-स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से हरिवंश की बातचीत-
बिहार योग विद्यालय के स्वर्ण-जयंती समारोह के मौके पर 23 अक्तूबर से 27 अक्तूबर , 2013 तक मुंगेर में चौथा विश्व योग सम्मेलन आयोजित हुआ था. उस मुंगेर में, जो अपराध और बंदूकों के कुटीर उद्योग के कारण कुख्यात रहा है. इस सम्मेलन में दुनिया के 56 देशों और भारत के 23 प्रांतों के लोगों ने हिस्सा लिया था. आध्यात्मिक विचारक संत स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के मार्गदर्शन में इस सम्मेलन ने अनुशासन और प्रबंधन की अनूठी मिसाल पेश की है. प्रबंधन की सारी जवाबदेही कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों ने उठायी थी. इसने मुंगेर की गौरवगाथा में एक नया अध्याय जोड़ा है. सम्मेलन के बाद ‘प्रभात खबर’ ने स्वामी निरंजनानंद जी से अध्यात्म और समाज से जुड़े विविध विषयों पर लंबी बातचीत की. पढ़िए, इसके अंश.
स्वामी जी, देश में मुंगेर जैसी जगह के बारे में बहुत अच्छी धारणा नहीं है. इसके बावजूद विश्व योग सम्मेलन स्वर्ण जयंती समारोह यहां संपन्न हुआ. इतना बड़ा आयोजन. इतनी शांति व्यवस्था के बीच, जहां तीस-चालीस हजार लोग बैठे हों या योग से संबंधित बड़े व्याख्यान हों, अंगरेजी-हिंदी में. मैंने सुना कि पिन-ड्राप-साइलेंस के बीच यह संपन्न हुआ. यह अध्यात्म का चमत्कार है या कुछ और?
अध्यात्म तो है. अब आप इसे चमत्कार कहिए या अनुशासन. लेकिन हमें लगता है कि जब व्यक्ति जिज्ञासु होता है, जब उसकी रुचि होती है, तो वह मन को भी एकाग्र कर लेता है. इस सम्मेलन में हमने देखा कि किसी भी भाषा में व्याख्यान हो रहा हो, लेकिन एक भी आदमी हिल नहीं रहा है. कोई नहीं चाह रहा है कि हम उठ कर जायें. अंग्रेजी के व्याख्यान में भी वह बैठ कर प्रतीक्षा कर रहा है, यह जानने के लिए कि जब इसका अनुवाद होगा, तो हमें मालूम पड़ेगा कि क्या बोला गया था? एक एंटीसिपेशन (उम्मीद) था. जानने की इच्छा थी. इस तरह का माहौल था कि कोई एक शब्द को भी नहीं भूलना चाह रहा था. सब एकदम सजग थे. एक बार जो लोग अंदर आये, वे तीन घंटे तक नहीं निकले. हम तो इधर-उधर देखते भी थे. लेकिन जब तक शांति पाठ नहीं होता था, कोई उठता नहीं था. इस सम्मेलन की दूसरी विशेषता यह थी कि किसी पद का सम्मान नहीं हुआ. कोई बहुत बड़े आदमी आ रहे हैं, तो उनको सम्मानित किया जाये या इन्होंने जीवन में बहुत कुछ किया है, तो इनको सम्मानित किया जाये, ऐसा नहीं हुआ. बल्कि जितने भी हमारे वक्ता थे, बड़े कर्मठ वक्ता था. इस क्षेत्र में पिछले 30-40 साल से अपना काम करनेवाले. कोई पोथीवाले वक्ता नहीं थे. सब अनुभव वाले थे. इनकी जो वाणी (बोली) थी, वो सभी के दिलों को स्पर्श कर रही थी. यह बहुत बड़ी बात है, इस सम्मेलन की. सम्मेलन के अंत में इस बात पर भी टिप्पणी हुई कि पहली बार उन कार्यकत्र्ताओं ने इस कार्यक्रम का संचालन किया, जिन्होंने अपने जीवन का समर्पण किया है. अन्यथा पहले पद की प्रतिष्ठा पर ही काम होता रहा है. दूसरी विशेषता थी कि 56 देशों के प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी भाषा में इस सम्मेलन के लिए शुभकामनाएं दीं. इसका प्रसारण भी 75 देशों में हुआ, जिसे ऑनलाइन देखा गया. उन समर्पित संन्यासियों ने भी काम किया, जिन्होंने योग के क्षेत्र में खुद को समर्पित कर दिया है. वे अब भी हमारे देश में पहली पीढ़ी के योग शिक्षक रहे हैं. उनको बुलाया गया था. जिनकी उम्र आज भी 80-85-90 वर्ष है, लेकिन वो आज भी काम कर रहे हैं. लेकिन उनकी निष्ठा और भाव वैसे ही हैं, जैसे पचास वर्ष पहले थे. वही उत्सुकता, वही ऊर्जा कि हम दूसरों के लिए कुछ करें. फिर यहां पर सम्मेलन के बाद जो कार्यक्रम चले, जिसमें करीब 35000 लोग आये. दूसरी विशेषता थी कि स्वर्ण जयंती समारोह, जो इस कार्यक्रम के साथ ही संपन्न हुआ, तो यहां आश्रम में ही हमने विशेष हवन किया, जिसकी परंपरा आज के समाज में खत्म हो गयी है. महादर्शन होम (हवन) वगैरह.
स्वामी जी, यह किस तरह का हवन होता है और समाज में इसकी क्या उपयोगिता है?
देखिए, यज्ञों की उपयोगिता दो-तीन प्रकार की होती है. इसकी पहली उपयोगिता है, वातावरण को सकारात्मक बनाना. ताकि व्यक्ति का मन हमेशा आशान्वित और कर्मठ रहे. मानसिक व शारीरिक आलस्य या ढीलापन न रहे. इस तरह इसकी उपयोगिता वातावरण शुद्धि के लिए होती है. दूसरी उपयोगिता है कि इन यज्ञों में होनेवाले मंत्रोच्चरण का स्पंदन, वातावरण में रक्षा कवच का काम करता हैं. जो भी इस सुरक्षा कवच के अंदर आते हैं, इन मंत्रों को सुनते हैं, उनके शरीर-मस्तिष्क में केमिकल चेंजेज (रासायनिक बदलाव) होते हैं. इसके परिणामस्वरूप उन्हें शांति मिलती है. उनका तनाव दूर होता है. एक तरह की ऊर्जा की अनुभूति या स्फूर्ति होती है. मन की थकान शांत होती है. मन ऊर्जान्वित होता है. तीसरी उपयोगिता है कि इन यज्ञों-हवनों में जो सामग्रियां प्रयोग की जाती हैं, वो मेडिसीनल हैं. इससे सांस संबंधी बीमारियां दूर होती हैं या वायू प्रदूषण के चलते जो फेफड़ों में रोग होते हैं, वो सब भी दूर हो जाते हैं. इस प्रकार से इसकी जो वैज्ञानिकता है, उसको देख कर चलें. क्योंकि हमारी वैदिक और पारंपरिक परंपराओं में अनेक प्रकार के यज्ञ-हवनों का वर्णन हैं, जो किसी भी पदार्थ के तात्विक रूप पर अपना असर डाल सकते हैं और स्पंदन से भी एक तत्व को जाग्रत किया जा सकता है. स्वामी जी (स्वामी सत्यानंदजी) के समय 1976 में एक पत्रिका में प्रकाशित लेख में मैंने पढ़ा था कि दिल्ली में कुछ शोधकत्र्ताओं ने मंत्रों द्वारा अग्नि प्रज्जवलित की है. इसी वर्ष करीब तीन महीने पहले यहां शिवालय में भी हमने मंत्रों द्वारा अग्नि प्रज्जवलित की. बिना किसी घर्षण या बाहरी तत्व के. कहने का आशय है कि मंत्रों में इतनी ऊर्जा होती है कि अग्नि उत्पन्न हो सकती है. जिस तरह मंत्रों का स्पंदन अग्नि को प्रभावित करता है, उसी तरह जल और पदार्थ को भी करता है. अलग-अलग तरह के यज्ञ-हवन, सूक्ष्म शक्ति और स्थूल शक्ति, दोनों को मनुष्य के अनुकूल बनाते हैं. हर यज्ञ की एक पहचान है. लक्षण है. उद्देश्य है. लाभ है. हमलोगों ने यहां पहली बार महासुदर्शन यज्ञ किया. इसका उपयोग भारत में हो चुका है. इसकी खोज करने में भी हमें तीन-चार महीने का समय लगा. बुजुर्गो से भी पूछा गया. क्योंकि जो आधुनिक आचार्य हैं, पंडित हैं, वो कहते हैं कि हमें वही करना होता है, जो हमारे यजमान चाहते हैं. चंडी यज्ञ, विष्णु यज्ञ या दो-चार चुने हुए यज्ञ वगैरह हैं, उन्हीं को हम जानते हैं. लेकिन जो वैदिक और तांत्रिक परंपरा के यज्ञ हैं, बुजुर्गो को छोड़ कर कोई उन्हें नहीं समझता है. इस तरह जो दो-चार बुजुर्ग अब हमारे देश में बचे हुए हैं, उनसे इस तरह की जानकारी ली गयी. यह वैष्णव तंत्र में आता है. पांच-रात्रि तंत्र का अंग है. इसमें नारायण की कृपा और सुदर्शन की कृपा होती है. इस बार यह यज्ञ यहां हुआ. उसी समय हमारे मन में एक संकल्प भी आया कि अपनी जो प्राचीन परंपरा-पद्धति हैं, इन्हें लोप होने से बचाने का काम यहां करना है. सभी को मैं नहीं रोक सकता, लेकिन अपने जीवनकाल में मैंने 20-25 को भी रोक लिया, तो यह हमारी संस्कृति के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
बड़े स्वामी जी का प्रयास रहा कि योग पूरी दुनिया में फैले. वह हुआ. आपने फैला दिया. पूरी दुनिया में यह पहुंच गया. उसके बाद अब क्या लगता है कि आगे क्या करना है या करना चाहिए?
इस सम्मेलन में यही चिंतन का विषय भी था. हमने कहा भी कि पचास वर्ष पूर्व स्वामी शिवानंद जी ने जो संकल्प दिया था, वह पूरा हो चुका है. योग को नगर-नगर, घर-घर फैला दिया है. इसकी खेती लोग अनेक रूपों में करते हैं. लेकिन अब आगे क्या? अगर पिछले 50 वर्षो की योग-यात्र को हम देखें, तो इसको शारीरिक भी मान सकते हैं. लोग घंटों आसन कर रहे हैं, ताकि अच्छी बॉडी हो. योग का एक इस्तेमाल शारीरिक आकर्षण के लिए हो रहा है. दूसरा आकर्षण है, रोग पद्धति के संबंध में. एक तरफ जहां अन्य पैथियां फेल हो रही हैं, क्या वहां पर योगपैथी हमें सहयोग दे रही है? इस तरह समाज में उपराचात्मक और स्वास्थ्यवर्धक दृष्टिकोण से योग का बहुत उपयोग हुआ. तीसरा आकर्षण, जो हम देखते हैं, वह है, मनुष्य को घटते मार्ग की ओर प्रेरित करना. जिसमें भक्तियोग के माध्यम से या ज्ञानयोग के माध्यम से यह जानने की कोशिश है कि मैं कौन हूं? शरीर हूं, आत्मा हूं, जीवन हूं, मन हूं या कुछ और हूं? अब हम चाहे ज्ञानयोग का मार्ग पकड़ें या भक्तियोग का, दोनों मार्ग हमें भक्ति की ओर ही ले जाते हैं. जहां पर हम अपने आराध्य या उच्च चेतनतत्व को पहचान सकें. इस तरह पिछले 50 वर्षो के योग में इन सब चीजों के अतिरिक्त कुछ और विकास नहीं हुआ. अब जो समाज की आवश्यकता है, स्वामी शिवानंद जी का और सत्यानंद जी का जो संकल्प रहा है, उसको फिर से सामने लाने की आवश्यकता है. मनुष्य के सर्वागीण विकास (इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट) के लिए. जब हम सर्वागीण विकास की बात करते हैं, तो पहला चिंतन जाता है, प्रतिभा की ओर. क्योंकि प्रतिभा के द्वारा ही हम अपने चिंतन-योजनाओं को पूरा कर सकते हैं. प्रतिभा के द्वारा ही हम कर्मो को एक रूप दे सकते हैं. तीन क्षेत्रों में (यानी मस्तिष्क बौद्धिक, हृदय भावनात्मक और हाथ रचनात्मक ) प्रतिभाएं होती हैं. इस तरह योग का अब इस रूप में विकास होना चाहिए. ठीक है, एक वर्ग रोग के लिए अनुसंधान करेगा. अवश्य करेगा. इसकी आवश्यकता भी होगी. एक वर्ग शारीरिक फिटनेस के लिए योग का चयन करेगा. सेकेंडरी लाइफ स्टाइल में इसकी भी आवश्यकता होगी. लेकिन अगर जीवन निर्माण, समाज निर्माण और व्यक्ति निर्माण के बारे में हम सोचें, तो शिक्षा से अधिक संस्कार की आवश्यकता है. पांच-दस वर्ष पहले हम कहते थे कि शिक्षा की आवश्यकता है. लेकिन आज हम कह रहे हैं कि शिक्षा से अधिक संस्कार की आवश्यकता है. क्योंकि शिक्षा मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं को बहुत ऊंचे स्थान पर ले जाती है और मनुष्य का अपना जो सेल्फ इमेज होता है, वो बदल जाता है. आज वो बात सत्य नहीं है कि विद्या से विनय या विनम्रता की प्राप्ति होती है. आज विद्या से अहंकार की ही प्राप्ति होती है. इसे विद्या का अभिमान कह सकते हैं और यही मनुष्य को अभिमानी बनाता है. शिक्षा को हम अपने जीवन का आधार नहीं मान सकते हैं कि हम इससे अपने जीवन में सुख-संपन्नता को प्राप्त करेंगे. हां, शिक्षा को सहयोगी जरूर मान सकते हैं. शिक्षा हमारे जीवन में सुख-संपन्नता के लिए सहयोगी है. लेकिन संस्कार और प्रतिभा हमें उसका अधिकारी बनाते हैं. अगर एक संगीतज्ञ ज्यादा प्रतिभावान हो, तो वह संगीत के प्रति ज्यादा योगदान दे सकता है. उसको एक नयी ऊंचाई तक ले जा सकता है. भले ही वह अंधा क्यों न हो. भले ही वह बहरा क्यों न हो. बड़े-बड़े संगीतज्ञ भी बहरे और अंधे रहे हैं. लेकिन क्या चीज थी, जिसकी वजह से उनके संगीत को आज श्रेष्ठ माना गया है. कौन-सा कंपोजिशन था? किसके बल उन्होंने इसे कंपोज किया? किस प्रतिभा, किस चिंतन, किस सोच के बल उन्होंने इसको कंपोज किया? एक कलाकार जिंदगी भर पेंट करता है, लेकिन उसका मास्टरपीस केवल एक होता है, जिसमें उसकी आत्मा का निचोड़ दिखायी देती है. बाकी में वह आत्मा का निचोड़ नहीं है, बल्कि दिमागी कसरत है. इसे आप पहचान सकते हैं. एक ही कलाकार की चित्रकारी को देख कर आप पहचान जायेंगे कि किसमें आत्मा का निचोड़ है और किसमें दिमागी कसरत. वैसे ही चाहे प्रोफेसर हो, शिक्षक हो, व्यवसायी हो या कोई और हो, सबकी सफलता-समृद्धि के लिए शिक्षा सहायक है, लेकिन संस्कार भी आवश्यक है. संस्कार ही प्रतिभा के विकास के द्वार खोलते हैं. संस्कार जीवन की स्वत: अभिव्यक्ति होनी चाहिए. सोची हुई या सोच कर नहीं. हमने इन्हीं बिंदुओं को सामने रखा कि हमारी परंपरा के जो प्रणोता हैं, वह कहते हैं कि योग का असली उपयोग जीवन के विकास के लिए होना है. तकलीफ यारोग ठीक कर दिये, तो हो गया. अब हमें इसके आगे कदम रखना है. लेकिन उस अगले कदम के लिए तीन चीजों की आवश्यकता है. महर्षि पतंजलि कहते थे कि संतोदीर्घकाल नैरंतर्य, संतोकारास्य वितो दीर्घ भूमि यानी दीर्घकाल, नैरंतर्य और श्रद्धा के साथ योग का अभ्यास होना चाहिए. इन्हीं तीन चीजों को हमने नया रूप दिया कि सिंसियेरिटी, सीरियसनेस और कमिटमेंट, इन तीनों के साथ जब हम योग को आत्मसात करेंगे, तो योग ने जो लक्ष्य हम सब के लिए निश्चित किया है, उसे हम प्राप्त कर लेंगे. हर योग का एक निश्चित लक्ष्य है. राजयोग में चित्तवृति निरोध, निर्देशित लक्ष्य है कि जब आप राजयोग करोगे, तो आपको अपनी चित्तवृति पर निरोध/प्रतिरोध करने की क्षमता होनी चाहिए. यह पहला परिणाम है, जिससे हम जान सकते हैं कि हमने राजयोग सिद्ध किया. भक्तियोग का अल्टीमेट परिणाम क्या है? मन का बिखराव मत होने दो. अपने आराध्य में मन को लगा कर रखो. स्वामी जी कहते थे कि मां सभी काम को करते हुए अपने बेटे का ख्याल रखती है. निरंतर सजग रहती है. वैसे ही भक्ति होती है, गुरु की और ईश्वर की. हम कर्म कर रहे हैं, लेकिन मन रमा है, धर्म में. कर्मयोग का उद्देश्य क्या है? कार्यो में प्रवीणता. कार्यक्षेत्र की वृद्धि. रचनात्मकता की वृद्धि. अगर कर्मयोग करते हुए भी हम अच्छी तरह से झाड़ू नहीं लगा सकते, तो कर्मयोग का क्या फायदा? इस प्रकार हर योग का एक निश्चित लक्ष्य है. क्या हमने कभी योग के द्वारा तय लक्ष्य की ओर चलने का प्रयास किया है? बल्कि हमने योग को अपने लक्ष्य के अनुसार ढालने का प्रयास कि या है. बीमार हैं, तो बीमारी दूर करने के लिए योग कर लिया. लेकिन कभी भी चित्तवृत्ति के लिए हमने योग का उपयोग किया? नींद नहीं आती है, तो योगनिद्रा लगा के सो जाते हैं. लेकिन चित्तवृत्ति निरोध के लिए हमने क्या किया? इस तरह हमारा दूसरा कदम या अगला कदम होगा, योग को जानने के लिए. अभी तक हमने योग को समझने के लिए प्रचार किया, ताकि लोग इसकी इसकी उपयोगिता समझे. यह शरीर, रोग और मानसिक शांति, सभी के लिए अच्छा है. स्कूलों या अन्य संस्थानों के लिए भी अच्छा है. लेकिन अब इसका एप्लीकेशन (प्रयोग) होना चाहिए, ह्यूमन डेवलपमेंट के लिए.
स्वामी जी, अभी आपने भारतीय पंरपरा की कई चीजों को बचाने की कोशिश करने की बात की. आज दुनिया भी मानती है कि कई भारतीय चीजें ऐसी हैं, जो दुनिया को बचा सकती हैं. किन चीजों को बचाने की कोशिश होनी चाहिए या आपके द्वारा वह संपन्न होगी?
बहुत सारी चीजों का प्रयोग हो रहा है. अगर हम देखें, तो सृष्टि की शुरुआत से ही जड़ी-बूटियां हैं. उनका मानव जीवन पर प्रभाव पड़ता रहा. लेकिन अब मानव जीवन के शरीर पर असर का वो ज्ञान हमारे पास नहीं रहा. आयुर्वेद भी आज केवल अध्ययन का विषय (एकेडमिक) हो गया है, प्रयोग-व्यवहार या अनुभव का नहीं रहा. बहुत कम लोग इसे अनुभव करते हैं. व्यवहार में लाते हैं. इसका सही उपयोग करते हैं. आज आयुर्वेदिक कालेजों से निकलनेवाले ग्रेजुएटों की योग्यता क्या है? प्रकृति और जीवन में जो संबंध स्थापित करता है, उस विज्ञान-विद्या को हम भूल गये हैं. जड़ी-बूटी, इनका मेडिसिनल हेल्प, फूल-पौधे वगैरह सबको. ये हुई पहली बात. दूसरी चीज कि व्यक्ति की सजगता, जो बहुत सी विद्याओं का आधार रही है. गुरुत्वाकर्षण का नियम इसी का उदाहरण है. न्यूटन ने सेब को गिरते देखा, तो गुरुत्वाकर्षण की खोज की. सेब हमेशा गिरे हैं, लेकिन इस तरह किसी ने नहीं सोचा. न्यूटन ने सोचा. कौए भी हमेशा चले हैं, लेकिन आज तक महाभारत को छोड़ कर किसी ने कौए की चाल पर थीसिस नहीं लिखी. महाभारत में कौए की सौ प्रकार की चालों को बताया गया है कि कैसे वह फुदक-फुदक के चलता है, उड़ कर चलता है, वगैरह-वगैरह. यह मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) है. यही आबजर्वेशन है. किसी चीज को ग्रहण करने के लिए या किसी वस्तु के विकास के लिए यह आबजर्वेशन बहुत आवश्यक है. मानसिक सजगता का होना जरूरी है. हमें देखना है कि हम किस प्रकार अपनी मानसिक सजगता को बढ़ा सकें, ताकि विद्या का संरक्षण हो सके. नॉट एवरीथिंग इज ब्लैक एंड ह्वाइट. एक कहानी है, जिसमें एक बार आयुर्वेद का विद्यार्थी अपने पिता के साथ किसी मरीज को देखने जाता है. पिता बहुत बड़े वैद्य थे. मरीज की नब्ज (नाड़ी) देख कर पूछा कि क्या तुमने इन-इन चीजों को खाया? जवाब मिला हां, तो उन्होंने कहा कि तुमने गलत खाया. यह नहीं खाना चाहिए. विद्यार्थी लड़का, जो उनके साथ था, उसने अपने पिताजी से पूछा कि आपको नाड़ी पकड़ने से कैसे पता चला कि इसने क्या खाया है? उसके वैद्य पिता ने जवाब दिया कि नाड़ी पकड़ने से नहीं, बल्कि उसके बिस्तर के नीचे रखी थाली से पता चला कि उसने क्या खाया था. यह आबजर्वेशन है, नाड़ी ज्ञान नहीं. इस तरह की विद्याओं का लोप हो रहा है. बहुत विद्याएं ऐसी हैं, जिनके लोप होने से मनुष्य फिर पाषाण युग की मानसिकता को प्राप्त करेगा. कल मन में एक विचार आ रहा था कि समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं, जो एक ही तरह की चीजें चाहते हैं. लेकिन उनका तरीका अलग-अलग है. राजनेता और योगी, दोनों एक ही चीज चाहते हैं, समाज का उत्थान. लेकिन उन दोनों का तरीका अलग-अलग होता है. दोनों का ध्यान समाज की ओर है. राजनेता, समाज के उत्थान हेतु कुछ योजनाओं को कार्यान्वित करता है, तो योगी, समाज के उत्थान हेतु कुछ अन्य योजनाओं को कार्यान्वित करता है. राजनेता समाज से जुड़ कर, उसका एक अभिन्न अंग बनता है. योगी समाज से हट कर, अलग होकर, समाज का द्रष्टा बन कर समाज का अभिन्न अंग बनता है. राजनेता ब्रेन मेनिपुलेशन की ओर जाता है. वह सोचता है, यह अभाव है, यह नहीं होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए. लेकिन योगी हृदय, स्पिरिट मेनिपुलेशन की ओर जाता है कि तुम ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे, तो वह होगा. दोनों का एप्रोच-आइडिया वही है, लेकिन रास्ते अलग हैं. एक हृदय और आत्मा को छू रहा है, तो दूसरा मस्तिष्क और मन को छू रहा है. जो मस्तिष्क और मन को छू रहा है, वह भी कहता है कि तुम्हारे समाज में सुख-शांति-समृद्धि होनी चाहिए और जो दिल और आत्मा को छू रहा है, वह भी कह रहा है कि तुम्हारे समाज में सुख-शांति-समृद्धि होनी है. यहां पर मस्तिष्क और मन तथा दूसरी तरफ की आत्मा और हृदय, क्या इन चारों का योग हो सकता है? लेकिन उसके लिए एक राजनीतिज्ञ को योग क्षेत्र में और योगी को राजनीति में जाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. यह एक सोच का विषय होना चाहिए. चिंतन का विषय होना चाहिए. अंतिम लक्ष्य, समाज के लोगों के लिए होना चाहिए. आप भी, हम भी वही काम कर रहे हैं, लोगों के लिए. क्या कहीं पर एक सामंजस्य हो सकता है, दोनों पक्षों में? ताकि दोनों ही एक अच्छी शक्ति के रूप में सामने आकर समाज का मार्गदर्शन करें. उसके लिए आध्यात्मिक माहौल का होना बहुत जरूरी है. यही एकमात्र विकल्प बचा हुआ है.
राजनीति ने अपनी आस्था खो दी है. बिना अध्यात्म और संस्कार के समाज आगे बढ़ता नहीं दिखता है. आप क्या मानते हैं?
जब भारतीय समाज और पाश्चात्य समाज की तुलना करते हैं, तब केवल हम उनकी चकाचौंध और संपन्नता देखते हैं. उनके मन को नहीं टटोलते हैं. अमेरिका भौतिक रूप से संपन्न है, लेकिन यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वह खोखला है. उनका कोई दर्शन नहीं, जो उनके जीवन को ऊर्जा प्रदान करे. उनका कोई धर्म नहीं, जो उनके जीवन में एंकर का काम करे. माता-पिता, संतानों के बीच कोई घनिष्ठ संबंध नहीं, जो उन्हें एक-दूसरे पर आश्रित बनाये. क्या उसी अमेरिका की तरह हम संपन्नता प्राप्त करके मानसिक खोखलापन प्राप्त करना चाहते हैं? क्योंकि अगर एक बार वो मानसिक खोखलापन समाज में आ जाये, तो समाज का पतन निश्चित है.
इंसान कैसे जाने कि वह किस चीज के लिए पैदा हुआ है यानी जीने का मकसद क्या है?
इस विषय पर हमने बहुत सोचा है. लेकिन हम हार गये. क्योंकि इसके बारे में सभी धर्मो ने, सभी संतों ने अलग-अलग बातें की हैं. एक आस्तिक या नास्तिक के रूप में भी हम सोचें, तो यहां एक समानता है. पहले नास्तिक की बात करते हैं. वह कहेगा कि मैंने भगवान को नहीं देखा और नहीं देखेंगे. अब नास्तिक किस तत्व से बने हैं, यही नहीं कह सकता. उनका मानना है कि जिस चीज को देखा नहीं, जान नहीं सकते, उसके पीछे हाथ-पैर क्यों मारें? अब बचता है हमारा जीवन. आस्तिक का जीवन. जीवन से अगर हमें कुछ लेना है, तो सबसे सुंदर तरीका क्या है, जीवन की खूबी को निचोड़ने के लिए कोशिश? अगर हम चार्वाकी भी रहें, तो वह कौन-सी चीज है, जिसको हम अपना सकते हैं, जीवन के सुख का निचोड़ प्राप्त करने के लिए. वह है, प्रवीणता. हम जो करें, उसमें हम प्रवीण बनें. आस्तिक के रूप में भगवान दर्शन, हमारे जीवन का उद्देश्य हो सकता है. लेकिन हमारे जीवन में कई और कर्म भी हैं, जिन्हें हमें करना है. अगर उन कर्मो में हमको विफलता मिलेगी, तो हम अपने लक्ष्य की ओर नहीं जा पायेंगे. कर्मो को सफल बनाने के लिए हमें किस चीज की आवश्यकता है? प्रवीणता की. मैंने अपने जीवन के लिए एक लक्ष्य निश्चित किया है कि जीवन के हर क्षेत्र में प्रवीणता को हासिल करने का प्रयास करो. चाहे ध्यान में हो, मान में हो, घृणा में हो, प्रेम में हो, लेखनी में हो, चिंतन में हो या चाहे कुछ भी हो. दिमाग में जो भी हो, उसमें सर्वश्रेष्ठता (एक्सीलेंस) की छाप होनी चाहिए. उसको हमने अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाया. अब पता नहीं मेरे भाग्य में भगवान का दर्शन है या नहीं? लेकिन मेरे पास खुद को अच्छा बनाने का अधिकार है. हम खुद को अच्छा बना सक ते हैं. इस बार सम्मेलन में भी मैंने यह बात बतायी कि हम साधु जरूर हैं, लेकिन आज तक हमने भगवान को नहीं देखा. गुरुजी की बात सुने हैं. मानते भी हैं. परंपरा की बातों को मानते हैं, लेकिन इसका (भगवान दर्शन का) अनुभव नहीं है. दूसरों के लिए सत्य है. मेरे लिए तब तक नहीं, जब तक मुझे उसकी अनुभूति नहीं होगी. प्रतीक्षा करने के लिए हम क्या करें? प्रभु श्रीराम के दर्शन के लिए शबरी घर में बैठ सकती थी. रामजी आयेंगे और मैं यहीं पर ही उनका सम्मान करूंगी. लेकिन उसने घर में बैठना स्वीकार नहीं किया. जिस मार्ग से भी आने का अवसर है, वहां झाड़ू लगाया, फूल बिछाया, खाने की व्यवस्था की. इससे हमारी क्षमता सिद्ध होती है.
ऐसा लगता है कि टेक्नोलॉजी ने इंसान को अकेला बना दिया है. परिवार टूट गये हैं. पश्चिम में भी अकेलापन या एलियनेशन गहरा है. हम भारतीय परंपरा के अनुकूल कैसे एक समूह में रहें?
मैं जो बात कहूंगा, उसको कहने का अधिकार मुङो नहीं है. मैं न दक्षिणपंथी हूं, न वामपंथी. लेकिन लगता है कि समाज में जितने एक्सेलेटर्स है, उतने ब्रेक्स भी होने चाहिए. आज हर व्यक्ति एक्सेलेटर चाहता है, ब्रेक नहीं. मीडिया हो, टेक्नोलॉजी हो, इंटरनेट हो, सबका सदुपयोग और दुरुपयोग है. सिर्फ एक ही चीज में नहीं है. मैंने योग सम्मेलन में एक कहानी सुनायी. दो कुत्ते हैं. एक काला और दूसरा सफेद. काला कुत्ता तामसिक है. सफेद कुत्ता सात्विक है. दोनों में लड़ाई होती है. कौन जीतेगा? आप जिस कुत्ते को ज्यादा खिलाइयेगा, वही कुत्ता जीतेगा. जिसे जितना खिलाइयेगा, वह उतना ही बलवान होगा और वही जीतेगा. यही सिद्धांत यहां पर होना चाहिए कि हम अपने समाज में, आपने परिवार में, अपने बच्चों के जीवन में कहां पर ब्रेक लगाते हैं और कहां पर एक्सेलेटर दबाते हैं? जब अवसर आता है, उनकी उन्नति का, तब एक्सेलेटर दबना चाहिए. जब उनकी अवनति की परिस्थितियां आती हैं, तो तुरंत ब्रेक लगना चाहिए. लेकिन जहां पर एक्सेलेटर और ब्रेक दोनों की बात होगी, वहां फिर ह्यूमन राइट पीछे जायेगा. एक चीज का बलिदान देकर आप दूसरी चीज को पाने का प्रयास कीजिए. लेकिन दोनों को साथ लेकर समझौता करने का प्रयास मत कीजिए.
आपने शास्त्रों का बहुत गहन अध्ययन किया है. शास्त्र क्या मानते हैं? मनुष्य जन्म क्यों लेता है? इंसान, संसार के कारोबार सब माया हैं या इनमें कुछ सार तत्व भी हैं?
वेदांत दर्शन और विज्ञान दर्शन, दोनों एक मापक (स्केल) के अलग-अलग सिरे हैं. जहां वेदांत दर्शन संसार और इंद्रियों को माया मानता है, पदार्थ को माया मानता है या मृत्यु को माया मानता है, वहीं पर विज्ञान दर्शन भी है, जो माया को सत्य मानता है. इसलिए हमें तो बीच में चलना है. हमें दोनों कुत्तों (उपरोक्त उदाहरण के संदर्भ में) को खिलाना है. अगर देखा जाये कि जब तक ये जीवन है, सत्य है, तो निश्चित रूप से पदार्थ की सत्यता और वास्तविकता का बोध होता है. लेकिन देखनेवाली बात यह है कि इस पदार्थ का अनुभव आप कब तक कर रहे हैं. औसतन 80 वर्ष की उम्र तक. यह 80 वर्ष, इनफीनिटी (अनंत) में कितना है? हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि जितना समय पलक झपकने में लगता है, उतना समय एक जीवन के बीतने में लगता है. पहला जीवन, दूसरा जीवन, तीसरा जीवन.. यह जीवन का स्पैन (दायरा-फैलाव) है, इनफीनिटी तक. इनफीनिटी भी दो प्रकार के होते हैं, एकाउंटेबल और अनएकाउंटेबल. एकांउटेबल संख्याओं के साथ होता है. आपका बेसिक नंबर या आरंभ की संख्या क्या है? और आपका फाइनल नंबर या अंत की संख्या क्या है? जब तक आप इस संख्या में एक जोड़ते रहेंगे, इनफीनिटी है. इसलिए आपको इनफीनिटी में अंत नहीं मिलेगा. आप एक जोड़ते रहिए. यह हुआ एकांउटेबल इनफीनिटी. इसी तरह दूसरा है अनएकांउटेबल इनफीनिटी. सूर्य के प्रकाश को आप नहीं देख सकते. लेकिन उससे पूरा संसार प्रकाशित हो सकता है. ऐसे ही परमात्मा की किरणों को आप देख नहीं सकते. सूर्य की किरण का बोध तब होगा, जब वह किसी पदार्थ से टकरायेगी तब. पदार्थ से टकरायेगी, तो वह पदार्थ चमकेगा. उसी प्रकार जब परमात्मा की किरण भी जीवन से टकराती है, तब जीवन का बोध होता है. यह हुआ अनएकांउटेबल इनफीनिटी. अब आप जीवन में सिर्फ इसका अनुभव कर सकते हैं. इस दृष्टिकोण से सभी दर्शन कहते हैं कि संसार, जहां पर आप निमिष मात्र ही जीते हों, असत्य है. और जो बड़ा सत्य है, वही सत्य है. यह वेदांत दर्शन है. दूसरी तरफ जो विज्ञान का दर्शन है, वह एकांउटेबल इंफीनिटी को लेकर चलता है. जीरो प्वाइंट के बाद आप इनफीनिटी के इधर जा सकते हैं, और माइनस देकर आप टोटल को रिवर्स कर सकते हैं. लेकिन जो एकांउटेबल है, वो सत्य है. क्योंकि उसका अनुभव आप इंद्रियों द्वारा कर रहे हैं. पत्थर का स्पर्श हो रहा है. अग्नि के ताप का आभास हो रहा है. निमिष मात्र के लिए आपका जीवन सत्य है. लेकिन उस निमिष मात्र में आप सोचेंगे कि बाकी सब असत्य है, तो आपका चिंतन असत्य है.