।। डॉ रहीस सिंह ।।
(विदेश मामलों के जानकार)
बांग्लादेश में सत्तानीत अवामी लीग के नेतृत्ववाली गंठबंधन सरकार के खिलाफ विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इसलामी के कार्यकर्ता सड़कों पर हैं. सरकार विरोधी हिंसक प्रदर्शनों में अब तक वहां तीस से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. बांग्लादेश एक बार फिर खुद को दोराहे पर पा रहा है. एक तरफ अराजकता और उसका फायदा उठा कर सैन्य हस्तक्षेप की चिंता है, तो दूसरी तरफ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती देते हुए चुनाव कराने और लोकप्रिय सरकार के गठन की चुनौती. बांग्लादेश के मौजूदा राजनीतिक गतिरोध और वहां के डांवाडोल लोकतांत्रिक इतिहास पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
व र्ष 1971 में बांग्लादेश के अस्तित्व में आ जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया था कि 1947 में भारत का धार्मिक आधार पर किया गया विभाजन पूरी तरह से गलत था, लेकिन अभी यह तय होना शेष था कि भाषायी संस्कृति की बुनियाद पर खड़ा हो रहा यह राष्ट्र किस तरह से समृद्ध और संपन्न होगा. लाखों निदरेषों की हत्याओं और सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं के बाद गहरे जख्म लेकर बांग्लादेश का जन्म हुआ था. लेकिन ऐसा लगता है कि बांग्लादेश की राजनीतिक और कट्टरपंथी जमातों ने इन विद्रूपताओं को न ही गौर से देखा देखा और न ही कुछ सीखा. शायद इसी का परिणाम है कि बांग्लादेश के राजनीतिक दल ही आज उसकी शांति और संस्कृति, दोनों को ही तहस-नहस कर रहे हैं. प्रश्न यह उठता है कि इस पर विराम कितनी दूर जाकर लग पायेगा अथवा लग पायेगा भी या नहीं? भारत को भी उदार, शांत एवं प्रगतिशील बांग्लादेश की जरूरत है, इसलिए यह देखना होगा कि भारत का राजनय इन स्थितियों को किस नजर से देखता और एक बेहतर बांग्लादेश बनाने में किस तरह का योगदान दे सकता है?
सामान्यतौर पर तो बांग्लादेश पूरे वर्ष भर हड़ताल और हिंसा के दौर से गुजरा, जिसके चलते बांग्लादेश की व्यवस्था व नागरिकों का जीवन पंगु हो गया. दो राजनीतिक गुटों के बीच हुई हिंसक घटनाओं में सैकड़ों लोग मारे गये और करोड़ों की क्षति पहुंची. इस बीच कई ऐसे अदालती निर्णय भी आये, जिससे माहौल और उग्र हुआ. लेकिन वर्तमान समय में राजनीतिक गतिरोध चुनाव आयोग की उस घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ है, जिसमें पांच जनवरी, 2014 को बांग्लादेश की जातीय संसद के लिए चुनाव कराने की घोषणा की गयी है. मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की मांग है कि जब तक राजनीतिक दलों के बीच आम राय नहीं बन जाती, पांच जनवरी को होने वाला चुनाव स्थगित कर दिया जाना चाहिए. इसी मांग के समर्थन में बीएनपी के नेतृत्व में 18 पार्टियों के गठबंधन ने दो दिन के बंद का आह्वान किया था, जिसमें जमकर हिंसा हुई और कई मौतें भी हुईं. इधर, मुख्य चुनाव आयुक्त काजी रकीबुद्दीन अहमद ने चुनाव की तिथि की घोषणा करते समय ही यह स्पष्ट कर दिया था कि संवैधानिक मजबूरी के चलते 24 जनवरी, 2014 से पूर्व चुनाव कराना आवश्यक है. दरअसल, अवामी लीग और बीएनपी के बीच झगड़ा इस बात को लेकर है कि चुनाव किसकी देखरेख में कराये जायें और जमात-ए-इसलामी जैसी पार्टियों द्वारा विरोध करने का कारण दूसरा है. प्रधानमंत्री शेख हसीना सर्वदलीय सरकार बनाकर चुनाव कराने का फैसला कर चुकी हैं, जबकि बीएनपी के नेतृव वाले 18 पार्टियों के गठबंधन की मांग है कि चुनावों के लिए एक ‘गैर-दलीय’ सरकार बनायी जाये और एक ‘स्वीकार्य व्यक्ति’ चुनाव पर नजर रखे. इसका मतलब यह होगा कि शेख हसीना अपने पद से त्यागपत्र दे दें, जबकि शेख हसीना इस मांग को ‘असंवैधानिक’ मानती हैं (बांग्लादेश का सुप्रीम कोर्ट भी इसे संविधान की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ बता चुका है), इसलिए उसे खारिज भी कर चुकी हैं. साथ ही, विपक्ष से चुनावी सर्वदलीय कैबिनेट में शामिल होने के लिए कहा है.
15वां संविधान संशोधन
बांग्लादेश में 1991 में जनरल इरशाद को सत्ता से बाहर करने के बाद इस बात पर विवाद छिड़ गया कि चुनाव किस तरह हों. एक समझौते के तहत बांग्लादेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया और आम चुनाव कराये गये. लेकिन यह संवैधानिक प्रावधान नहीं बना. इसलिए अवामी लीग ने मांग उठायी कि इसे एक संवैधानिक प्रावधान बना दिया जाना चाहिए, ताकि देश में चुनाव हमेशा निष्पक्ष अंतरिम सरकार के नेतृत्व में ही हो. परिणामस्वरूप, छह मार्च, 1996 को 13वां संविधान संशोधन कर ‘नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट’ (एनपीसीटीजी) को संवैधानिक फ्रेमवर्क प्रदान किया गया, जिसमें एक प्रमुख सलाहकार और 10 से अधिक सलाहकारों का प्रावधान था. यह सामूहिक रूप से राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी थी. इसी प्रावधान के तहत 1998 और 2001 के आम चुनाव संपन्न हुए थे. लेकिन बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई, 2011 को निर्णय दिया कि देश में गैर-दलीय आंतरिक सरकार व्यवस्था (नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट सिस्टम) के निर्माण के लिए किया गया संवैधानिक प्रावधान अवैध था. कोर्ट का कहना था कि देश में बिना चुनी हुई सरकार नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है. इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि अवामी लीग सरकार ने जून, 2011 में 15वां संविधान संशोधन कर (विपक्ष की गैर-मौजूदगी में ही) एनपीसीटीजी के प्रावधान को रद्द कर दिया. दरअसल, 13वें संविधान संशोधन द्वारा एनपीसीटीजी को लेकर दिक्कत तब पैदा हुई जब वर्ष 2007 में एक संविधानेत्तर ताकत सेना का समर्थन पाकर लगभग दो वर्षो तक सत्ता पर काबिज रही; जबकि 13वें संविधान संशोधन के अनुसार, केयरटेकर सरकार का कार्य नयी जातीय संसद के लिए चुनाव कराना और चुनावों पर निगरानी रखना मात्र था. अनुच्छेद 123 (3) के तहत जातीय संसद के विघटन के 90 दिनों के अंदर यह चुनाव हो जाने चाहिए और 120 दिन में चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ था. ऐसी स्थिति में सेना समर्थित गैर-दलीय सरकार वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरा है और इस संबंध में शेख हसीना की शंका वाजिब है; इसलिए इसके बजाय एक चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार का विकल्प कहीं ज्यादा बेहतर है. लेकिन राजनैतिक नफा-नुकसान को देखते हुए बेगम खालिदा जिया और उनके सहयोगी इसे स्वीकारना नहीं चाहते.
जनरलों व बेगमों के चार दशक
बांग्लादेश में इस समय फैली अराजकता और हिंसा के तात्कालिक कारण भले ही वर्तमान सरकार के नीतिगत निर्णयों या कुछ न्यायिक निर्णयों में निहित हों, लेकिन बांग्लादेश पिछले लगभग चार दशक से कभी कम तो कभी ज्यादा समस्याओं का शिकार होता ही रहा है. यदि इस कालखंड के इतिहास को देखें, तो लगभग 15 वर्षो तक सैन्य जनरलों ने बांग्लादेश पर शासन किया और फिर शेष समय में दो बेगमों ने, जिनमें से एक सैन्य शासक की पत्नी हैं और दूसरी बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री यानी खालिदा जिया और शेख हसीना वाजेद. वैसे इन दोनों शासनकालों में केवल ऊपरी खोल ही बदला, आंतरिक व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया. सैन्य शासन जनरल इरशाद के भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने के साथ समाप्त हुआ और बाद में बेगमों को भी इसी कारण से देश से निष्कासित होने तक की नौबत आ गयी.जनरल जियाउर रहमान की बेगम खालिदा जिया ने अपनी पार्टी की सरकारों के दौरान बांग्लादेश को उसी रास्ते पर चलाया, जिस पर पाकिस्तान चल रहा था और चाह रहा था. इसी का परिणाम था कि वर्ष 2006-08 के दौरान यह विचार किया गया कि आपातकाल के बगैर देश को सुधारने का कोई रास्ता ही शेष नहीं है. वास्तव में यदि देश भ्रष्टाचार के गर्त में इस कदर चला जाए कि निकलने की गुंजाइश ही न रह जाए (उल्लेखनीय है कि इस दौर में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक बांग्लादेश भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ऊपर था) तो शायद यही रास्ता उत्तम हो सकता था.
इस भ्रष्टाचार और अराजकता ने बांग्लादेश के नागरिकों को मूलभूत संसाधनों से वंचित कर दिया. बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी ने कट्टरपंथ और आतंकवाद के लिए उर्वर भूमि तैयार कर दी, जिसे बेगम खालिदा जिया जैसी नेता ने कट्टरपंथियों को संरक्षण देकर पोषित किया. खास बात यह है कि जैसे-जैसे यह देश मानव विकास पर पिछड़ता गया, वैसे-वैसे कट्टरता और आतंकवाद के करीब आता गया. यही वह दौर था जब ‘सोनार बांग्ला’ ‘आतंकवाद के उभरते हुए गढ़’ में रूपांतरित हो गया.
तालिबानीकरण की ओर
2001 से 2008 के बीच खुफिया एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने खबरें दीं कि बांग्लादेश के अंदर बहुत से ऐसे ट्रेनिंग कैंप चल रहे हैं जो उल्फा, मुसलिम युनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम, एनडीएफबी, एनसीएन (आइएम), पीएलए, केवाइकेएल के लिए सुरक्षित पनाहगाह का कार्य करते हैं. इन कैंपों में आइएसआइ और अलकायदा के सहयोग से बांग्लादेश के हरकत-उल-जिहाद, अल-इसलामी, इसलामी लिबरेशन टाइगर ऑफ बांग्लादेश, जमात-ए-इसलामी, इसलामी छात्र शिबिर, अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गेनाइजेशन आदि से जुड़े कट्टरपंथियों को प्रशिक्षण दिया गया, जिन्हें पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाववादी गतिविधियों को अंजाम देना था. वर्ष 2001 के बाद से तालिबान और अलकायदा लड़ाकांे का पाकिस्तान से बांग्लादेश की ओर आगमन हुआ, जिन्होंने बांग्लादेश के रिफ्यूजी कैंपों से रोहिंग्याओं (बर्मी मुसलिम) को अफगानिस्तान, कश्मीर और चेचन्या लड़ने के लिए भर्ती किया. हरकत-उल-जिहाद-अल-इसलामी (हूजी) ने अलकायदा से संबंध स्थापित कर बांग्लादेश को इसलामिक कट्टरपंथ के रूप में अपना मिशन बनाया. यही नहीं, बीएनपी नेता बेगम खालिदा जिया ने सत्ता तक जाने का रास्ता जमात-ए-इसलामी और इसलामिक ओकैया जोटे जैसी कट्टरपंथी पार्टी के साथ मिलकर तय किया, जिसके संबंध हूजी से रहे. बहरहाल, आज की स्थिति यह है कि दोनों प्रमुख दलों के बीच तनातनी है, जिससे न केवल राजनीतिक गतिरोध बना हुआ है, बल्कि हिंसा और अराजकता का वातावरण भी बना हुआ है. इसे दुनिया बांग्लादेश के सियासी संकट के रूप में देख रही है. मजहबी पार्टी की बढ़ रही तादाद देश की बुनियाद के लिए खतरा बनती जा रही है. ये वही पार्टियां हैं, जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान से अलग होने का विरोध किया था. हालांकि, जमात-ए-इसलामी पार्टी को, जो बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की सहयोगी है, आगामी चुनावों में हिस्सेदारी से प्रतिबंधित कर दिया गया है.
इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल द्वारा कुछ विपक्षी नेताओं पर निशाना साधने संबंधी एक अन्य मामला है, जिससे ऐसा माहौल बना है कि ट्रिब्यूनल का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ हो रहा है. 2009 में इस संस्था का गठन हुआ था, ताकि 1971 की जंग के अपराधियों को दोषी ठहराया जा सके और ठहराया भी गया है, लेकिन इससे बांग्लादेश किसी समाधान की ओर नहीं पहुंच सका. इसलिए इन स्थितियों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, तो देश को कई तरह के दबावों का सामना करना पड़ सकता है. चूंकि बांग्लादेश भारत का पड़ोसी है, इसलिए बांग्लादेश की दिशाहीनता भारत पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है.