अपना वजूद तलाशने के लिए घर की देहरी से बाहर कदम रखते ही स्त्री को तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. पुरुष प्रधान समाज में वह खुद को हर पल असुरक्षित पाती है. अपने पैरों पर खड़े होने की उसकी ख्वाहिश की राह में दर्जनों घूरती आंखें आ खड़ी होती हैं. कामकाजी महिलाओं की अनसुनी दास्तां कहने की एक कोशिश.
वे मन की सलाइयों से बुनती हैं सपने
चढ़ साइकिल जाती हैं दूर जवार
चीह्न्ने आखर
और एक दिन बैठ आखर की रेल में
पहुंचती हैं सपनों के नगर-महानगर
पहली बार दिल्ली जाते हुए ट्रेन में बैठकर इस लिखे गये में कुछ महीनों बाद जुड़ी सतरें-
भीड़ भरी सड़क पर साथ उनके
घूरती आंखों की दहशत चलती है
सपनों पर अब तेजाब सी छींटे हैं
रोज मांगी जा रही है कीमत उनसे
अपने पैरों पर खड़े होने की ..
क्या ऐसा सबके साथ होता होगा, जो उसके साथ हुआ! वह खुद से सवाल पूछती है, क्या मुङो वापस चले जाना चाहिए! क्या लौट जाने पर भी इस सब को भुलाया जा सकता है, जो कुछ यहां आने के बाद रोज ब रोज उसने सहा! क्या वापसी का विकल्प आत्मा के घावों को भर सकेगा! ऐसे ढेरों सवाल मुझ पर इन दिनों हर पल बेसाख्ता हावी होते रहते हैं.
मैं, या वह, या हम जैसी लाखों लड़कियां जो घर से बाहर कदम निकालती हैं, अपना वजूद तलाशने के लिए, आसमान छूने की हसरत लेकर नहीं, बस अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, उनके लिए घर की देहरी के बाहर बढ़ाया गया पहला कदम ही दुश्वारियों के समंदर के बीच में ला पटकता है.
वह , दफ्तर जाने के लिए घर से निकलती है, सड़क पार कर ऑटो रिक्शा या बस लेने के लिए सड़क पर खड़ी होती है. तभी एक कार अचानक रुक जाती है और अंदर बैठे शख्स की वहशी आंखें उसे भीतर तक खरोंच जाती है. वह सहम कर थोड़ा पीछे हटती है और फुटपाथ पर चल रहे एक अनजान परिवार के साथ चलने लगती है. कारवाला आगे बढ़ जाता है. ऑटो से पहले बस आ जाती है. बस में भीड़ है और भीड़ का फायदा उठाते कई धक्के भी. कुछ अनजाने, कुछ जानबूझ कर दिये जा रहे धक्के. बार-बार टकरा कर स्पर्श करने की घिनौनी मंशा है. मन हिकारत से भर जाता है. यह तो अब जैसे रोज ही ङोलना है, यह बेबसी मन पर फैलती जाती है. दफ्तर पहुंच कर कम से कम आठ घंटे अब सुकून से अपना काम करते हुए बीतने की राहत का कोई कतरा उसे तसल्ली देता कि अपने एक वरिष्ठ सहकर्मी की घूरती आंखों का ख्याल उसकी तसल्ली में दरार ला देता है. वह सोचती है कि इन ‘सज्जन’ की शिकायत करूं, लेकिन कहीं लोग तरह-तरह की बातें न बनायें! वह सबकी चर्चा का केंद्र न बन जाये! ऐसे कई सवाल शिकायत करने के उसके इरादे को पीछे ठेल देते हैं. लगता है कि इस जगह से कहीं दूर चले जाना चाहिए. लेकिन, क्या ऐसी परेशानियों से वह अपना सपना छोड़ सकती है?’
एकवाकया मेरी एक दोस्त ने सुनाया था, कि कैसे दफ्तर में एक दिन काम शुरू करते वक्त उसे उसकी मेज पर रखी फाइलों में एक लिफाफा मिला था. उसने जब वह लिफाफा खोल कर देखा, तो उसमें एक टाइप किया हुआ खत था- ‘ आप यहां अकेली रहती हैं. मुङो आपकी बहुत चिंता है. आप खुद को अकेला न समङों’. रश्मि (नाम बदला हुआ) के सब्र की सारी सीमाएं टूट गयी थीं. वह उस पत्र को लेकर सीधे अपने बॉस के पास गयी थी, जो पहले तो हंसे थे, फिर उसके गुस्से से लाल चेहरे और कांपते बदन को देखकर एक्शन लेने का भरोसा दिया था. उसके बॉस का सवाल था, तुम्हें क्या लगता है किसने की है यह हरकत? उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था. वह कइयों के नाम गिनाना चाहती थी, लेकिन उसके पास क्या सबूत था? वह ऑफिस में इस्तेमाल होनेवाली द्विअर्थी भाषा, ‘क्लैंडेस्टाइन प्रपोजल्स’ (छिपे हुए प्रस्तावों) के बारे में बताना चाहती थी, लेकिन शांत रह गयी. वह उस अधिकारी के केबिन से बाहर निकल आयी थी, लेकिन कई जोड़ी नजरें, कई कोनों की फुसफुसाहट जैसे उस पर बरस रही थी. मुङो अच्छी तरह से याद है, उसने कहा था, ‘जब मैं घर आयी, तब कमरे की दीवारें भी मुङो घूर रही हैं. पता नहीं जो हुआ उसको लेकर गुस्सा था, नौकरी करने के फैसले पर पछतावा था या लड़की होने की बेबसी ! क्या अपने पैरों पर खड़े होने की कीमत ऐसी अपमान भरी यातना है!’
वह छोटे से कस्बे से आयी साधारण सी लड़की थी. शायद ऐसी स्थितियों में क्या किया जाना चाहिए उसे नहीं मालूम था. लेकिन, ऐसा और इससे भी बदतर महसूस करनेवाली लड़कियों की संख्या कम नहीं है. सुप्रीम कोर्ट की एक महिला इंटर्न का हाल ही में सेवानिवृत्त हुए एक न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न का आरोप. गोवा फिल्मोत्सव में प्रोग्रामर के तौर पर कार्यरत जेएनयू की छात्र की उप निदेशक स्तर के एक वरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ अश्लील बातें करने की शिकायत. तहलका के तरुण तेजपाल पर लगा उनके संस्थान की युवा सहकर्मी का यौन उत्पीड़न का आरोप. हाल की ये घटनाएं कार्यस्थल पर महिलाओं की असुरक्षा को दर्शाती हैं. ये वो घटनाएं हैं, जिनमें पीड़ित सामने आयीं और अपने साथ हुए र्दुव्यहार की शिकायत की. लेकिन ऐसे अनगिनत मामले दफ्तरों की दीवारों से बाहर नहीं निकल पाते. नौकरी जाने और समाज में बदनामी के डर जैसी आशंकाएं, ऐसे मामलों को अकसर उत्पीड़ित महिला के मन में दफन कर देती हैं.
ऐसा नहीं है कि ऐसी स्थिति को रोकने के लिए कानून या गाइडलाइंस नहीं हैं. विशाखा मामले में 13 अगस्त 1997 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला आज भी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए अहमियत रखता है. तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब तक सरकार कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए कानून नहीं बनाती है, तब तक ये दिशा- निर्देश कानून की तरह लागू रहेंगे. लेकिन, 15 साल बीतने पर अब जाकर इस दिशा में बना कानून भी अभी तक ठीक से लागू नहीं हुआ है. इन दिशा-निर्देशों का पालन न किये जाने की शिकायत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है. 19 अक्तूबर, 2012 को मेधा कोतवाल लेले मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर सभी राज्यों को सख्ती से विशाखा जजमेंट के दिशा-निर्देशों को लागू करने का आदेश दिया था. इतना ही नहीं कोर्ट ने फैसले का दायरा बढ़ाते हुए कई विधायी संस्थाओं को भी ऐसा करने को कहा था, पर ऐसी कोई ठोस पहल कहीं नहीं दिखती.
जैसा कि वरिष्ठ अधिवक्ता कमलेश जैन कहती हैं, ‘ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए कानून का उसके ‘रियल स्पिरिट’ में पालन जरूरी है. कानून का मतलब सिर्फ कागज पर उकेरे गये हर्फ नहीं हैं. कानून का असल काम लोगों में न्याय के प्रति यकीन पैदा करना है. लेकिन, दूसरे कानूनों की तरह कार्यस्थल पर यौन शोषण रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस को लेकर न तो ज्यादा जागरूकता है, न इसका पालन ही हो रहा है. जाहिर है, जब गाइडलाइंस बनानेवाले सुप्रीम कोर्ट ने ही उसको लेकर गंभीरता नहीं दिखाई, तो बाकी से क्या उम्मीद’!
फिलहाल, गाइडलाइंस से बेखबर, कोई लड़की अपने कस्बे से फिर निकल रही है आंखों में छोटे-बड़े सपने लिये..इस बात से बेखबर कि शहर में दरिंदगी से भरी दर्जनों आंखें उसका इंतजार कर रही हैं.