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‘ज़रा हट के’ फ़िल्मों का दौर

प्रकृति कारगेती बीबीसी हिंदी के लिए "फ़िल्मकार आज भी मनोरंजक और प्रॉफिटेबल फ़िल्म बनाने के दबाव में हैं. आज कोई भी आईफोन से थिएटर डिस्ट्रिब्यूशन के लिए 4k फुटेज रिकॉर्ड कर सकता है. पर वो कलम कहां हैं जिनसे कहानी साधी गयी हो? क्या लेखन की वो तपस्या अब भी बची है?", पूछते हैं स्वतंत्र […]

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"फ़िल्मकार आज भी मनोरंजक और प्रॉफिटेबल फ़िल्म बनाने के दबाव में हैं. आज कोई भी आईफोन से थिएटर डिस्ट्रिब्यूशन के लिए 4k फुटेज रिकॉर्ड कर सकता है. पर वो कलम कहां हैं जिनसे कहानी साधी गयी हो? क्या लेखन की वो तपस्या अब भी बची है?", पूछते हैं स्वतंत्र फ़िल्में बनाने वाले प्रतीक पयोधि.

हर दौर का कलाकार नए फॉर्मेट में अपनी आवाज़ ढूंढने का प्रयोग करता है. प्रतीक भी अपनी आवाज़ शॉर्ट फिल्मों में तलाश रहे हैं. पर प्रतीक अकेले नहीं हैं.

एक बार आप यूट्यूब में देखिए. आपके सामने दो से पांच और पंद्रह मिनट के फ़िल्मों की एक लम्बी-चौड़ी लिस्ट होगी.

इस लिस्ट की बहुत सारी फ़िल्मों के आगे लिखा होता है ‘अवॉर्ड विनिंग शॉर्ट फिल्म’.

इससे पहले कि आप बिना सोचे समझे उनपर क्लिक करें, फ़िल्मकार देवाशीष मखीजा की एक चेतावनी सुन लें.

वे कहते हैं, "हर किसी को बुरी फ़िल्म बनाने का हक़ है." पर वो टैग लगी हुई कथित ‘अवॉर्ड विनिंग शॉर्ट फिल्में’ देवाशीष ने नहीं बनायी हैं.

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देवाशीष मखीजा की फिल्मों में मनोज वाजपेयी की ‘तांडव’ , निम्रत कौर की ‘इलायची’ और साथ ही ‘एब्सेंट’ और ‘अगली बार’ जैसी संवेदनशील फिल्में शामिल हैं.

देवाशीष बारह साल पहले जनरल बोगी से कोलकाता से मुंबई आये थे.

पत्रकारिता के अनुभव ने उन्हें फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ में बतौर रिसर्चर और असिस्टेंट काम करने का मौका दिया.

उनकी शॉर्ट फ़िल्मों का सफ़र 2009 में शुरू हुआ था. ‘रहीम मुर्गे पर मत रो’ फ़िल्म से उन्होंने शुरूआत की जो कि एक मुर्गे के वॉयस-ओवर (पियूष मिश्रा) के ज़रिये उसके हलाल होने की कहानी कहती है.

हलाल पर बनी ये फ़िल्म एक मिनट का झटका देकर हमें अधमरा छोड़ देती है.

देवाशीष की तरह ही बहुत से फ़िल्मकार शॉर्ट फ़िल्मों की तरफ़ रुख कर रहे हैं. नए भी और पुराने भी.

इसका एक उदाहरण है शिरीष कुंदर की फ़िल्म ‘कृति’ . इसे एक नेपाली फ़िल्मकार ने ‘नकल की गई है’ कहकर विवादों में रहने का अवसर दिया.

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लाज़मी था कि फ़िल्म वायरल होगी.

इससे पहले इम्तियाज़ अली, प्रदीप सरकार जैसे धुरंधर भी शॉर्ट फ़िल्म के फॉर्मेट को आज़मा चुके हैं.

नए निर्देशक भी बड़े कलाकारों के साथ काम कर रहे हैं. जैसे हाल ही में आई अधिराज बोस की निर्देशित फ़िल्म‘इंटीरियर कैफ़े नाइट’ . यह फ़िल्म नसीरुद्दीन शाह और श्रेनाज़ पटेल की बेहतरीन अदाकारी का नमूना पेश करती है.

इस फ़िल्म को रॉयल स्टैग ने प्रायोजित किया. पर फिल्मकारों का मानना है कि शॉर्ट फ़िल्में बिकाऊ होने की जगह कलात्मक होती हैं.

इन फ़िल्मों के जरिए फिल्मकार की सच्ची अनुभूति सामने आती है. ये सब ‘डिजिटल एज’ के कारण संभव हुआ है.

आज के दौर में जब सभी बड़ी कंपनियां डिजिटल दुनिया में कहीं न कहीं फ़िट होना चाहती हैं, उनके लिए शॉर्ट फ़िल्मों ने एक नया रास्ता खोला है.

शॉर्ट फिल्मों का टैग लगाकर कई ब्रांडेड फिल्में बन रही हैं.

चिंतन रूपारेल और अनुज गोसालिया ‘टेरिबली टाइनी टेल्स’ नाम की एक माइक्रो-फिक्शन वेबसाइट चलाते हैं.

उनके मुताबिक ये बदलाव का वक़्त है. इसी बदलाव की नब्ज़ पकड़कर वो 2014 में अपनी नई पेशकश लेकर आए थे- ‘टेरिबली टाइनी टॉकीज़’. इसकी मदद से उन्होंने नए उभरते हुए फ़िल्मकारों को एक प्रतीकात्मतक राशि देकर फ़िल्म बनाने की एक नई ज़मीन दी.

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नवंबर 2014 से लेकर अब तक उनके बैनर तले कम से कम 13 फिल्में बन चुकी हैं.

शुरुआती दौर में ‘एल’ और ‘बापू’ जैसी सामाजिक संदेश देने वाली फिल्में बना चुकी हैं. संभव है कि‘टेरिबली टाइनी टॉकीज़’ आने वाले वक़्त में ‘ब्रांडेड फिल्में’ ज़्यादा बनाए.

चिंतन को उम्मीद है कि यदि सही प्रोत्साहन और पैसे मिलें तो वो आगे भी अच्छी शॉर्ट फिल्में बनाते रहेंगे और ये फ़िल्में ब्रांडेड फिल्मों से अलग होंगी.

वहीं दूसरी तरफ़ ‘पॉकेट फ़िल्म्स’ और ‘हमारा मूवीज’ भी स्वतंत्र फ़िल्मकारों के लिए एक नया मंच तैयार कर चुका है.

किसी भी टीवी चैनल की तरह ही ये मंच भी विज्ञापनों के दम पर चल रहे हैं. लाखों की तादाद में दर्शक बटोर चुके इस मंच को बदलते वक्त की समझ है.

आजकल ‘ऑन-डिमांड कंटेंट’ काफी चर्चा में है. नेटफ्लिक्स जैसे मंच स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए नए दरवाज़े खोल रहा है.

कुछ फिल्मकारों और निर्माताओं की भविष्यवाणी सच मानी जाए तो थिएटर और टीवी कुछ ही सालों में लुप्त होने वाले हैं.

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कयास लगाया जा रहा है कि ‘ऑन-डिमांड कंटेंट’ की होड़ में डिजिटल दुनिया के लिए शॉर्ट फिल्मों से लेकर फीचर फिल्मों तक, सब कुछ बनाया जाएगा.

गौर करने की बात ये भी है कि आज जहां कई निर्माता, निर्देशक नेटफ्लिक्स के आने का जश्न मना रहे हैं, वहीं देश का एक हिस्सा अपने शहर में टिकट न मिलने के कारण रजनीकांत की फ़िल्म ‘कबाली’ देखने फ्लाइट से दूसरे शहर भी जा रहा है.

तो वक़्त बदलने में अभी कितना वक़्त है?

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