देश को आगे ले जाना चाहते हैं दागदार अतीत व बेहतर आर्थिक रिकॉर्डवाले मोदी
अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने अपने दिसंबर अंक में नरेंद्र मोदी पर एक टिप्पणी प्रकाशित की है. इसमें मोदी की कमियों के साथ-साथ उनकी खूबियों को भी बताया गया है.
नयी दिल्ली : भाजपा ने लगभग दस करोड़ आबादी वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनावों में जोरदार जीत दर्ज की. छत्तीसगढ़ में भी उसे साधारण बहुमत हासिल हुआ और दिल्ली में भी सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत प्राप्त करने में सफल रही. गुजरात के मुख्यमंत्री व भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की एक जबरदस्त प्रचारक के साथ ही उनकी पार्टी के भीतर और बाहर भी स्वीकार्यता बढ़ती दिखी. इन विधानसभा चुनाव परिणामों से पहले भी आगामी आम चुनाव के बाद उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना बेहतर थी. अब तो इस संभावना को पहले से कहीं अधिक बल मिला है.
भारत में खासकर उत्तर के शहरी व मध्यम वर्ग कांग्रेस के शासन से ऊब चुका है. बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी की गंभीर संकट और आर्थिक वृद्धि दर का पांच फीसदी से कम होना पूरे अर्थव्यवस्था की धुंधली तसवीर पेश करती है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेअसर हैं, राहुल गांधी भी, जो कांग्रेस के उभरते नेता हैं, लोगों को आकर्षित करने में असफल हैं. रैलियों में मोदी अपने प्रतिद्वंद्वी पर पूर्व प्रधानमंत्रियों के पुत्र, पोते व परपोते को शहजादे शब्द से संबोधित कर तीखा प्रहार करते हैं.
रैलियों में आये लोग इस बात पर खूब तालियां बजाते हैं. सर्वेक्षण, जिस पर कांग्रेस पाबंदी लगाना चाहती है, दर्शाता है कि मोदी देश के सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं. मोदी को लोग आंधी के तौर पर देख रहे हैं. राज्य का शासन चलाना प्रधानमंत्री बनने की बैतरणी को पार करने का साधन नहीं है, लेकिन मोदी ने तीन तरीकों से इसे साध लिया है.
राष्ट्रीय मंच पर उन्होंने खुद को राष्ट्रवादी हिंदू की मजबूत आवाज के तौर पर स्थापित किया. उनके कार्यकाल में गुजरात का तेज विकास और उनकी उद्योग समर्थक छवि के कारण धनाढ्य मुसलिमों के बीच भी समर्थन हासिल हुआ है.
निर्णायक, सक्रिय और ऐसा नेता, जो अपने अनुसार नौकरशाहों से काम कराने वाला है, जैसी छवि मोदी ने लोगों के बीच खुद के लिए गढ़ी है. उन्होंने राज्य की और खुद की बेहतर तरीके से मार्केटिंग की है.
हरेक दो साल के अंतराल पर निवेशकों के बड़े सम्मेलन ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का आयोजन कर खुद के प्रति प्रशंसा और ध्यान बटोरा है.
मोदी 2009 आम चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय प्रचार अभियान में शामिल थे, लेकिन उनकी बड़ी रैलियां सफल चुनावी नतीजे में तब्दील नहीं हो पायी थीं. उसके बाद उन्होंने लोगों के बीच अपनी पुरानी छवि को बदला और आज मीडिया व सोशल नेटवर्क, ट्विटर पर उनके 30 लाख प्रशंसक हैं.
प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की दौड़ में उन्होंने 86 वर्षीय आडवाणी को पीछे छोड़ दिया. आडवाणी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और सौम्य स्वभाव वाले शिवराज सिंह चौहान को पीएम पद का प्रत्याशी बनाना चाहते थे, लेकिन संघ और पार्टी ने आडवाणी के सुझाव को दरकिनार कर दिया.
मुख्यमंत्री का पद संभालने के कुछ ही दिनों के भीतर हुए दंगों की लंबी छाया से वे अब तक बाहर नहीं आ पाये हैं. गोधरा ट्रेन हादसे के बाद गुजरात के साथ ही पूरे देश में दंगा भड़क उठा. 2000 लोगों ने जान गंवायी.
नौ साल बाद ट्रेन पर हमले मामले में 31 लोगों को षड्यंत्र रचने का दोषी पाया गया था. ट्रेन पर हमले के बाद हिंदू संगठनों ने बंद का आयोजन किया. मोदी बंद के आयोजन को रोक सकते थे, वे तुरंत कफ्यरू लगाने का आदेश दे सकते थे, वे पुलिस को कार्रवाई करने को कह सकते थे.
लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. ना ही उन्होंने अर्धसैनिक बलों, ना ही सेना भेजने की बात कही. मानवाधिकार आयोग ने इसे राज्य सरकार की पूरी विफलता करार दिया. भाजपा के नेता मोदी को हटाना चाहते थे. लेकिन आडवाणी ने उनका बचाव किया. 2005 में अमेरिका ने उन्हें इस आधार पर वीजा देने पर पाबंदी लगा दिया कि दंगों के दौरान राज्य सरकार के प्रदर्शन के वे जिम्मेवार हैं.
उस दौरान भारतीय अदालतों का भी आरोप था कि गुजरात के अधिकारियों ने बाधा डाला, गलत शिकायतें दर्ज की गयीं, महत्वपूर्ण सरकारी बैठकों की जानकारी या तो गायब हैं या रखे ही नहीं गये और सबूतों को नष्ट कर दिया गया. मोदी हमेशा खुद को निदरेष बताते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच दल ने उन्हें 30 आरोपों से मुक्त कर दिया.
वे भले ही कानूनी तौर पर दोषमुक्त हो गये हों, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती. अगर उस दौरान मोदी के रवैये पर संदेह है, तो उसके बाद भी उनके कामकाज को लेकर चिंताएं हैं.
2009 तक दंगों की दोषी करार दी गयीं माया कोडनानी उनके मंत्रिमंडल में शामिल रहीं और वे इसे लेकर खुश थे. सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी तुलना आधुनिक दौर के नीरो से कर चुकी है.
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अरविंद पानगड़िया और विशाल मोरे के अध्ययन के अनुसार, दो दशक पहले गुजरात के 43 फीसदी मुसलिम गरीब थे. यह निष्कर्ष वर्ल्ड बैंक की गरीबी के मानकों पर आधारित है. अब राज्य के 11 फीसदी मुसलिम ही गरीब हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 25फीसदी का है.
इस बदलाव में केंद्र प्रायोजित जन कल्याणकारी योजनाओं की भी एक भूमिका है. पेरिस में साइंस पो के क्रिस्टोफे जेफ्रेलेट तर्क देते हुए कहते हैं, गुजरात की 10 फीसदी आबादी मुसलिमों की है और उनकी स्थिति अन्य गुजरातियों की तुलना में बेहद खराब है. अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार, गुजरात में शिशु मृत्यु दर केरल की तुलना में तीन गुना ज्यादा है और जीवन प्रत्याशा दस वर्ष कम है.
एक और अर्थशास्त्री जगदीश भगवती खंडन करते हुए कहते हैं कि मोदी के नेतृत्व में हुए तेज आर्थिक विकास से गुजरात जल्द ही सामाजिक विषमता को पाटने में सफल होगा.
यह सही है कि 20 वीं सदी के आखिरी में तेज आर्थिक विकास के कारण सांप्रदायिक दंगों में कमी आयी है. अहमदाबाद में एक मुसलिम कार डीलर जफर सरेशवाला याद करते हुए कहते हैं कि अहमदाबाद 25 सालों तक दंगों से पीड़ित रहा है और कई बार वहां 200 दिनों तक लगातार कफ्यरू लगा रहा.
पिछले 11 सालों से एक भी कफ्यरू नहीं लगा है. मोदी राज्य के हरेक गांव तक तीन फे ज बिजली, राज्य में निवेश और साफ-सुथारी नौकरशाही को लेकर गर्व महसूस करते हैं. ऐसा नहीं है कि उनकी उपलब्धियां भ्रांतियों से दूर हैं. 2011 जनगणना के अनुसार, गुजरात के लाखों घर बिजली पहुंच से दूर हैं. वर्ल्ड बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 12 शहरों की तुलना में अहमदाबाद व्यापार के लिहाज से सुलभ स्थान है. साथ ही इस रिपोर्ट में कहा गया कि अन्य चार शहर भी इस लिहाज से बेहतर हैं.
मोदी समर्थकों के लिए चिंता का विषय है कि वे एकला चलो पर विश्वास करते हैं. उनके खिलाफ राज्य मशीनरी के दुरूपयोग के भी आरोप लगते रहे हैं, जिसमें उनके नजदीकी अमित शाह का नाम आता है. दबाव के कारण 2010 में अमित शाह को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन वे अभी भी मोदी के नजदीकी बने हुए हैं.
मुख्यमंत्री की तुलना में मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर कई दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. यह भी अस्पष्ट है कि वे गंठबंधन को बनाये रखने में सफल होंगे या नहीं. लेकिन गुजरात के रिकॉर्ड से प्रतीत होता है कि वे नीतियों को लेकर लचीला रुख नहीं रखते. तेज आर्थिक विकास के प्रति उनका नजरिया स्पष्ट है और वे जन कल्याणकारी योजनाओं के बजाय आर्थिक संपन्नता को अधिक तवज्जों दे सकते हैं.
अगर अर्थव्यवस्था को एक पैमाना माना जाये, तो गुजरात में मोदी की उपलब्धि को देख कर कहा जा सकता है कि वे भारत को आगे बढ़ाने में सबसे योग्य हैं. लेकिन समस्या यह है कि राजनेताओं की इससे कहीं अधिक जिम्मेदारी होती है. लाखों समर्थकों के बावजूद, 2002 की असफलता और माफी से इनकार के कारण वे सर्वमान्य उम्मीदवार नहीं हैं.
(साभार : द इकोनोमिस्ट)