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वैज्ञानिकों ने विकसित की कृत्रिम त्वचा अब उम्र छिपाना होगा आसान!

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी कृत्रिम त्वचा विकसित की है, जिसे आप किसी टाइट कपड़े की तरह शरीर पर पहन सकते हैं. मजे की बात यह कि कोई इसे देख नहीं पायेगा यानी यह कृत्रिम त्वचा तकरीबन अदृश्य होगी. शोधकर्ताओं ने इसे ‘सेकेंड स्किन’ नाम दिया है, क्योंकि इसे मूल त्वचा के ऊपर धारण किया जायेगा. […]

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी कृत्रिम त्वचा विकसित की है, जिसे आप किसी टाइट कपड़े की तरह शरीर पर पहन सकते हैं. मजे की बात यह कि कोई इसे देख नहीं पायेगा यानी यह कृत्रिम त्वचा तकरीबन अदृश्य होगी. शोधकर्ताओं ने इसे ‘सेकेंड स्किन’ नाम दिया है, क्योंकि इसे मूल त्वचा के ऊपर धारण किया जायेगा. इससे आपकी झुर्रियां नहीं दिखेंगी और आप अपनी वास्तविक उम्र से काफी जवां दिखेंगे. इसलिए इसे लेकर दुनियाभर में व्यापक जिज्ञासा है. इस सेकेंड स्किन के विकास और इससे जुड़े कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज….
उम्र बढ़ने के साथ इनसान की त्वचा ढीली पड़ने लगती है और उसके अनेक हिस्सों में झुर्रियां पड़ने लगती हैं. ऐसा किसी बीमारी के कारण नहीं होता, बल्कि उम्र बढ़ने के साथ यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन, ज्यादातर लोग, खासकर महिलाएं, त्वचा की कसावट को बरकरार रखना चाहते हैं, ताकि ढलती उम्र में भी वे युवा दिख सकें. इसके लिए महिलाएं अनेक प्रकार की कॉसमेटिक्स का इस्तेमाल करती हैं. साधन संपन्न परिवारों की महिलाएं इसके लिए नवीनतम तकनीक आधारित स्किन ट्रीटमेंट भी करवाती हैं. अब इनके नये विकल्प के तौर पर वैज्ञानिकों ने ‘सेकेंड स्किन’ का विकास किया है, जिसे शरीर पर धारण किया जा सकेगा.
मेडिकल साइंस की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ की रिपोर्ट के मुताबिक, वैज्ञानिकों ने क्रॉसलिंक्ड पॉलिमर लेयर (एक्सपीएल) के रूप में इलास्टिक की तरह पहना जानेवाला एक नया प्रोडक्ट तैयार किया है, जिसमें प्राकृतिक त्वचा की तरह अनेक गुण मौजूद हैं और यह बिल्कुल उसका डुप्लीकेट प्रतीत होता है. एक्सपीएल एक ट्यूनेबल पॉलिसाइलोक्सेन आधारित मैटेरियल है, जिसे खास इलास्टिसिटी और ऐसे अनेक गुणों के साथ इंजीनियर्ड किया जा सकता है.
एक्सपीएल को बिना किसी हीट या लाइट मीडिएटेड एक्टिवेशन के प्रयुक्त किया जा सकता है. हाल ही में इनसानों पर इसका एक पायलट अध्ययन किया गया है. इस दौरान वैज्ञानिकों ने पाया कि त्वचा के खिंचाव की दशा में एक्सपीएल के टेन्सिल मॉड्यूल्स ने ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया दी, जैसी सामान्य प्राकृतिक त्वचा देती है. वैज्ञानिकों ने इसे एक बड़ी उपलब्धि करार दिया है.
इसके विकास से यह उम्मीद भी जगी है कि जल्द ही हम सनबर्न से सुरक्षा के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल कर पायेंगे. इसके अलावा एक्जिमा जैसी त्वचा की बीमारियों का इलाज भी इससे मुमकिन होगा. हालांकि, सामान्य लोगों में इसके प्रति जो उत्साह पैदा हुआ है, वह कुछ अलग तरीके का देखने में आ रहा है. उन्हें यह एहसास काफी गुदगुदाता है कि वे सुबह में इस डुप्लीकेट त्वचा को पहन लेंगे और दिनभर पहनने के बाद रात में उसेनिकाल देंगे.
डुप्लीकेट त्वचा को कोई अन्य व्यक्ति सामान्य आंख से देख कर उसकी वास्तविकता को नहीं समझ पायेगा, लिहाजा इसे त्वचा पर ‘इनविजिबल कोटिंग’ भी कहा गया है. क्रॉस-लिंक्ड पॉलिमर से बनायी गयी यह ‘इनविजिबल कोटिंग’ देखने में द्रव पदार्थ की तरह होगा, लेकिन जैसे ही इसे शरीर पर धारण किया जायेगा, यह ठोस रूप में आ जायेगा और आपके शरीर की त्वचा के शेप में ढल जायेगा. इसे द्रव के रूप में त्वचा पर दो लेयर्स में लगाया जायेगा.
पहला ट्रांसपेरेंट क्रीम होगा, जिसमें पॉलिमर होगा और दूसरा एक केटेलिस्ट की भांति होगा. पॉलिमर से लिंक्ड यह केटेलिस्ट डुप्लिकेट त्वचा को अदृश्य बना देगा, जिसे बाद में कपड़े की तरह शरीर से उतारा जा सकता है. प्रयोगशाला में किये गये परीक्षण में इनसान की झुर्रीदार त्वचा को 250 फीसदी से ज्यादा तक सामान्य बनाने में कामयाबी हासिल हुई है.
आंखों के नीचे पहला परीक्षण
शोधकर्ताओं ने इसका सबसे पहला परीक्षण इनसान की आंखों के हिस्से में किया है, जिससे बेहद आशाजनक नतीजे सामने आये हैं. शोधकर्ताओं को इससे एक नयी उम्मीद जगी है कि वे शरीर के अन्य भागों में ढीली पड़ चुकी या झुर्रियोंवाली त्वचा को ठीक कर पायेंगे. इस शोध टीम में शामिल अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के डेनियल एंडरसन का कहना है कि ऑरिजनल स्किन पर पहनी जानेवाली यह अदृश्य परतवाली त्वचा मूल त्वचा को किसी प्रकार के बाहरी खराब असर से बचाती है, जिसके लिए आम तौर पर लोग दवाओं का इस्तेमाल करते हैं.
उन्होंने यह भी उम्मीद जतायी है कि भविष्य में यदि इसे किसी अन्य कम्पोनेंट के साथ मिला कर कोई नया उत्पाद बनाया जायेगा, तो वह इनसान की त्वचा को अल्ट्रावायलेट किरणों के दुष्प्रभाव से बचाने में सक्षम होगा.
हालांकि, मौजूदा समय में त्वचा को अल्ट्रावायलेट किरणों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए ज्यादातर लोग सनस्क्रीन का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन लंबे समय तक इसका इस्तेमाल त्वचा के लिए सही नहीं माना जाता और अनेक लोगों में उसका साइड इफेक्ट देखा गया है. साथ ही इससे पर्यावरण संबंधी अन्य कई खतरे भी हैं.
सुरक्षित रसायनों का इस्तेमाल
त्वचा रूपी इस ‘सेकेंड स्किन’ को बनाने में इस्तेमाल किये गये तत्व और रायायनिक पदार्थों को अमेरिका की संबंधित एजेंसी ‘फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन’ ने सुरक्षित बताया है. इसमें इस्तेमाल किये गये केमिकल्स साइलोक्सेंस हैं, जिसमें ऑक्सीजन का एक अणु और सिलिकॉन के दो अणु होते हैं. शोधकर्ताओं ने इनके आण्विक गुणों में सुधार करते हुए इनका एक बड़ा समूह तैयार किया और इन्हीं गुणों के आधार पर इस उत्पाद को विकसित करने में कामयाब हुए.
उन्होंने इसे दो प्रक्रियाओं में विभाजित किया. पहला, पॉलिमर को अप्लाइ किया, जो पूरी तरह से द्रव है. हालांकि, सीरीज में यह ज्यादा मजबूत नहीं होते, लेकिन अगले चरण में इसे दूसरे प्रोडक्ट के साथ जोड़ दिया जाता है. सीरीज की केमिस्ट्री में सुधार लाते हुए शोधकर्ता सेकेंड स्किन के गुणों में विविधता ला सकते हैं, जो इस बात पर निर्भर करेगा कि उसका कैसे इस्तेमाल किया जाना है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि मेडिकेशन की विभिन्न विधाओं में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. बायोटेक्नोलॉजी विधा से संबंधित कैंब्रिज की एक निजी कंपनी लिविंग प्रूफ ने अपनी प्रयोगशाला में इसे विकसित किया है.
कोलंबिया में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर गोर्डाना वुंजेक नोवाकोविक का मानना है कि यह ब्रिलिएंट आइडिया है. वहीं नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में डर्माटोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर मुराद आलम का कहना है कि इस शोध ने लोगों को आकर्षित जरूर किया है, लेकिन इससे जुड़े अनेक जोखिम भी सामने आ सकते हैं.
कैसे आया सेकेंड स्किन का आइडिया?
सेकेंड स्किन का आइडिया आज से करीब एक दशक पहले हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डर्माटोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर आर रॉक्स एंडरसन के दिमाग की उपज है. दरअसल, एक बार वे लिविंग प्रूफ कंपनी ने बालों के किसी उत्पाद के निर्माण के लिए पॉलिमर पर काम करने के लिए उनसे संपर्क किया.
चूंकि डर्माटोलॉजिस्ट बालों के विशेषज्ञ भी होते हैं, लिहाजा कंपनी ने इसी कारण उनसे संपर्क किया था. उसी दौरान डॉक्टर एंडरसन ने कंपनी के एक एग्जीक्यूटिव से कहा कि क्यों न हम ऐसे पॉलिमर को विकसित करें, जिसे त्वचा पर पहना जा सके. इसके लिए कुछ चीजों पर ध्यान देना जरूरी था.
– यह सेकेंड स्किन तकरीबन अदृश्य हो.
– ढके रहने के बावजूद मूल त्वचा सांस लेने में सक्षम हो.
– यह ज्यादा मजबूत और लचीली हो, ताकि स्किन को पूरी तरह से अपने भीतर ढक ले.
– मूल त्वचा पर किसी तरह का दुष्प्रभाव न पड़े.
डॉक्टर एंडरसन के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी.
इस कार्य के लिए एमआइटी के एक अन्य प्रोफेसर और बायोमेडिकल इंजीनियर रह चुके लिविंग प्रूफ के साइंटिफिक फाउंडर डॉक्टर रॉबर्ट लैंगर ने भी सहयोग दिया. उनका कहना है कि उन्होंने इन संभावनाओं को टटाेलने के लिए करीब सौ प्रकार के पॉलिमर्स पर शोध किया. वे ऐसा सेकेंड स्किन बनाना चाहते थे, जो एक दिन से ज्यादा समय तक कारगर बना रहे.
सुपरस्मार्ट स्किन : असली का अहसास कराती कृत्रिम त्वचा
दक्षिण कोरिया के कुछ अन्य शोधकर्ताओं ने एक बेहद खास तरीके की कृत्रिम त्वचा विकसित की है. इसे विकसित करनेवाले वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि भले ही यह नकली हो, लेकिन इस्तेमाल करनेवाले को इसका टच यानी छूने का अहसास बिल्कुल असली जैसा होगा.
यही कारण है कि शोधकर्ताओं ने इसे सुपरस्मार्ट स्किन नाम दिया है. यह असली त्वचा की तरह लचीला है. इसमें हीटर भी लगा है, कारण यह बिल्कुल सजीव महसूस होती है. इससे दबाव, गर्मी और यहां तक कि नमी का भी अहसास होता है. शोधकर्ताओं ने प्रोस्थेटिक हैंड यानी नकली हाथ पर लगा कर इसका परीक्षण किया, तो पता चला कि इसे पहन कर यूजर यह भी बता सकता है कि बच्चे ने कहीं डायपर गीला तो नहीं कर दिया.
साइंस मैगजीन ‘नेचर कम्युनिकेशन’ की रिपोर्ट के अनुसार, प्रोस्थेटिक हाथ और उस पर लगायी गयी इस नकली स्किन से हाथ मिलाने में गर्मजोशी महसूस होती है. इससे अन्य कई काम भी निबटाये जा सकते हैं, जैसे- कीबोर्ड से टाइपिंग की जा सकती है, बॉल पकड़ी जा सकती है, चाय के गर्म और कोल्ड ड्रिंक के ठंडे कप को पकड़ा जा सकता है. सबसे बड़ी बात ह्यूमन-टू-ह्यूमन कॉन्टेक्ट यानी इनसानों में आपसी स्पर्श का अहसास बना रहता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, इस स्किन को बनाने में ज्यादातर लचीले और पारदर्शी सिलिकॉन मैटीरियल पॉलीडाइमिथाइल- सिलोक्सेन यानी पीडीएमएस का इस्तेमाल किया गया है. इसमें सिलिकॉन के नैनोरिबन हैं, जिसके दबाने और खींचने पर यह बिजली पैदा करती है और इससे ही यह इनसानी त्वचा की तरह संवेदनशील बनती है. नैनोरिबन ये भी भांप सकते हैं कि जिस चीज को छू रहे हैं, वह गर्म है या ठंडा. टीम ने इसे असली इनसानी त्वचा जैसा बनाने का लक्ष्य रखा था. इनसानी त्वचा का अपना तापमान होता है, लिहाजा इसे भी गर्म बनाये रखना जरूरी था. मूल त्वचा का सामान्य तापमान 98 डिग्री होता है.
नकली त्वचा इस तापमान को बनाये रखती है या नहीं इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने सुपरस्मार्ट स्किन से ढके हाथ को प्लास्टिक की गुड़िया पर रखा और यह मापा कि नकली हाथ से गुड़िया तक कितनी गर्मी पहुंच रही है. इसकी एक बड़ी खासियत है कि सिलिकॉन के बने नैनो रिबन के पैटर्न यानी ढांचे को बदल कर सुपरस्मार्ट स्किन के लचीलेपन को घटाया-बढ़ाया जा सकता है.
शरीर के ऑक्सीजन लेवल की निगरानी करेगी कृत्रिम त्वचा
जापान के वैज्ञानिकों ने एक बेहद पतली इलेक्ट्रॉनिक त्वचा को विकसित किया है, जो इनसान के शरीर में ऑक्सीजन के लेवल की माप करने में सक्षम होगा. ‘आइबी टाइम्स डॉट को डॉट यूके’ की रिपोर्ट के मुताबिक, जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी की टीम ने इसे विकसित किया है.
उम्मीद जतायी गयी है कि इस इलेक्ट्रॉनिक त्वचा को सर्जरी के दौरान और उसके बाद इनसान के खास अंगों के साथ उसे जोड़ा जा सकेगा. रिपोर्ट में बताया गया है कि अंगुली के साथ इसे लेमिनेट करने की दशा में यह बिना किसी बाधा के ब्लड के ऑक्सीजन कंसंट्रेशन की माप कर पायेगा. एक बार इसके सक्रिय होने की दशा में यह शरीर में संबंधित आंकड़ों को विजुअलाइज करेगा और चरणबद्ध तरीके से इन्हें मुहैया करायेगा. इस इलेक्ट्रॉनिक त्वचा में माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट्स हैं, जो लाल, ब्लू और हरी सतह के समक्ष आने पर चमकते हैं.
इसके मुख्य शोधकर्ताओं में शामिल तोमोयुकी योकोता का कहना है कि यह एक ऑरगेनिक, अल्ट्रा-फ्लेक्सिबल और फोटोनिक स्किन है. यह एक पतली फिल्म की तरह है, जिसे शरीर पर मूल त्वचा के ऊपर धारण किया जायेगा. इसके अलावा यह शरीर के तनाव को कम करने में भी योगदान देगा.
मूल रूप से इस इलेक्ट्रॉनिक त्वचा का विकास सर्जरी में मदद के लिए किया गया. इस तकनीक का इस्तेमाल धावकों के शरीर में ऑक्सीजन के स्तर को मापने के लिए इस्तेमाल किये जानेवाले नये जेनरेशन के सेंसरों में भी किया जा सकता है. वैज्ञानिकों ने इसे एक प्रकार का ‘ऑप्टोइलेक्ट्रॉनिक’ डिवाइस बताया है, जिसे खास तौर पर इंडस्ट्रियल मेडिसिन के क्षेत्र में इस्तेमाल किया जा सकता है.
मेडिकल रिसर्च के क्षेत्र में भविष्य में इसे व्यापक रूप से इस्तेमाल में लाया जा सकता है. इसके इस्तेमाल से वैज्ञानिक ऐसे स्मार्ट ग्लासेज और कॉन्टेक्ट लेंस का विकास कर रहे हैं, जो शरीर के ग्लूकोज के स्तर की माॅनीटरिंग कर सकता है.
– कन्हैया झा

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