की आवामी लीग सरकार पर बढ़ते हुए कथित इस्लामिक चरमपंथ पर गंभीर न रहने के अलावा राजनीतिक हितों को तरजीह देने के आरोप लगे हैं.
कई जानकारों का मत है कि आवामी लीग सरकार ने एक नीति के तहत देश में बढ़ती हिंसा का ठीकरा विपक्षी दलों या ‘धार्मिक संगठनों’ पर फोड़ने की कथित कोशिश की जो अब नुक़सान पहुंचा रही है.
हालांकि अवामी लीग सरकार इस बात से इंकार करती है.

बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसनुल हक़ इनु की दलील है कि उनका देश तो 20 सालों से चरमपंथ झेल रहा है.
उन्होंने बताया, "गुलशन और शोलाकिया पर हमले दूसरे क़िस्म के थे. अभी तक हम इनसे निपटने में सफल भी रहे हैं, हमें हमलावरों का पता लगा कर कार्रवाई भी जारी रखी है. लेकिन बांग्लादेश, भारत या दक्षिण एशिया में कोई और देश, आतंकवाद से सभी जूझ रहे हैं. नरेंद्र मोदी और शेख हसीना की सरकारें इससे निपटने की मज़बूत योजना पर काम करने में व्यस्त हैं."
2013 के बाद से बांग्लादेश में हिंसा का सिलसिला जारी है और अब ये गंभीर चरमपंथी घटनाओं का रूप ले रही है.
सबसे बड़े और क़रीबी पड़ोसी भारत की बेचैनी बढ़ना लाज़मी है.
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