– पुष्परंजन –
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
वर्ष 2013 समाप्त होने के कगार पर है. साल के अंत में अगर हम पीछे मुड़ कर देखें, तो पड़ोसियों के साथ रिश्तों के मामले में यह साल उतार-चढ़ाव भरा ही कहा जा सकता है. इस साल जहां पाकिस्तान और नेपाल में शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव संपन्न होने के कारण भारत ने थोड़ी राहत की सांस ली, वहीं चीन और पाकिस्तान की सीमा पर किसी न किसी वजह से पूरे वर्ष तनाव का माहौल बना रहा. जहां एक तरफ बांग्लादेश में जारी उथल-पुथल ने भारत की चिंताएं बढ़ायीं, वहीं तमिलों के मानवाधिकार के मुद्दे पर श्रीलंका के साथ हमारे संबंध भी दुविधा भरे रहे.
पड़ोसियों के साथ संबंध के स्तर पर कैसा रहा यह साल और अगले साल के लिए यह कैसी उम्मीदें देकर जा रहा है, विस्तार से बता रहा है आज का नॉलेज..
साल 2013 भारत के लिए चीन, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव जैसे पड़ोसियों से तनाव वाला रहा है. जिन पड़ोसी देशों से भारत का पंगा नहीं हुआ, वहां भी शांति नहीं थी. इनमें बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार प्रमुख हैं.
2014 में क्या हम पड़ोसियों से शांति की उम्मीद करें? उम्मीद तो अमेरिका से भी है कि देवयानी मामले को सुलझा कर वह भारत से संबंध ठीक करे. भारत में आम चुनाव एक बड़ा राजनीतिक परिदृश्य होगा, लेकिन 2014 में बांग्लादेश, अफगानिस्तान, थाईलैंड जैसे देश भी चुनावी बदलाव के साथ हमारे समक्ष होंगे. थाईलैंड में विपक्ष का बस चले तो आज ही आम चुनाव करा ले.
वहां 2 फरवरी को आम चुनाव है, लेकिन मुख्य विपक्षी ‘डेमोक्रेटिक पार्टी’ सड़क पर है, और चाहती है कि प्रधानमंत्री यिंगलक शिनवात्र इस्तीफा दें, अंतरिम सरकार देश की बिगड़ी व्यवस्था सुधारे, फिर चुनाव हो.
2011 के आम चुनाव में यिंगलक की फेऊ थाई पार्टी विजयी हुई थी, लेकिन आरोप है कि उनके भाई थाकसिन शिनवात्र पर्दे के पीछे से सरकार को नियंत्रित कर रहे थे. पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन पर भ्रष्टाचार का आरोप है, और इस समय वे देश से बाहर निर्वासित हैं.
नेपाल में एक माह बाद भी सरकार नहीं
नेपाल में 19 नवंबर, 2013 को आम चुनाव के लिए लोगों ने मतदान किया था. एक माह बाद भी सरकार का गठन न होना यह बताता है कि वहां नेता अपनी जिम्मेवारी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति कितने लापरवाह हैं. वहां सरकार बनने की उम्मीद नये साल में ही की जा सकती है.
वहां विभिन्न पार्टियों के बीच छलफल (विमर्श) चल रहा है. नेपाली मतदाताओं ने माओवादियों की ही नहीं, राजावादी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (नेपाल) की गलतफहमी भी दूर कर दी थी. राप्रपा-नेपाल ने हिंदूवाद जगाने के लिए ‘एउटा वोट दाई लाई, एउटा वोट गाई लाई’( एक वोट भाई को-एक वोट गाय को) का नारा दिया था, लेकिन मतदाताओं ने बता दिया कि चाहे गाय की पूंछ पकड़ लो, आतातायी राजतंत्र की वापसी किसी भी कीमत पर नहीं होगी.
अभी भूतपूर्व नरेश ज्ञानेंद्र भारत में हैं. वह चाहते हैं कि सत्ता में भागीदारी के वास्ते भारत राप्रपा-नेपाल की मदद करे. मतदाताओं ने नेपाली कांग्रेस और नेकपा-एमाले पर भरोसा इसलिए किया कि ये दोनों पार्टियां मिल कर नया संविधान बनायेंगी. सबसे बड़ा सवाल देश की शांति और माओवादी नेताओं के भविष्य को लेकर है.
विपक्ष के रूप में काम करने के लिए माओवादी मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं. माओवादियों का एक धड़ा, जो जून 2013 में प्रचंड से अलग हो गया था, और जिसका मोहन वैद्य किरण नेतृत्व कर रहे थे, 33 पार्टियों के साथ चुनाव का बहिष्कार कर चुका है. चुनाव से बाहर रहे ये लोग क्या 2014 में सरकार चलने देंगे? अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष यह एक बड़ा सवाल है.
भारत-चीन संबंध

23 अक्तूबर, 2013 को भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चीन में थे. चीन के संदर्भ में देश की जनता पंचशील की तरह पांच प्रमुख इच्छाएं पूरी होते देखना चाहती है. पहला, अरुणाचल से अक्साई चीन तक सीमा विवाद बराबर के लिए समाप्त हो. दूसरा, चीन नत्थी वीजा जारी करना बंद करे.
तीसरा, भारत के विरुद्ध चीन, पाकिस्तान और दूसरे पड़ोसियों को उकसाये नहीं. चौथा, कश्मीर वाले इलाके में चीन कोई निर्माण न करे. और पाचवां, तिब्बत से निकली ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों का प्रवाह चीन न मोडे. हम पूरे यकीन से नहीं कह सकते कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, चीन से समझौते में भारतीय जनमानस की अपेक्षाएं पूरी कर पाये हैं.
भारतीय विदेश मंत्रालय चीन से सीमा सुरक्षा समझौते को एक बड़ी उपलब्धि मानता है. अब चार नहीं, छह स्थानों पर दोनों देशों की सेनाएं सीमा बैठकें करेंगी व हॉट लाइन से संपर्क में रहेंगी. सीमा आर-पार की नदियों की व्यवस्था समझने, रोड ट्रांस्पोर्ट और हाइवे पर दोनों देशों ने समझौता किया है.
भारत में पावर इक्विपमेंट सर्विस सेंटर बनाने, नालंदा विश्वविद्यालय परियोजना में सहयोग करने पर भी सहमति हुई है. दिल्ली-पेइचिंग, बंगलुरू-चेंगदू, कोलकाता-कन्मिंग जैसे शहर ‘सिस्टर सिटी’ वाले संबंध स्थापित करेंगे, और 2013 से 2015 के बीच दोनों देश सांस्कृतिक आदान-प्रदान करेंगे.
2013 का दो तिहाई समय भारत-चीन के बीच सीमा पर तनाव और उसे सुलझाने में निकल गया. 2014 में क्या भारत-चीन संबंध मजबूती की दिशा में बढ़ेंगे? अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से यह एक बड़ा सवाल है.
बांग्लादेश में चुनाव

बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार की अवधि 8 जनवरी, 2014 को समाप्त हो रही है. प्रमुख विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की नेता खालिदा जिया को सब्र नहीं है कि मार्च 2014 तक संसदीय चुनाव का इंतजार करें. वे चाहती हैं कि किसी तरह से 18 दलों का ‘महाजोट’ (ग्रांड अलायंस), जिसमें सत्तारूढ़ बांग्लादेश अवामी लीग, जातीय पार्टी, जातीयो समाजतांत्रिक दल, वर्कर्स पार्टी, लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी शामिल हैं, बिखर जाये.
2008 में बने इस ‘ग्रांड अलायंस’ को ‘लेफ्टिस्ट-इस्लामिस्ट गठबंधन’ भी कहते हैं, जिसमें इसलाम को माननेवाले और वामपंथ में विश्वास करनेवाले साथ-साथ चल रहे हैं. जनरल इरशाद कुछ अजीब सी राजनीतिक कशमकश के शिकार दिख रहे हैं. तीन दिसंबर को उन्होंने और उनकी पार्टी के 261 उम्मीदवारों ने चुनाव के लिए पर्चा भरा था.
तब अफवाह उड़ी थी कि चुनाव लड़ने के लिए इरशाद एक हजार करोड़ टका शेख हसीना से ले रहे हैं. लेकिन एक दिन बाद ही उन्होंने पत्रकारों को बुला कर कहा कि हमारी जातीय पार्टी चुनाव लड़ने नहीं जा रही है.
इरशाद ने कहा, ‘मैं बहुत जल्द अपने फैसले बदल लेता हूं, लेकिन आप सब समझिए कि ऐसा मैं क्यों करता हूं. अभी बांग्लादेश में निष्पक्ष चुनाव का माहौल नहीं है, गर्भवती महिलाएं जलायी जा रही हैं और यहां बच्चे सुरक्षित नहीं हैं.’ सबसे बड़ा सवाल है कि बांग्लादेश में पिछले पौने पांच वर्षो से गठबंधन सरकार में जातीय पार्टी है, तब जनरल इरशाद को औरतों-बच्चों पर जुल्म क्यों नहीं दिख रहा था? सत्ता के गलियारे संकेत दे रहे हैं कि उनकी नाराजगी पैसे को लेकर है.
वे पार्टी के अकाउंट में एक हजार करोड़ टका का ट्रांस्फर चाहते थे, जो समय से पहले नहीं हो रहा था. भारत का जनरल इरशाद में दिलचस्पी की वजह उनका ‘सेक्यूलर’ होना बताया जाता है. नयी दिल्ली को लगता है कि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की नेता खालिदा जिया यदि जमात-ए-इस्लामी के साथ गठजोड़ कर सत्ता में आ जाती हैं, तो इससे कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलेगा, जो भारत के हित में नहीं है.
इस कारण जनरल इरशाद से नयी दिल्ली में कई राउंड की बैठकें हो चुकी हैं, जिसमें उन्हें समझाने की चेष्टा की गयी कि उनकी जातीय पार्टी का सत्ता में आना क्यों जरूरी है. 2013 बांग्लादेश के लिए बुरा गुजरा है.
मीरपुर का कसाई के नाम से कुख्यात अब्दुल कादिर मुल्ला को फांसी पर लटकाने के बाद से बांग्लादेश लगातार हिंसा और हड़ताल की चपेट में है. 1971 नरसंहार के मुजरिमों को मौत की सजा ने जमात-ए-इस्लामी को पूरा अवसर दिया है कि वह कट्टरपंथियों को उकसाता रहे. 2004 के चुनाव में बांग्लादेश में जमात जैसे तत्वों को रोकने का एजेंडा भारत के पास होना चाहिए.
भारत-पाक संबंध

साल 2013 भारत-पाक संबंधों के लिहाज से अच्छे अनुभव वाला साल नहीं रहा. साल के शुरू में मेंढर सीमा में घुस कर एक भारतीय सैनिक का सिर काट ले जाना, और दूसरे को टार्चर करके मारना किसी राष्ट्र की अस्मिता से खिलवाड़ करना ही था, जिसे लेकर पूरा देश आक्रोश से भर गया था.
तब हम सोचते थे कि मेंढर में जो कुछ पाक सेना ने किया, उसके लिए शायद तब के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी या प्रधानमंत्री रजा परवेज अशरफ की हामी रही होगी, या फिर पाकिस्तानी सेना के कुछ जनरल भारत से ठीक होते रिश्ते को बिगाड़ने की कार्रवाई कर रहे हैं.
लेकिन पाकिस्तान में निजाम बदलने के बाद भी सीमा पर उकसानेवाली करतूतें नहीं रुकीं. नवाज शरीफ के सत्ता में आने के बाद नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम के उलंघन में और भी तेजी आयी. शरीफ ने कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए शराफत की सारी हदें पार कर ली.
अक्तूबर 2013 तक भारत के 24 सैनिक शहीद हो चुके थे, दूसरी ओर पाकिस्तान के 20 सैनिक हलाक हुए थे. सीमा पर उलंघन की कार्रवाई में दोनों ओर के दर्जनों नागरिक मारे गये. 20 दिसंबर, 2013 को जम्मू जिले में ‘एलओसी’ पर पाकिस्तान की ओर से फायरिंग कर यह संदेश दिया गया कि हम मानेंगे नहीं. जबकि चार दिन बाद, यानी 24 दिसंबर को दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशंस की बैठक होनी है.
14 साल बाद 24 दिसंबर, 2013 को वाघा बॉर्डर पर भारत की ओर से डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया और उनके पाकिस्तानी समकक्ष मेजर जनरल अमीर रियाज समीक्षा बैठक करने जा रहे हैं. यह बैठक मनमोहन सिंह की पाकिस्तान यात्रा से पहले का कदम है, जिसके लिए नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ 12 दिसंबर को आमंत्रण देने नयी दिल्ली आये थे.
शहबाज शरीफ पाकिस्तान वाले पंजाब के मुख्यमंत्री हैं. क्या मनमोहन सिंह चुनाव से पहले पाकिस्तान यात्रा पर जा सकेंगे? इस सवाल का उत्तर तभी दिया जा सकता है, जब प्रधानमंत्री कार्यालय उनकी यात्रा की हरी बत्ती जलाये. 2014 में भारत-पाक संबंधों के पटरी पर आने की उम्मीद वे तमाम लोग कर रहे हैं, जो ‘टू-ट्रैक डिप्लोमेसी’ में दोनों तरफ से लगे हुए हैं.
श्रीलंका से बिगड़ते संबंध और पाकिस्तान
गुजरे रविवार को पाकिस्तानी संसद के स्पीकर सरदार अय्याज सादिक श्रीलंका की मेहमाननवाजी का लुत्फ उठा रहे थे. इस अवसर पर सादिक ने श्रीलंका की खूब प्रशंसा की, और कहा कि उसने अपनी भूमि से आतंकवाद को समाप्त कर दिया. पाकिस्तान को चाहिए कि अपने यहां भी आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए महिंदा राजपक्षे की विशेषज्ञता का लाभ उठाये.
आतंकवाद मिटाने में ‘एक्सपर्ट’ श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे तमिलों के नरसंहार की लीपापोती के लिए ऐसे बयान जुटा रहे हैं. दूसरी ओर पाकिस्तान के नेता बेशर्मी से यह बयान दे रहे हैं, ताकि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जो नरसंहार उन्होंने किया था, वह सही ठहराया जा सके. पाकिस्तान, भारत-श्रीलंका के बीच विपरीत संबंधों का जम कर लाभ उठा रहा है.
2013 में पाकिस्तान की पूरी ‘एनर्जी’ श्रीलंका के सैनिक अफसरों को अपने यहां ट्रेनिंग दिलाने में लगी रही. महिंदा राजपक्षे अब भी भारत के विरुद्ध आड़े-तिरछे चल रहे हैं. उन्होंने पिछले शनिवार को तमिल बहुल नॉर्दर्न प्रोविंस के मुख्यमंत्री के विघ्नेश्वरन से कहा कि वे बाहरी देश (भारत) की मदद न लें. महिंदा चाहे जो कर लें, लेकिन श्रीलंका की तमिल आबादी उन्हें माफ नहीं करनेवाली. इसका सुबूत सितंबर 2013 के प्रांतीय चुनाव में उन्हें मिल चुका है.
श्रीलंका में नौ प्रांत हैं, जिनमें से तीन प्रांतों सेंट्रल, नार्थ-वेस्टर्न और नॉर्दर्न प्रोविंस में मतदान हुआ था. उस मतदान में तीन में से दो प्रांतों सेंट्रल और नार्थ वेस्टर्न में राजपक्षे की पार्टी ‘यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस’ को जीत हासिल हुई है, लेकिन राजपक्षे जीत कर भी हारे हुए लगते हैं.
तमिल बहुल नॉर्दर्न प्रोविंस में अगर राजपक्षे की पार्टी जीतती, तो पूरी दुनिया के समक्ष यह साबित करना आसान होता कि तमिल नेताओं का कोई जनाधार नहीं है, और अलगाववादियों का संहार करके राजपक्षे सरकार ने मानवाधिकार हनन का काम नहीं किया है.
राजपक्षे अगले दो साल तक अपनी कुर्सी के लिए निश्चिंत रहेंगे, क्योंकि श्रीलंका में आम चुनाव 2016 में होगा. संभव है 2014 में नयी संसद के गठन के बाद भारत, श्रीलंका के बारे में रणनीतिक बदलाव करे. तब तक यथास्थिति बनाये रखने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता. 2014 में श्रीलंका के खिलाफ जो पार्टियां ललकार भरी आवाज उठायेंगी, उनमें द्रमुक, ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक, कांग्रेस सभी शामिल होंगी. दक्षिण भारत में 2014 का चुनाव अनोखा इस मायने में होगा, क्योंकि उसके मुद्दे समुद्र पार श्रीलंका के ‘तमिल लैंड’ को छूते हुए गुजरेंगे.
अफगानिस्तान में अमेरिका विरोध
भारतीय कूटनीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती अफगानिस्तान मामले में होने जा रही है. राजनयिक देवयानी खोबरागड़े वाले मुद्दे को लेकर अमेरिका से भारत की जिस तरह से ठन गयी, वह अप्रत्याशित था. इसकी काली छाया भारत-अफगान-अमेरिका संबंधों पर दिखेगी.
2014 में अमेरिका की भारत से अपेक्षा थी कि अफगानिस्तान में नाटो के जो काम अधूरे रह गये थे, भारत उसे पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ेगा. यह सारा समीकरण एक झटके में बदल गया दिखता है. करजई पहले से अमेरिका की मुखालिफत कर रहे थे, जिन्हें समझाने के लिए दिल्ली की मदद ली जा रही थी. हामिद करजई ने हामी भरा ली थी कि 2014 में भारत, अफगान सैनिकों को ट्रेनिंग की रफ्तार बढ़ा देगा.
जुलाई 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर मानव बम के हमले और सितंबर 2011 में भारत के मित्र और पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या कर दी गयी. ये दो ऐसे बड़े कारण हैं, जो भारत को तालिबान से सीधा भिड़ने की सलाह नहीं देते. मई 2012 में भारत-अफगानिस्तान के बीच सामरिक समझौता हुआ था.
अफगान राष्ट्रपति करजई ने तब कहा था कि भारत हमारा महान मित्र है, और पाकिस्तान जुड़वां भाई. इस ‘जुड़वें भाई’ के घर में तालिबान-अल कायदा नेता छिपे हुए हैं. 2014 के आम चुनाव में अफगान संसद ‘लोया जिरगा’ की चाबी तालिबान के हाथों में सौंपी जाये, इसकी सौदेबाजी पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में हो रही है.
करजई ने दो टुक कह दिया था कि चुनाव बाद नाटो और अमेरिकी टुकड़ी को अफगानिस्तान में टिकने की अनुमति लोया जिरगा ही दे पायेगी. अफगानिस्तान नेतृत्व इस पक्ष में नहीं है कि ‘उभयपक्षीय सुरक्षा समझौते’ के बाद अमेरिकी सैनिक दस साल और उनके देश में टिके रहें. इसलिए करजई ने कहा कि विशेष परिस्थिति में ही अमेरिकी सैनिकों को अफगान आने देने की अनुमति होनी चाहिए.
इस समझौते से पहले ग्वांतानामों में कैद 19 अफगान नागरिकों को छोड़े जाने की शर्त लोया जिरगा ने रखी है. 2013 के आखिरी समय में अमेरिका विरोधी गर्म हवा दक्षिण एशिया की जमीन से उठने लगी है. अब देखना यह है कि इसके दूरगामी नतीजे क्या निकलेंगे?
कॉमनवेल्थ शिखर सम्मेलन की किरकिरी
श्रीलंका के कारण कॉमनवेल्थ शिखर सम्मेलन की जो किरकिरी हुई, उसे दुनिया याद रखेगी. 15 नवंबर, 2013 को राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन में आये नेताओं ने स्वीकार किया कि कोलंबो बैठक सबसे कठिन दौर से गुजरा है, क्योंकि सभी नेता बिल्ली को घंटी बांधने से कतरा रहे थे.
समापन समारोह में ऐसा कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ, जिसमें श्रीलंका में हुए मानवाधिकार हनन को लेकर उसकी जवाबदेही तय करता हो. ‘विकास दर बढ़ाओ, गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ इस शो का समापन हो गया. उस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने कहा था कि श्रीलंका मानवाधिकार हनन की जांच रिपोर्ट मार्च 2014 तक नहीं पेश करता, तो हम इस मामले को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन, ‘यूएनएचआरसी’ में दोबारा से उठायेंगे और संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में पूरी जांच करायेंगे.
लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने जिस तरह से कैमरून को तुर्की ब तुर्की जवाब दिया है, उससे साफ है कि बाकी के बावन देश अगले दो साल ऐसे अध्यक्ष को ढोने को विवश हैं, जो खम ठोक कर कहेगा कि हमने किया है मानवाधिकार का हनन, कर लो जो करना है. मान कर चलना चाहिए कि राष्ट्रमंडल का अगला दो साल श्रीलंका की मुंहजोरी देखते गुजरेगा, जब तक कि 2015 में माल्टा इसकी मेजबानी नहीं कर लेता.
साल 2013 और हमारा पड़ोस
1. चीन : चीन में 2012 के अंत में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद 2013 में भारत के साथ रिश्ते उतार-चढ़ाव भरे रहे. सीमा पर तनाव बरकरार रहा. लद्दाख सेक्टर में चीन दिखाता रखा धौंस.
2. पाकिस्तान : पाकिस्तान में पहली दफा शांतिपूर्ण तरीके से लोकतांत्रिक सत्ता परिवर्तन. पहली बार किसी लोकतांत्रिक सरकार ने पूरा किया अपना कार्यकाल. नवाज शरीफ बने तीसरी बार प्रधानमंत्री. भारत के साथ सीमा पर बना रहा तनाव का माहौल.
3. नेपाल : नेपाल में आखिरकार संपन्न हुए संविधान सभा के चुनाव. गौरतलब है कि कई बार कार्यकाल बढ़ाने के बाद भी पिछली संविधान सभा संविधान का एक अक्षर भी नहीं लिख पायी.
4. बांग्लादेश : उबाल पर देश. प्रमुख विपक्षी पार्टी बीएनपी और जमात-ए-इसलामी के नेतृत्व में विपक्ष सड़कों पर.
5. श्रीलंका : कॉमनवेल्थ बैठक में प्रधानमंत्री के शिरकत करने के सवाल पर श्रीलंका के साथ रिश्तों में तनाव