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नरसिंहा राव को क्यों भुला दिया गया?

सौतिक बिस्वास बीबीसी संवाददाता नरसिंहा राव लगातार आठ बार चुनाव जीते और कांग्रेस पार्टी में 50 साल से ज़्यादा समय गुज़ारने के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने. वो आठ बच्चों के पिता थे, 10 भाषाओं में बात कर सकते थे और अनुवाद के भी उस्ताद थे. जब उन्होंने पहली बार विदेश की यात्रा की तो […]

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नरसिंहा राव लगातार आठ बार चुनाव जीते और कांग्रेस पार्टी में 50 साल से ज़्यादा समय गुज़ारने के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने.

वो आठ बच्चों के पिता थे, 10 भाषाओं में बात कर सकते थे और अनुवाद के भी उस्ताद थे. जब उन्होंने पहली बार विदेश की यात्रा की तो उनकी उम्र 53 साल थी.

उन्होंने दो कंप्यूटर लैंग्वेज़ में मास्टर्स किया और 60 साल की उम्र पार करने के बाद कंप्यूटर कोड बनाया था. लेकिन उनकी यह दास्तां यहीं ख़त्म नहीं होती.

खींचतान से भरे लोकतंत्र के दसवें प्रधानमंत्री बनने से पहले नरसिंहा राव ने तीन भाषाओं में चुनाव प्रचार किया था. उन्होंने तीन सीटों पर जीत दर्ज की और वो आज के नेताओं के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़मीन से जुड़े हुए थे.

वो विदेश, रक्षा, गृह, शिक्षा, स्वास्थ्य, क़ानून जैसे कई मंत्रालयों में मंत्री रहे, जहाँ उन्हें मिलीजुली सफलता हाथ लगी. इसके बाद भी नरसिंहा राव के बारे में कुछ भी बहुत चमकदार नहीं है.

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उन्हीं की पार्टी के नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश के मुताबिक़, नरसिंहा राव की सबसे बड़ी कमी यह थी कि उनकी प्रतिभा एक मरी हुई मछली की तरह थी.

नरसिंहा राव एक ऐसे प्रधानमंत्री भी थे जिन्हें भुला दिया गया. ईमानदारी से कहें तो बिना किसी संभावना के नेता बने राव एक आकस्मिक प्रधानमंत्री थे.

1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी शोक में डूबी हुई थी. सोनिया गांधी के बागडोर संभालने से इनकार के बाद नरसिंहा राव सबको चौंकाते हुए उम्मीदवार बने थे.

राव का निधन 83 साल की उम्र में 2004 में हुआ. राजनीतिक विश्लेषक विनय सीतापति कहते हैं कि नरसिंहा राव भारत में आर्थिक सुधारों के अगुआ थे. ऐसा उस वक़्त था जब राव एक अल्पमत की सरकार चला रहे थे. राव से पहले की दो सरकारें और उनके बाद की चार सरकारें भी अल्पमत की सरकारें थीं. लेकिन ऐसी हर सरकार केवल एक साल के क़रीब ही चल पाई थी.

विनय सीतापति ने ‘हाफ़ लायनः हाउ पीवी नरसिंहा राव ट्रांसफ़ॉर्म्ड इंडिया’ के नाम से नरसिंहा राव की जीवनी लिखी है.

राव की सहयोगी सोशलिस्ट पार्टी उन सुधारों की विरोधी थी. सीतापति लिखते हैं, "दूसरे शब्दों में नरसिंहा राव को बंटे हुए संसद, परेशान उद्योगपितियों, घोर आलोचक बुद्धिजीवियों और कांग्रेस के घिसे पिटे रणनीतिकारों का मुक़ाबला करना पड़ा."

इन तक़रारों के बीच इसमें बहुत कम सच्चाई है कि राव सही समय पर सही जगह पर थे. जून 1991 के आसपास तो वो अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे थे.

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राजीव गांधी की हत्या के बाद भारत की अर्थव्यवस्था डगमगा गई थी. देश के पास आयात के बदले चुकाने के लिए केवल दो हफ़्ते की विदेशी मुद्रा बची हुई थी. 1990 के खाड़ी युद्ध के बाद तेल की कीमतों में भारी इज़ाफा हो गया था. इसने मुख्य रूप से तेल के आयात के भरोसे चलने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी.

मध्य-पूर्व में काम करने वाले भारतीय जो पैसे भेजते थे उसमें भी भारी कमी आ गई थी. विदेशों में रहने वाले भारतीयों ने डर की वजह से भारत के बैंकों से अपने क़रीब 90 करोड़ डॉलर निकाल लिए थे.

नरसिंहा राव के सत्ता में आने के दो हफ़्ते बाद ही भारत ने बैंक ऑफ़ इंग्लैंड को 21 टन सोना भेजा, ताकि भारत को बदले में विदेशी डॉलर मिल सके और वो कर्ज़ की किश्तें भरने में देरी से बच सके.

यह ऐसा समय था जब भारत के तीन राज्य पंजाब, कश्मीर और असम में अलगाववादी हिंसा हो रही थी. दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का सबसे क़रीबी सहयोगी सोवियत संघ टूट रहा था.

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लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों के बाद भी नरसिंहा राव ने जिस साहस के साथ आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया वैसा कोई और भारतीय नेता नहीं कर पाया.

उन्होंने विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाया, लाइसेंस राज को ख़त्म किया, सरकारी कंपनियों की मनमानी पर रोक लगाई, कई तरह के टैरिफ़ में कटौती की, शेयर बाज़ार और बैंकिंग में सुधारों के लिए कदम बढ़ाए. उन्होंने ये सारे काम मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाकर किया, जो बाद में ख़ुद भारत के प्रधानमंत्री भी बने.

राव ने कुछ उदारवादी अधिकारियों को भी चुना, जिन्होंने सत्ता पर रहने के दौरान उन्हें सहारा दिया. यहाँ तक कि राव के पास अपने कुछ जासूस भी थे, जो आर्थिक सुधारों पर सोनिया गाँधी और दूसरे कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के विचार राव तक पहुँचाते थे.

राव के प्रयासों से 1994 तक भारत की जीडीपी 6.7 फ़ीसदी तक हो गई थी. उनके कार्यकाल के अंतिम दो सालों में यह आठ फ़ीसद तक हो सकती थी. इस दौरान निजी कंपनियों के मुनाफ़े में 84 फ़ीसदी तक इज़ाफा हुआ था. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी 15 गुना तक बढ़ चुका था. भारत का पहला निजी रेडियो स्टेशन और हवाई सेवा भी इस समय तक शुरू हो चुकी थी.

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सीतापति ने लिखा है, "नरसिंहा राव को जिस भारत की ज़िम्मेदारी मिली थी, उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. राव ने जो छूट दी उसने 1994 तक इस भरोसे को ताक़त दी कि भारत अपनी मूल पहचान को बिना खोए दुनिया में किसी से भी मुक़ाबला कर सकता है".

विनय सीतापति ने अपनी किताब में राव के अच्छे-बुरे कामों पर काफ़ी सावधानी से शोध किया है.

सीतापति ने लिखा है, "शायद न्यूयॉर्क टाइम्स ने सबसे पहले 72 साल के राव को भारत का डेंग ज़ियाँगपिंग बताया था. एक बुज़ुर्ग नेता जो उम्र की ढलान पर था, उसने सभी नहीं तो कइयों के आर्थिक नियमों को ठोकर मार दिया. ऐसे नियम जिन्होंने पहले की सरकारों को सहारा दिया था. राव ने न केवल पुराने कट्टर विचारों को, बल्कि निहित स्वार्थ के आरोप में घिरे एक समूह को चुनौती दी."

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सीतापति के मुताबिक़, नरसिंहा राव, डेंग ज़ियाँगपिंग को एक दार्शनिक सलाहकार की तरह देखते थे. यहाँ तक कि उन्होंने चीन में उनसे मिलने की कोशिश भी की थी, जो नाकाम रही थी.

सीतापति ने लिखा है कि 1988 में राजीव गांधी के साथ विदेश मंत्री के रूप में नरसिंहा राव चीन गए थे, लेकिन इस बात से उन्हें काफ़ी दुख हुआ था कि राजीव गांधी ने राव के बिना ही डेंग से मिलने का फ़ैसला किया था.

पाँच साल बाद जब राव प्रधानमंत्री के तौर पर चीन गए थे, तब भी उन्हें निराश होना पड़ा था, क्योंकि रिटायर हो चुके चीनी नेता ने राव से मिलने से इनकार कर दिया था.

सीतापति के मुताबिक़ इसके पीछे अफ़वाह यह थी कि डेंग केवल नेहरू-गांधी परिवार के ही किसी व्यक्ति से मिलने को तैयार थे. उनके सामने राव की हैसियत बहुत कम थी.

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सीतापति ने लिखा है कि नरसिंहा राव का बदलाव को लेकर डेंग की क्षमता की प्रशंसा करना ज़ाहिर था. वो लिखते हैं, "राव उनके शागिर्द थे, नेहरू-गाँधी के समाजवाद की प्रशंसा करते हुए भी राव ने काफ़ी कुशलता से उनकी नीतियों पर रोक लगाई. एक पक्का समाजवादी होने के बावज़ूद भी राव ने व्यावहारिक रवैया अपनाया और व्यावहारिक राजनीति के एक चतुर खिलाड़ी बने."

राव के हिस्से में कई नाकामियाँ भी आईं. इसमें शायद सबसे बड़ा 1992 में कट्टरपंथी हिन्दुओं के हाथों बाबरी मस्ज़िद का गिराया जाना था.

सीतापति ने लिखा है कि राव अपने व्यक्तिगत विचारों की वजह से अंधे हो गए थे, बीजेपी नेताओं ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि मस्ज़िद को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा. राव का हिन्दू संगठनों को समझा पाने की अपनी क्षमता पर अति आत्मविश्वास करना, एक गंभीर नाकामी थी.

नरसिंहा राव को आज क्यों भुला दिया गया?

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सीतापति के मुताबिक़ उनकी ख़ुद की पार्टी ने ही उन्हें छोड़ दिया, जो नेहरू- गाँधी परिवार के बाहर से किसी नेता को आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकती थी. इसके साथ ही उनके शानदार आर्थिक रिकार्ड पर, मस्ज़िद के ढहाए जाने से दाग़ लगा. इस घटना के बाद आज़ाद भारत के सबसे बड़े खूनी दंगों में से एक दंगा हुआ था.

अच्छी अर्थव्यवस्था आमतौर पर बुरी राजनीति के लिए तैयार होती है. हैरानी की बात यह है कि राव की पार्टी 1996 का चुनाव हार गई. राव आर्थिक सुधारों को चालबाज़ी से किया हुआ सुधार मानते थे. इसलिए उस मुद्दे पर चुनाव प्रचार नहीं किया. नरसिंहा राव ने दक्षिण भारत की एक पार्टी के साथ गठबंधन भी किया, जो पार्टी को काफ़ी महंगा पड़ा.

कुल मिलाकर सीतापति कहते हैं, "राव अपने समय से आगे के इंसान थे." कुछ लोग इस बात से असहमत भी होंगे.

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