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लोहिया जयंती विशेष : हिंदू बनाम हिंदू

राष्ट्र मानचित्र भर नहीं होता, वह एक जीवंत धड़कन होता है. राष्ट्र अपने भूगोल में बाद में होता है, पहले राष्ट्र का सपना होता है. जैसे दुनिया के सारे मुल्क पहले राष्ट्र नहीं थे, वैसे भारत भी कोई राष्ट्र नहीं था. राजे-महाराजे हुआ करते थे, उनकी बादशाहतें हुआ करतीं थीं लेकिन दुनिया में समता, बंधुता, […]

राष्ट्र मानचित्र भर नहीं होता, वह एक जीवंत धड़कन होता है. राष्ट्र अपने भूगोल में बाद में होता है, पहले राष्ट्र का सपना होता है. जैसे दुनिया के सारे मुल्क पहले राष्ट्र नहीं थे, वैसे भारत भी कोई राष्ट्र नहीं था. राजे-महाराजे हुआ करते थे, उनकी बादशाहतें हुआ करतीं थीं
लेकिन दुनिया में समता, बंधुता, भाईचारे के नारे के साथ सोच के नये युग ने करवट ली और लोगों ने अपनी-अपनी पहचान के अलग-अलग सूत्र तलाशे और राष्ट्र बने. ये सूत्र भाषा, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि से निकलते थे. भारतीय राष्ट्रीयता की कल्पना मुख्य तंतु धर्म था.
वह धर्म नहीं, जो लोगों को एक-दूसरे से अलगाता है, बल्कि वह धर्म जो लोगों को एक में बांधता था, वह धर्म जो सारी विविधताओं को एक में धारण करता है. किसी के लिए इस धर्म को पाने का रास्ता था अपनी रुढ़ियों से मुक्त होना तो किसी के लिए यह रास्ता था अपने धर्म के भीतर उदारता के तत्वों को रेखांकित करना. भगत सिंह और डॉ लोहिया के िवचार भी भारतीय राष्ट्रीयता के पाठ के संस्करणों के दो रूप हैं…
डॉ राममनोहर लोहिया
(23 मार्च, 1910-12 अक्तूबर, 1967)
देश के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों में गिने जानेवाले डॉ लोहिया जीवन-पर्यंत भारत में समाजवादी विचारों के अनुरूप समानता स्थापित करने के लिए संघर्षरत रहे. गांधी, नेहरू तथा जेपी के निकट सहयोगी के रूप में संघर्ष करते हुए वे कई बार जेल गये. आजाद भारत में उन्होंने गरीब और पिछड़े समाजों की समस्याओं के पक्ष में आवाज बुलंद की.
उन्हीं के मार्गदर्शन में 1967 में देश में अनेक राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई थी. उनकी रचनाएं आज भी लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के लिए प्रमुख प्रेरणास्रोत हैं.
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई है, जो पिछले पांच हजार सालों से अधिक से चल रही है और उसका अंत अभी दिखाई नहीं पड़ता. इस बात की कोशिश नहीं की गयी, जो होनी चाहिए थी, कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाये, उसे बुना जाये. लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है.
सभी धर्मों में किसी-न-किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है. लेकिन हिंदू धर्म के अलावा बाकी बंट गये, अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद, वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब भी हो गये. जबकि हिंदू धर्म में उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा लगातार चला आ रहा है. इसमें कभी एक की जीत होती है, कभी दूसरे की. खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ, लेकिन झगड़ा हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गयी है.
ईसाई, इसलाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े-विभेद हुए. कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्व इकट्ठा हो गये कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी. लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद में कट्टरता आ गयी. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुतेरे फर्क हैं, लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है.
ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है, तो इसलाम धर्म में शिया-सुन्नी का बंटवारा इतिहास से संबंधित है. इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बंट गया, उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उनका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था से उसका कोई संबंध नहीं.
हिंदू धर्म में ऐसा कोई बंटवारा नहीं हुआ. अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है. नया मत उतनी ही बार उसके एक नये हिस्से के रूप में वापस आ गया है. इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और परिभाषित नहीं हुए, सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ.
हिंदू धर्म नये मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है, जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का एक अजीब आवरण डाल देता है, जैसी एकता कैथोलिक संगठनों ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है. इस तरह हिंदू धर्म में जहां एक ओर कट्टरता और अंधविश्वास का घर है, वहीं नयी-नयी खोजों की व्यवस्था भी है.
हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टिभेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है.
चार बड़े और ठोस सवालों- वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के बारे में हिंदू धर्म उदारवाद और कट्टरता का रुख बारीबारी से लेता रहा है.
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी, क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं.
तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनायेगा, ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके. करीब दो सौ वर्ष पहले, पनीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान पर अंगरेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदारसे इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊंची जमीन पर तम्बू लगाना चाहता था.
करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे. कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी, हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालांकि गैर हिंदुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता.
प्राचीनकाल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए. एक पूरे उपनिषद में वर्णव्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खतम करने की कोशिश की गयी है. हिंदुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण-व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए- एक आलोचना का काल और दूसरा निंदा का.
इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल, वर्ण-व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए. लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खतम नहीं होते. कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है. कट्टरपंथी और उदारवादी, वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है. इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्मत नहीं कि वे मुखर हो सकें. लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है. अगर जन्मना वर्णों की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है.
अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते, तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्क बुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है. व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गये हैं, लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं. इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो.
कट्टरपंथियों ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है. उनके उद्देश्य हमेशा संदिग्ध नहीं रहे. उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए. मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता, जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो. जब भी भारत में एकता या खुशहाली आयी, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था. हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है.
मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल, जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आयी, जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था.
जब तक हिंदुओं के दिमाग में वर्णभेद बिल्कुल ही खतम नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या संपत्ति और व्यवस्था के संबंध को तोड़ा नहीं जाता, तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी. अन्य धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बंधे हुए नियमों का धर्म नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है, और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध कभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आये हैं, जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी.
(डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा जुलाई, 1950 में लिखी पुस्तिका का संपादित अंश)

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