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राजनीति पर शिक्षा की वरीयता

।। डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र ।। पंडित मदन मोहन मालवीय के जन्मदिवस पर विशेष पंडित मदन मोहन मालवीय से कभी मैं साक्षात नहीं मिला. लेकिन काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के समय उनके संबंध में इतना कुछ जाना और समझा कि लगता है कि उन्हें काफी करीब से जानता हूं. विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान […]

।। डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र ।।

पंडित मदन मोहन मालवीय के जन्मदिवस पर विशेष

पंडित मदन मोहन मालवीय से कभी मैं साक्षात नहीं मिला. लेकिन काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के समय उनके संबंध में इतना कुछ जाना और समझा कि लगता है कि उन्हें काफी करीब से जानता हूं. विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान वहां के सचिव सीताराम चतुर्वेदी, अध्यापक त्रिलोचन पंत व अन्य से काफी कुछ जानकारी हुई.

महामना के बारे में पहली बार मुङो उनके निधन के अवसर पर पता चला. यह वर्ष 1946 की बात है. गोरखपुर में स्कूल में पढ़ाई के दौरान खबर मिली कि वह नहीं रहे. स्कूल में शोक सभा हुई.

गणित के एक अध्यापक ने महामना के संबंध में बताना शुरू किया. दो-तीन वाक्य बोलते ही वह रोने लगे. जब वहां पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ तो उनके बारे में उनके नजदीकी लोगों से काफी कुछ पता चला. विश्वविद्यालय को चलाने की उनकी शैली उनके जीवन के महत्वपूर्ण बिंदु को दर्शाती है. महामना आजीवन राजनीति में सक्रिय रहे, लेकिन शिक्षा जगत के साथ भी वह समान रूप से जुड़े रहे.

एक बहुत ही विख्यात प्रसंग से भी इसकी पुष्टि हो जाती है. असहयोग आंदोलन के वक्त गांधी जी ने नारा दिया था, ‘एजुकेशन कैन वेट बट फ्रीडम कैन नॉट’. लेकिन मालवीय जी ने तत्काल ही इसका जवाब दिया था, ‘फ्रीडम कैन वेट बट एजुकेशन कैन नॉट’. उनकी नजर में शिक्षा की वरीयता सर्वोच्च थी.

भले ही ‘आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसे नारों से देश गूंज रहा था, इसके साथ ही वह शिक्षा का बिगुल भी बजाना नहीं भूल रहे थे. उनके अनुसार आजादी के लिए शिक्षा अत्यंत जरूरी है. गुलाम देश में उनके लिए पत्रकारिता भी व्यवसाय नहीं बल्कि मिशन के रूप में थी.

महामना का जन्म विपन्न परिवार में हुआ था. इसलिए कायदे कानून को दरकिनार करके वह कई बार शिक्षा को वरीयता देते थे. कई विद्यार्थी परीक्षा का शुल्क माफ कराने के लिए उनके पास पहुंचते थे. परीक्षा के बाद या नौकरी मिलने के बाद शुल्क चुका देने का वादा करते थे. महामना ने हमेशा ही ऐसे विद्यार्थियों की मदद की. उस वक्त विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डॉ गुटरू हुआ करते थे. वह इन विद्यार्थियों के फॉर्म पर पंडितजी के माफीनामे के हस्ताक्षर देख कर उनके बंगले में पहुंच जाते थे. वह कहते थे, ‘ आप इतने बड़े वकील हैं, कानून की पेंचीदगियों को भली भांति जानते हैं, क्या कोई परीक्षा देने के बाद पैसे लौटाने आयेगा. आप क्यों सभी की फीस माफ कर देते हैं’. इस पर महामना कहते थे, ‘ तुम रजिस्ट्रार हो, तुम्हें गरीबी क्या होती है यह नहीं मालूम. मुङो मालूम है.

इसके अलावा मैं केवल उन विद्यार्थियों की फीस माफ करता हूं जो लौटा देने का वादा करते हैं’. महामना के संबंध में एक प्रसंग जानने पर उनके व्यक्तित्व का भली भांति अंदाजा हो जाता है. विश्वविद्यालय का बंगला बनने से पहले वह बाबू शिव प्रसाद गुप्त के घर पर रहते थे.

बंगला बनने पर जब वहां से विदा होने का वक्त आया तो बाबू शिव प्रसाद उन्हें अपने घर से जाने नहीं देना चाहते थे. काफी समझाने पर वह तैयार हुए लेकिन यह शर्त रख दी कि उनका रोज का खाना उनके घर से ही जायेगा. महामना इसके लिए राजी हो गये.

एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूंगा. विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहने के दौरान वह हास्टल में कई बार औचक निरीक्षण करने पहुंच जाते थे. किसी के भी कक्ष का दरवाजा खटखटा कर घुस जाते थे और विद्यार्थियों से बातचीत करने लगते थे.

उसकी समस्या, उसके परिवार, उसके खाने-पीने उसके स्वास्थ्य के संबंध में जानकारी लेते थे. उस दौरान दो-दो विद्यार्थियों के लिए एक कमरा आवंटित होता था. एक दिन वह अपने बेटे गोविंद मालवीय के कमरे में पहुंच गये. उन्होंने देखा कि उनके बेटे के लिए समूचा एक कक्ष आवंटित है.

वह तत्काल वार्डन के पास पहुंचे और पूछा कि उनके बेटे के लिए एक कक्ष क्यों दिया गया है. इस पर वार्डन ने मजाक के लहजे में कहा कि यह उनके कार्यक्षेत्र व अधिकार में आता है. इसमें महामना भले ही वाइस चांसलर हैं पर दखल न दें.

इसपर महामना का कहना था, ‘ठीक है, मेरा नाम मदन मोहन मालवीय है, मैं इलाहाबाद से आया हूं. यहां मेरा बेटा पढ़ता है. मैं उसे यहां से निकालने आया हूं.’ यह सुन कर वार्डन लज्जित हो गये और गोविंद मालवीय को दूसरे विद्यार्थियों की तरह अपना कक्ष दूसरे के साथ बांटना पड़ा.

महामना के करुण हृदय की जानकारी एक और घटना से हो जाती है. 1946 में जब वह मृत्यु शय्या पर पड़े थे उस वक्त देश भर के साथ बनारस में भी दंगे हो रहे थे. उन्होंने मुसलमानों के मोहल्ले, मदनपुरा में एक ट्रक भेजा. उस ट्रक को दो-दो बार पत्थरबाजी करके लौटा दिया गया.

तीसरी बार मोहल्ले के लोगों ने ट्रक की तलाशी लेने की सोची. उन्होंने देखा कि ट्रक में खाने-पीने का सामान है जो उन लोगों के लिए भेजा गया था. पंडित मदन मोहन मालवीय के सामने गांधीजी भी झुक जाते थे. लेकिन महामना ने हमेशा ही गांधीजी की अत्यंत इज्जत की.

एक बार गांधीजी ने महामना की विद्या के संबंध में उनसे तारीफ की, इसपर उन्होंने गांधीजी से कहा था, ‘आपको धर्म का मर्म मालूम है. आपके पास राम हैं’. एक कथावाचक का पुत्र होने के कारण महामना की भावना धार्मिक थी. उनका कर्म मनुष्यता था, जो कि धर्म का सार है.

(आनंद कुमार सिंह के साथ बातचीत पर आधारित)

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