।। रेहान फजल।।
33 साल के राजकमल चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक जिले के कलेक्टर हैं. उनके दिन की शुरु आत उस समय होती है, जब उनके शयन कक्ष के बाहर एक मुर्गा अपनी पूरी ताकत से बांग देता है. खिड़की के शीशे से वो देखते हैं कि एक चपरासी पीछे के आंगन में गाय का दूध दुह रहा है. देखते ही देखते अर्दलियों, मालियों, चपरासियों और सिपाहियों के पूरे अमले का शोरगुल सुनाई पड़ने लगता है. राजकमल चौधरी के नियंत्रण में 564 गांव हैं और उनके जिले की आबादी 22 लाख है. भरपूर नाश्ता करने के बाद चौधरी बाबा आदम के जमाने की अपनी सफेद अंबेसडर कार में बैठते हैं. उस पर सायरन लगा है और उनके बैठते ही नीली बत्ती फ्लैश करने लगती है. भारत में इसको ही सत्ता का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है. चौधरी पिछली सीट पर बैठते हैं. अगली सीट पर ड्राइवर के बगल में उनका हथियारबंद अंगरक्षक बैठता है. दो मिनट की ही ड्राइव में वो अपने दफ्तर कलेक्ट्रेट पहुंच जाते हैं.
लाट साहब की दुनिया : वहां पर लाल पगड़ी वाला एक अर्दली उनकी कार का दरवाजा खोलता है. चौधरी अगले चार घंटे अपनी मेज पर महात्मा गांधी के चित्र के नीचे बिताते हैं और लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है. पगड़ी वाला अर्दली लोगों की आवाजाही को नियंत्रित करता है. मिलने वालों में बहुत से बुजुर्ग लोग भी होते हैं. उनको अपने से उम्र में कहीं छोटे चौधरी के पैर छूने से कोई गुरेज नहीं है. बहुत से लोग दरख्वास्त लाते हैं. कोई किसी विधवा की पेंशन को दोबारा शुरू करने की अर्जी देता है, तो कोई ऑपरेशन के लिए पैसा मंजूर कराना चाहता है. कोई चाहता है कि उसके इलाके में ट्यूबवेल खोदा जाये, तो किसी को कंबलों की दरकार है. बहुत से लोग भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ शिकायत करते हैं. एक शख्स एक स्वर्गीय नेता की मूर्ति बनवाना चाहता है. राजकमल चौधरी सबकी बात सुनते हैं, कुछ सवाल करते हैं और लाल स्याही से लोगों की अजिर्यों पर निर्देश लिखते हैं. कुछ जरूरतमंदों को वो तुरंत रेडक्रॉस के मद से 2,000 रु पये की रकम स्वीकृत करते हैं. ऐसा वो इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वो जिला रेडक्रॉस सोसाइटी के प्रमुख हैं. कई बार वो उन अफसरों को नोट लिखते हैं जिनको वो अर्जी मूलत: भेजी जानी चाहिए थी. और अगर वो अर्जी सही अफसर को भेज दी गयी है, तो उस पर भी वो नोट लिखते हैं कि ‘इस पर कानून के हिसाब से कार्रवाई करें.’
चौधरी का मानना है कि उनका 60 फीसदी समय लोगों की व्यक्तिगत समस्याएं सुलझाने में व्यतीत होता है. चौधरी तीन मोबाइल फोन रखते हैं. एक मोबाइल फोन पर मांग आती है कि कहीं ईंधन की लकड़ी की जरूरत है. चौधरी वन विभाग को फोन कर इस मांग को पूरा करने के निर्देश देते हैं.
विकास में बाधा : चौधरी दिन में 16 घंटे काम करते हैं, सातों दिन. वो बहुत गर्व से बताते हैं कि उन्होंने आइएएस में आने के बाद सिर्फ दो दिन की कैजुअल लीव ली है. लेकिन इसके बावजूद न तो उनके जिले के लोग उनके काम से खुश हैं और न ही उनके उच्चाधिकारी. सरकार के अपने अनुमानों के अनुसार विकास का अधिकतर पैसा उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता जिनको इनकी जरूरत है. वास्तव में इसका बहुत बड़ा हिस्सा हजम कर जाती है भारत की अक्षम और जरूरत से ज्यादा बड़ी नौकरशाही. जब साल 2004 में मनमोहन सिंह सत्ता में आये थे, तो उन्होंने कहा था कि हर स्तर पर प्रशासनिक सुधार उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है. कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत के विकास में बाधा की सबसे बड़ी जिम्मेदार इसकी नौकरशाही है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नेंस के लैंट प्रिट्चेट इसे एड्स और जलवायु परिवर्तन के स्तर की समस्या मानते हैं.
क्लर्को की सेना : भारत की केंद्र सरकार के अंतर्गत करीब 30 लाख कर्मचारी काम करते हैं और राज्यों में इनकी संख्या करीब 70 लाख है. भारत के कार्मिक विभाग के सचिव के अनुसार इनमें से सिर्फ 80,000 लोग ही सिविल सर्विस को चलाते हैं और इनको ही सही मायने में डिसीजन मेकर कहा जा सकता है. इनमें से 5600 आइएएस अधिकारी हैं. इनमें से अधिकतर राज्यों में काम करते हैं. दिल्ली में करीब 600 आइएएस अधिकारी तैनात रहते हैं, जो मंत्रियों को सलाह देते हैं और राष्ट्रीय नीतियां बनाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं. कम तनख्वाह के बावजूद एक आइएएस अधिकारी की भारत में जितनी इज्जत होती है उतनी किसी भी नौकरी में नहीं. इस साल करीब दो लाख प्रतियोगियों में से 151 लोगों को आइएएस में चुना गया है.
भारत की नौकरशाही पर किताब लिखने वाले संजॉय बागची मानते हैं, ‘जरूरत से ज्यादा तवज्जो मिलने से ये लाजमी है कि ये अधिकारी अपना संतुलन खो दें. कोई आश्चर्य नहीं होता जब शुरू के आदर्शवादी युवा वक्त के साथ-साथ अपनी हैसियत का रौब दिखाना सीख जाते हैं.’
कुछ आलोचक मानते हैं कि समस्या की वजह ये है कि आइएएस में चुने जानेवालों का स्तर गिर रहा है. इसके लिए जिम्मेदार है शिक्षा का गिरता स्तर, निजी क्षेत्र से प्रतिभा के लिए प्रतिस्पर्धा और दिनों दिन बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप.
सबसे बड़ा अधिकारी : अपने जिले में राजकमल चौधरी 65 सरकारी विभागों के मुखिया हैं. सामान्य प्रशासन के लिए उनका सरकारी बजट करीब 105 करोड़ रु पये सालाना है. उनकी मुख्य जिम्मेदारी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखना और भूमि कर वसूल करना है. कानून और व्यवस्था बनाये रखने में उनकी मदद वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक करते हैं लेकिन पुलिस को कोई भी बड़ी कार्रवाई करने से पहले उनकी इजाजत लेनी होती है. इसके अलावा चुनाव और जनगणना करवाने की जिम्मेदारी भी उनकी ही होती है. प्राकृतिक आपदाओं में सरकारी मदद भी उनके जरिये ही लोगों के बीच पहुंचती है. कलेक्टर की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है सरकार की कल्याण योजनाओं के लाभ को लोगों तक पहुंचाना. राजकमल चौधरी की देखरेख में 30 कल्याणकारी योजनाओं का पैसा खर्च होता है जिनका सालाना बजट करीब 100 करोड़ के आसपास होता है.
तबादले की मार : पिछले साल उन्होंने नरेगा के अंतर्गत करीब 60 करोड़ रु पये लोगों को दिये हैं. भारत के भ्रष्ट प्रजातंत्र में कलेक्टर का बोझ उस समय और बढ़ जाता है जब उसे राजनीतिक दखलंदाजी का सामना करना पड़ता है.
उत्तरी भारत में ये समस्या कुछ ज्यादा है. भारत के संविधान के अनुसार राजनीतिज्ञों के लिए आइएएस अधिकारियों को नौकरी से निकालना बहुत कठिन है. इसकी भरपाई वो उनका तबादला या निलंबन कर के करते हैं.
मायावती ने अपने जमाने में चार आइएएस अधिकारियों को सिर्फ इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने राहुल गांधी की प्रशंसा में एक लेख लिखा था. उत्तर प्रदेश हो या बिहार या मध्यप्रदेश या ओड़िशा, जब कोई नयी सरकार सत्ता में आती है तो बड़े स्तर पर राज्यव्यापी तबादले किये जाते हैं.
साल 2003 में अपने एक साल के कार्यकाल में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती ने राज्य के 296 आइएएस अधिकारियों में से 240 लोगों का तबादला किया. इस सबसे निबटने के लिए केंद्रीय कार्मिक विभाग ने एक कोड बनाया कि आइएएस अधिकारियों को दो साल से पहले दूसरी जगह पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता. लेकिन कुछ गिने चुने प्रदेश ही इस कोड का पालन कर रहे हैं.
(प्रशासनिक अधिकारी की गोपनीयता को बरकरार रखते हुए हमने उनकी पहचान, कार्यस्थल बदल दिये हैं.)