
अफ़ग़ान तालिबान नेता मुल्ला मंसूर अख़्तर के अमरीकी ड्रोन हमले में मारे जाने को अमरीकी राष्ट्रपति ने मील का पत्थर कहा था. लेकिन उन्होंने साफ़-साफ़ ये नहीं बताया था कि असल में इसके क्या मायने हैं.
लेकिन सबसे सीधा सवाल यह है कि इसका तालिबान पर क्या असर पड़ेगा.
पेंटागन ने कहा कि उसने मंसूर को इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वो ‘शांति और समझौता प्रक्रिया’ में बाधा बन गए थे.
हालांकि अभी तक ये पता नहीं चल पाया है कि नए नेता मावलावी हैबतुल्ला अखुंदज़ादा का शांति के प्रति क्या रुख़ है.

अखुंज़ादा मुल्ला मंसूर के पूर्व उप प्रमुख थे और अनुभव बताता है कि उनका नज़रिया भी तालिबान की आधिकारिक लाइन जैसा ही होगा.
इसके अलावा उनकी नियुक्ति से नेतृत्व हासिल करने के लिए लड़ाई की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
ड्रोन हमले से ऐसा लगता है कि तालिबान को बातचीत के लिए तैयार करने में असफल रहने और तालिबान नेताओं को कथित रूप से पनाह देने वाले पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ अमरीका ने अपना धैर्य खो दिया है.
इसलिए मुल्ला मंसूर के मारे जाने से असल में शांति वार्ता की कोशिशों को ही झटका लगा है.
पिछले हफ़्ते पाकिस्तान ने अमरीकी राजदूत को बुलाकर अपना विरोध जताया और हमले को पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन बताया.

पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में मुल्ला मंसूर अख़्तर की ट्योटा करोला कार पर बीती 23 मई को अमरीकी ड्रोन से हमला हुआ था, जिसमें तालिबान नेता की मौत हो गई थी.
पाकिस्तान की आधिकारिक लाइन है कि हमले वार्ता में बाधा डालेंगे.
तीसरा सवाल है कि इसका नशे के व्यापार पर क्या असर पड़ेगा?
इसका यह अर्थ निकालना आसान है कि मंसूर का ख़ात्मा अफ़ीम के क़ारोबार के ख़िलाफ़ लड़ाई में सीधे-सीधे मदद पहुंचाएगा.
असल में मंसूर ने आर्थिक स्रोतों के मामले में तालिबान को पूरी तरह बदल डाला था.
वर्ष 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण के बाद खाड़ी देशों से आने वाले धन में भारी कमी आ गई थी.
ऐसा माना जाता है कि मंसूर ने तालिबान के लिए नए आर्थिक स्रोतों को विकसित किया और साथ में खुद और अपने क़बीले के लोगों को भी धनी बनाया.

जब पिछले साल वो संगठन का आधिकारिक मुखिया बने तो उन्होंने इसे अरबों-ख़रबों के व्यापार वाले ड्रग्स कार्टेल में बदल दिया.
अफ़ग़ानिस्तान अफ़ीम उत्पादन का दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र बन गया, जिसे म्यांमार, लाओस और थाईलैंड के बीच गोल्डन ट्राइंगिल कहा जाता था.
लेकिन मंसूर की मौत के बाद क्या इसपर कोई असर पड़ेगा?
अफ़ग़ानिस्तान का हेलमंद प्रांत तालिबान का गढ़ है. पारंपरिक रूप से यहां देश के कुल अफ़ीम उत्पादन का 50 प्रतिशत उत्पादन होता है.
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि प्रांत में और तीखी लड़ाई का मतलब है कि इस साल भी अफ़ीम मुक्ति का अभियान अधर में रह गया है.
हालांकि कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनसे लगता है कि कुछ किसान अफ़ीम की खेती छोड़ दूसरी फसलें उगाने लगे हैं.
इसका एक कारण पिछले साल अफ़ीम की पैदवार में हुआ नुकसान भी हो सकता है, जो एक रहस्यमय बीमारी के कारण हुआ था.

हेलमंद के रेगिस्तानी इलाक़े में खेती की तस्वीरों पर ज़रा ग़ौर फ़रमाएं. ये तस्वीरें एआरईयू वॉचिंग ब्रीफ़ः मूविंग विद टाइम्स से ली गई हैं.
लेकिन दूसरी तरफ़ ऐसे ढेरों तथ्य हैं कि सरकार के न्यूनतम नियंत्रण वाले इलाक़ों में अफ़ीम की खेती में इजाफा हुआ है.
स्थानीय लोगों से बातचीत से पता चला कि स्थानीय पुलिस और सरकारी अधिकारी रिश्वत के एवज में न केवल इसकी इजाज़त देते हैं बल्कि इसकी सुरक्षा भी करते हैं.

चौंकाने वाली बात है कि संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2002 में जबसे अफ़ीम का रिकॉर्ड रखना शुरू किया, तबसे अबतक वर्ष 2014 में सबसे अधिक उत्पादन हुआ. इससे एक साल पहले नैटो ने अपना सैन्य अभियान समेटा था.
तालिबान नेता मुल्ला मंसूर अख़्तर की मौत के बावजूद किसी और बिजनेस के न होने की स्थिति में अफ़ीम का व्यापार तालिबान नियंत्रित और सरकार नियंत्रित इलाक़ों में एक अहम व्यवसाय बनता जा रहा है.
इससे ये भी पता चलता है कि तालिबान का कोई भी नेता हो, अफ़ग़ानिस्तान अफ़ीम उत्पादन में दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र बना रहेगा.
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