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सरकार और प्रशासन की भूमिका

।। अनुज कुमार सिन्हा ।। यह सही है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, पर लोकतंत्र के नाम पर दूसरों पर हमला करने, उसे प्रताड़ित करने, तोड़-फोड़ और गुंडागर्दी करने की अनुमति हमारा कानून नहीं देता है. कानून-व्यवस्था ठीक रखने की जिम्मेवारी सरकार और प्रशासन की है. जब ये […]

।। अनुज कुमार सिन्हा ।।

यह सही है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, पर लोकतंत्र के नाम पर दूसरों पर हमला करने, उसे प्रताड़ित करने, तोड़-फोड़ और गुंडागर्दी करने की अनुमति हमारा कानून नहीं देता है. कानून-व्यवस्था ठीक रखने की जिम्मेवारी सरकार और प्रशासन की है.

जब ये दोनों चुप हो जायें, तो राज्य में अराजक स्थिति बन जाती है. यही आज हुआ. स्थानीयता के मुद्दे पर 30 नवंबर को झारखंड बंद बुलाया गया था. अपनी बात को सरकार तक पहुंचाने के लिए बंद एक हथियार है और इसका प्रयोग होता रहा है. हर दल करते रहे हैं, लेकिन बंद हिंसक न हो, आम आदमी सुरक्षित रह सके, यह देखना सरकार और प्रशासन का काम है.

जनता को सुरक्षा देना इन्हीं दोनों की जिम्मेवारी भी है. इसमें ये दोनों नाकाम रहे. दिन भर भय और आतंक का माहौल रहा. बंद समर्थकों की जमात में दर्जन भर ऐसे तत्व थे, जो अनियंत्रित थे.

जिस गाड़ी को मन किया, शीशा तोड़ा, मोटरसाइकिल में तोड़-फोड़ की, उसे पलट दिया, दुकानों-दफ्तरों में आतंक मचाया. पुलिस चुपचाप तमाशा देखती रही. बंद समर्थकों के नेताओं की नैतिक जिम्मेवारी थी कि बंद शांतिपूर्ण रहे (जैसे उन्होंने वादा किया था). लेकिन इसमें वे फेल रहे. बंद स्थानीयता के लिए था और इसका परिणाम भुगत रहे थे निर्देष-बेबस लोग. स्थानीयता सरकार नहीं बनाती और गाज गिरती है जनता पर. चौतरफा मार.

पुलिस की चुप्पी पर सवाल तो उठा है. हर दिन चौक-चौराहे पर डंडा भांजनेवाली और बहादुरी दिखानेवाली पुलिस आज मौन क्यों थी? क्या इसे चुप रहने का आदेश था? अगर था, तो किसने यह आदेश दिया था. अगर पुलिस का ऐसा रवैया रहेगा, तो पुलिस पर से लोगों का भरोसा उठ जायेगा.

पुलिस है किसलिए? लोगों को सुरक्षा देने के लिए. अगर सुरक्षा ही न दे, तो ऐसी पुलिस से जनता को क्या फायदा? पुलिस पर नेताओं-शासकों का लाख दबाव हो, पर अपनी साख बचाने का जिम्मा भी पुलिस का ही है. सत्ता तो पुलिस का इस्तेमाल करती ही है. अब यह पुलिस पर निर्भर करता है कि वह कितना इस्तेमाल होती है. खोयी साख वापस नहीं आती, इस बात का भी ख्याल करना होगा.

बंद समर्थकों के नेताओं से यह सवाल तो पूछा ही जायेगा कि जो व्यक्ति सड़क पर अपने वाहनों से जा रहा था, उसका क्या दोष था? उसकी गाड़ी का शीशा क्यों तोड़ा गया? जिसका शीशा तोड़ा गया, जिसे धक्का देकर मोटरसाइकिल से गिरा दिया गया, वह व्यक्ति तो स्थानीय नीति नहीं बना सकता है.

यह काम सरकार और विधानसभा ही कर सकती है. राहगीर, दुकानदार, ठेलेवाले, रिक्शेवाले, मजदूर, वकील, शिक्षक, नौकरी-पेशा वाले कतई जिम्मेवार नहीं हैं. पूछा तो विधायकों, मंत्रियों से जाना चाहिए कि उन्होंने स्थानीय नीति क्यों नहीं बनायी? जनता ने उन्हें रोका तो नहीं है. अर्जुन मुंडा की सरकार जिन कारणों से गिरी, उसमें एक कारण स्थानीय नीति भी था.

पांच-छह माह बीत गये. इस सरकार ने भी स्थानीय नीति बनाने में क्या पहल की है, शायद बयानबाजी के अलावा कुछ भी नहीं. जब ये नेता सत्ता में होते हैं, तो उनकी बोली-भाषा अलग होती है.

बाहर होते ही भाषा बदल जाती है. जो आज बंद करा रहे हैं या बंद को समर्थन दे रहे हैं, उनमें से कई सत्ता में रह चुके हैं. उस समय वे कहां थे, क्यों नहीं उन्होंने स्थानीय नीति बनायी. बहानेबाजी से काम नहीं चलेगा.

13 साल के झारखंड के इतिहास में क्या किसी विधायक या मंत्री ने स्थानीय नीति नहीं बनाने के विरोध में विधानसभा या मंत्री पद से इस्तीफा दिया. एक ने भी नहीं. हां, कई विधायक-मंत्री इस मामले पर लोगों की भावनाएं भड़काते रहे. बयानबाजी करते रहे. किया कुछ भी नहीं. पिछली सरकार (अर्जुन मुंडा) ने स्थानीयता के लिए एक कमेटी बनायी थी, उस कमेटी में हेमंत सोरेन और सुदेश महतो भी थे.

उस कमेटी का क्या हुआ, कोई नहीं जानता. झारखंड के नेताओं को इसका वाजिब समाधान खोजना होगा, ताकि किसी के साथ अन्याय नहीं हो, किसी का हक मारा नहीं जाये, संविधान का पालन हो. चिंतन का वक्त है. सत्ता और विपक्ष (विधायक-मंत्री) पर दबाव बनाना चाहिए न कि जनता पर. घेराव उनका होना चाहिए न कि बंद बुला कर जनता को परेशान कर. यह मामला कैबिनेट का है, विधानसभा का है. हल भी वहीं है. गेंद तो नेताओं के पाले में है.

निर्णय तो सरकार को ही लेना है, लेकिन बात-बात पर एक-दूसरे पर आरोप लगानेवाली गंठबंधन की सरकार में शायद इस मुद्दे पर सहमति नहीं बननेवाली. इसलिए इस मामले को विधानसभा/कैबिनेट की जगह सड़क पर धकेल कर नेता अपना पल्ला झाड़ ले रहे हैं.

इस पूरे प्रकरण के लिए कोई एक सरकार दोषी नहीं है. बाबूलाल मरांडी जब मुख्यमंत्री थे, यह मामला उठा था. उसके बाद अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा और अब हेमंत सोरेन की सरकार बनी.

किसी भी सरकार ने स्थानीय नीति बनाने की हिम्मत नहीं दिखायी. जोखिम नहीं लिया. हां, इस पर राजनीति जरूर की. वोट के खेल में मामलों को टालना धंधा बन गया है. तो दोष किसका?

सही है कि स्थानीय नीति नहीं बनने के कारण राज्य में बहाली बंद है. उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में स्थानीय नीति बन गयी. दोनों राज्यों में बेहतर तरीके से काम हो रहा है. वहां की सरकार ने निर्णय लिया. कोई झमेला नहीं हुआ. एक कट ऑफ डेट तय हुआ और अब वे राज्य आगे बढ़ रहे हैं. झारखंड में यह कट ऑफ डेट क्या होगा, यह तय करना सरकार का काम है.

यह काम कोई और नहीं कर सकता. लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति होनी चाहिए. झारखंड में राजनेता (इसमें हर दल के लोग शामिल हैं) चाहते तो कब की नीति बन गयी होती. इस मुद्दे पर अब राजनीति बंद होनी चाहिए. ईमानदार प्रयास करना होगा. पक्ष और विपक्ष को मिल कर इस समस्या का निदान ढूंढना होगा.

अगर प्रयास नहीं होगा, तो बंद बुलाये जाते रहेंगे और तोड़-फोड़, हिंसा होती रहेगी. प्रभावित वे होंगे, जिन्हें इससे कोई मतलब नहीं होगा. जो दैनिक मजदूर हैं, ठेलेवाले हैं, छोटे-छोटे दुकानदार हैं, उन्हें स्थानीय नीति बने या नहीं बने, फर्क नहीं पड़ता. लेकिन बंद से फर्क पड़ता है, जब परिवार को भूखे रहना पड़ता है.

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