महिलाओं ने सोचा कि जब हम इतने बड़े-बड़े काम कर सकती हैं तो दोनों गांवों के बीच एक पुल क्यों नहीं बना सकतीं. बैठक में सारी महिलाएं सहमत हो गयीं कि अब दूसरों का मुंह जोहने से अच्छा है खुद पुल बना लेना.
पुष्यमित्र
इस खबर से साथ नीचे लगी तसवीर में आप साइकिल पर सवार मुनिया के चेहरे पर छायी खुशी को देख सकते हैं. मुनिया सातवीं कक्षा में पढ़ती है और बड़की गोरांग गांव की रहने वाली है. उसका स्कूल छोटकी गोरांग गांव के पास है जो उसके गांव से थोड़ी ही दूरी पर है. छोटकी गोरांग और बड़की गोरांग एक दूसरे से सटे दो गांव हैं. इनका नाम ही अलग है बांकी कई चीजें साझा हैं. बाजार और स्कूल छोटकी गोरांग गांव में है तो खेत और खलिहान बड़की गोरांग गांव में और जिस पुल के होकर मुनिया गुजर रही है वह पुल इन दोनों गांवों को आपस में जोड़ता है. मगर महज छह माह पहले इन दोनों गांव के लोगों के लिए एक दूसरे के गांव आना-जाना इतना आसान नहीं था. दोनों गांव के बीच में जो गड्ढा है वह साल में सात-आठ महीने पानी से भरा रहता है, इस वजह से साल के चार महीनों को छोड़ दें तो शेष दिनों में दोनों गांव के लोगों को एक दूसरे के गांव में आने-जाने के लिए पांच किमी का चक्कर लगाना पड़ता था. ऐसे में छोटा से छोटा काम पहाड़ बन जाता था. क्योंकि महज छह माह पहले तक यह पुल नहीं बना था.
खुद बनाने का फैसला
गांव के एक युवक शिव चरण बेदिया बताते हैं कि पिछले दस सालों में गांव के लोगों ने पंचायत से लेकर विधायक-मंत्री और बीडीओ से कई बार गुहार लगायी. उन्हें अपनी इस समस्या के बारे में बताया मगर हर बार उन्हें आश्वासन के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ. तंग आकर गांव की महिलाओं ने तय किया कि वे खुद ही पुल बना लेंगी, उन्होंने गांव के युवक संघ से मदद लिया और महज एक हफ्ते में यह पुल बनकर तैयार हो गया. और इस तरह उनकी एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया.
कैसे बना पुल
इस पुल के निर्माण के पीछे गांव की महिलाओं के बचत समूह (मां सरस्वती स्वयं सहायता समूह, छोटकी गोरांग) की बड़ी भूमिका है. बचत समूह की बैठकों में महिलाएं बचत और कारोबार के अलावा भी कई मसलों पर चर्चा करती हैं. चर्चा के दौरान कई दफा इस गड्ढे के कारण दो गांवों के बीच की दूरी का मसला भी उठता था. ऐसी ही एक बैठक में महिलाओं ने फैसला किया कि जब हम इतने बड़े-बड़े काम कर सकती हैं तो दोनों गांवों के बीच एक पुल क्यों नहीं बना सकतीं. बैठक में सारी महिलाएं सहमत हो गयीं कि अब दूसरों का मुंह जोहने से अच्छा है खुद पुल बना लेना.
युवक संघ से मांगी मदद
महिलाएं जानती थीं कि अकेले अपने दम पर पुल बना पाना मुमकिन नहीं होगा. साथ ही गांव के दूसरे लोग भी भागीदारी करेंगे तो सभी लोगों को लगेगा कि यह उनका अपना पुल है. इसी वजह से उन्होंने गांव में संचालित हो रहे विवेकानंद युवक संघ, छोटकी गोरांग के लोगों से सहयोग मांगा. युवक भी आसानी से इस काम के लिए तैयार हो गये. इसके अलावा गांव की वन सुरक्षा समिति को भी सहयोग करने कहा गया. उनसे सहयोग मांगने का कारण था कि उनके जरिये पुल के लिए आवश्यक लकड़ियों का इंतजाम आसानी से और मुफ्त में हो गया.
एक हफ्ते में बना पुल
महिलाएं बताती हैं कि वैसे तो पुल तीन दिन में ही बन गया मगर तीन दिन जंगल से लकड़ियां लाने में लगे, एक दिन और इधर-उधर के काम में. लकड़ियां लाने का काम महिलाओं ने किया तो पुल जोड़ने में युवक संघ ने बड़ी भूमिका निभायी. हर दिन 20-25 लोगों ने बारी-बारी से मेहनत किया और पुल बनकर तैयार हो गया.
बहुत कम खर्चे में बना पुल
इस पुल को बनाने में बहुत कम राशि खर्च हुई. बाजार से सिर्फ कांटियां मंगवायी गयीं. इसके अलावा तीन दिन सामूहिक भोजन बना. लकड़ियां वन सुरक्षा समिति के सहयोग से ही मुफ्त में मिल गयीं और हथौड़े और कुल्हाड़ी का इंतजाम तो लोगों के घरों में ही था.
उत्सव के माहौल में काम हुआ
गांव के लोगों ने बताया कि जितने दिन पुल का काम हुआ गांव में उत्सव जैसा माहौल था. लोग नाचते-गाते हुए काम कर रहे थे. काम-काम जैसा नहीं लग रहा था. बारी-बारी से 20 लोग काम कर रहे थे इसलिए किसी को एक दिन से अधिक की मजदूरी का नुकसान भी नहीं हुआ और काम भी आसानी से निबट गया. पुल जब तैयार हो गया तो दोनों गांव मस्ती में डूब गये. पुल पर से मोटरसाइकिल तक चला कर देखा गया और पाया गया कि पुल मोटरसाइकिल का भार आसानी से वहन कर सकता है.
अभी भी है कई परेशानियां
छोटकी गोरांग और बड़की गोरांग क्षेत्र जंगल से सटा इलाका है और यहां अक्सर हाथी आते जाते रहते हैं. इस वजह से पुल पर हमेशा खतरा मंडराता रहता है. पुल इतना मजबूत नहीं है कि हाथी इसे उजाड़ नहीं सके. लोग हमेशा डरे रहते हैं कि हाथी उनकी मेहनत का कबाड़ा न कर बैठे. मगर फिर भी उन्हें अब इतना भरोसा तो हो ही गया है कि अगर कुछ हुआ भी तो वे पुल को दुबारा खड़ा कर लेंगे.