
लेखकों के विरोध के स्वर सत्ता के लिए असुविधाजनक तो होते ही हैं
इस साल हिंदी साहित्य रचनाओं से ज़्यादा भाषा और साहित्यकारों के तेवर के लिए चर्चा में रहा.
लेखकों की हत्या, अपमान और असहनशीलता के बीच हिंदी साहित्य अपने सच्चे कथ्य की तलाश में दिखा.
अरसे बाद हिंदी में यह अहसास दिखा कि विरोध, विरोध करने की आज़ादी होना रचनात्मकता की ज़रूरी शर्त है और इस पर सवाल खड़ा होते देख आमतौर पर निष्क्रिय और अपनी ही राजनीति में उलझे साहित्यकार मुखर हो जाते हैं.

एक बार फिर समझ आया कि कठिन हालात में विरोध के स्वर सशक्त होने लगते हैं. उनकी कितनी भी आलोचना की जाए, वे अंततः सत्ता के लिए असुविधाजनक तो होते ही हैं.
सोशल मीडिया पर साहित्यिक हलचल हिंदी की नई प्रवृत्तियों में एक है. किताबों पर बाज़ार और प्रकाशक के वर्चस्व का सामना लेखक अब सोशल मीडिया से कर रहे हैं.
बहुत से ऐसे युवा/वरिष्ठ रचनाकार हैं, जिन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी कहानी-कविताएं पोस्ट कीं. असहिष्णुता पर न सिर्फ़ अच्छी/बुरी रचनाएं दिखीं बल्कि कुछ पुराने कवियों को भी उद्धृत किया गया.
सत्ता और धर्मांधता के ख़िलाफ़ हिंदी में ऐसी मुखरता पिछले वर्षों में नहीं दिखी थी. एक ख़ास किस्म का ख़ुद की खिल्ली उड़ाने वाला सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है जो अतिसंवेदनशील हिंदी लेखक समाज के लिए “ताज़गी का अहसास” लिए है.

कवि वीरेन डंगवाल जिनका हाल में निधन हो गया
लेखन के अलावा पुरस्कारों पर विवाद भी चर्चा में रहा. वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल का निधन और औघड़ कवि रमाशंकर विद्रोही का गुज़रना फिर विरोध के बहुआयामी स्वरों की याद दिला गया.
बाबुशा कोहली की कविताएं नवीन भाषा प्रयोग के लिए चर्चा में रहीं तो पंकज चतुर्वेदी की कविताओं में उस कोमल संवेदनशीलता की झलक रही जो हिंदी कविताओं में या तो गुम हो रही थी या फिर नकली और खोखली लगने लगी थी.
कहानियों में हिंदी अपने प्रयोगात्मक तेवर में नज़र आई. अब फ़्लैश नरेटिव में हिंदी कहानीकार हिंदी और अंग्रेज़ी के स्वीकार्य शब्दों को गूंथकर नई भाषा गढ़ते नज़र आए.
हालांकि ऐसा नहीं कि ये कोशिश पहले नहीं हुई थी. लेकिन इसे एक स्पष्ट आकार मिलने लगा है अब.

कहानियां और उपन्यास न सिर्फ़ भाषाई स्तर पर बल्कि मानवीय संबंधों के स्तर पर भी उन नए स्वरूपों को खोज रहे हैं जिन पर या तो कभी ध्यान नहीं दिया जाता था या फिर परंपरागत मानसिकता के बोझ तले ये कहीं दब जाते थे.
अलका सरावगी का नया उपन्यास वही खास भाषा की बेबाकी और पैनापन लिए है, जो जटिल यथार्थ को लगातार सालती हुई सरलता से कह जाती है.
हिंदी में अंग्रेज़ी के पॉपुलर भारतीय लेखकों के अनूदित उपन्यास भी खूब चर्चा में रहे और बिके भी. यह अजीब बात है कि हिंदी के मूल पॉपुलर लेखन को हेय दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन अंग्रेज़ी का रद्दी पॉपुलर लेखन भी प्रतिष्ठित प्रकाशक तेज़ी से छाप रहे हैं और बेच रहे हैं.
हालांकि हिंदी प्रकाशन का नज़रिया अब बदलता दिख रहा है और गंभीर साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने भी हिंदी के पॉपुलर उपन्यास छापने की शुरुआत की है. हार्पर कॉलिंस ने सुरेंद्र मोहन पाठक के दो उपन्यासों को छापा है.
सदियों पहले भारतेंदु ने कहा था -हिंदी नई चाल में ढली. आज तकनीक, सोशल मीडिया और वैश्वीकरण हिंदी को नई चाल में ढाल रहा है.
और गुज़रा साल इस नए सुर की गमक का साक्षी रहा है.
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