।। डॉ रहीस सिंह ।।
(विदेश मामलों के जानकार)
-ईरान का पश्चिमी ताकतों के साथ समझौता-
ईरान का परमाणु कार्यक्रम लंबे अरसे से दुनिया की परेशानी का सबब बना हुआ था. यह एक राहत देनेवाली खबर है कि दुनिया की छह बड़ी ताकतें और ईरान, परमाणु मसले पर समझौते की राह पर चलने को तैयार हो गये हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसे ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोकने की दिशा में पहला कदम बताया है. ईरान गतिरोध की वजहों से लेकर इस समझौते तक के तमाम पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
साम्राज्यवादी शक्तियां अपने रणनीतिक खेलों की दिशा कितनी जल्दी बदल देती हैं, इसका सहज अनुमान लगाना बहुत ही मुश्किल होता है. शायद यह इसी रणनीतिक खेल का ही परिणाम है कि कुछ समय पहले तक अमेरिका ईरान के खिलाफ इस तरह से खड़ा था, मानो चूहे-बिल्ली के खेल को समाप्त करने का वक्त आ गया हो. लेकिन सितंबर के अंतिम सप्ताह में अमेरिका ‘पाप की धुरी’ (स्वयं उसी के द्वारा घोषित) के एक घटक यानी ईरान के साथ खड़ा होने के लिए बेताब दिखने लगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा से अमेरिकी राष्ट्रपति ने ईरान को परंपरागत शत्रुता भुलाकर अन्योन्याश्रित संबंधों के निर्माण का संदेश दिया. इसकी एक वजह तो ईरान में सत्ता परिवर्तन में देखी जा सकती है, क्योंकि नये राष्ट्रपति हसन रोहानी ने सत्ता में आने के 100 दिनों के अंदर ही विश्व समुदाय के लिए सकारात्मक संकेत देने शुरू कर दिये थे. ऊपरी तौर पर तो इसे संपूर्ण कारण के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन वास्तव में यह सिर्फ आधी सच्चाई है.
ईरान की तरफ अमेरिकी हाथ उस समय पहली बार मित्रता के लिए उठते दिखे, जब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने संबोधन में ईरानी राष्ट्रपति को यह संदेश दिया कि यदि उनकी सरकार ठोस कदम उठाये, तो पुरानी शत्रुता भुलाकर राजनयिक तरीकों से ही विवादों का हल निकाला जा सकता है. इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी और मुहम्मद जावेद जारिफ के साथ बातचीत हुई. इसके बाद बराक ओबामा ने फोन पर ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी से बात की. चूंकि पिछले तीस वर्षो में ऐसा पहली बार हुआ था, इसलिए यह प्रयास अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण था. बातचीत के बाद दोनों देशों के नेताओं ने सोशल मीडिया साइटों पर अपनी-अपनी टिप्पणियां लिखीं, जो इस बात के संकेत दे रही थीं कि यह कदम प्रगतिशील रहे. यहीं से खाड़ी में नये रणनीतिक समीकरणों का निर्माण शुरू हुआ, जो जेनेवा में आकर एक समझौते में परिवर्तित होता दिखे.
हालांकि, इसमें अभी भी एक विरोधाभास है, क्योंकि जहां एक तरफ ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जावेद जरीफ यह कहते दिख रहे हैं कि उनके पास यूरेनियम संवर्धित करने का अधिकार है. वे कहते हैं कि इसे खत्म नहीं किया जा सकता और वह ऐसा करना जारी रखेंगे. वहीं अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी का कहना है कि इस समझौते में यह बात नहीं है कि ईरान के पास यूरेनियम संवर्धन का अधिकार है. इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसकी आयु कितनी होगी?
पारस्परिक उपाय
सामान्य तौर पर एक दशक से अधिक समय के बाद ईरान और पश्चिम के बीच समझौते की यह प्रथम घोषणा, जिसकी जानकारी ट्विटर पर दी गयी, बहुत ही महत्वपूर्ण और उम्मीदों से भरी है. सर्वप्रथम यह जानकारी इयू की तरफ से दी गयी, जिसमें कहा गया है कि हम ‘इ 3+3 और ईरान’ एक समझौते पर पहुंच गये हैं. इसके कुछ मिनटों के बाद ही ईरान के चीफ नेवीगेटर मोहम्मद जावेद जरीफ ने भी यही बात लिखी. वार्ता के चार दिनों पश्चात ‘पी5 + 1’ समूह के प्रतिनिधि-अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, फ्रांस और जर्मनी रविवार के शुरूआती घंटों में ईरान के साथ एक समझौते पर पहुंच गये.
हालांकि, अभी (लिखे जाने तक) समझौते की अंतिम सामग्री जारी नहीं हो पायी है, लेकिन यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रमुख बैरोनेस कैथरीन एश्टन ने स्पष्ट किया है कि ये दोनों पक्षों की तरफ से कुछ ‘पारस्परिक उपाय’ हैं. उनके अनुसार इस समझौते को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) द्वारा कॉआर्डिनेट किया जायेगा. लेकिन इस पारस्परिक उपाय में मध्य-पूर्व की राजनीतिक स्थिति बहुत हद तक बाधा बनी हुई है, जिसे स्पष्ट करते हुए जॉन कैरी ने कहा भी है कि इस समझौते का उद्देश्य अपने क्षेत्र में सहयोगियों को सुरक्षित बनाना है. उल्लेखनीय है कि इजराइल ने इसे बुरा समझौता (बैड एग्रीमेंट) कहा था, जिसे मानने के लिए वह बाध्य नहीं है.
उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष अगस्त की पहली तारीख को इजराइली प्रधानमंत्री ने अपने एक बयान में कहा था कि इस मुद्दे (ईरान के परमाणु कार्यक्रम) को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का समय समाप्त हो गया है. इसके बाद इजराइली रक्षामंत्री ने बयान दिया था कि आज की स्थिति खतरनाक है. (लेकिन) ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम के साथ समझौता, भविष्य के लिए अनंतगुना (इनफाइनेटली) ज्यादा खतरनाक होग. इसलिए इजराइल का तर्क यह है कि आपको बम या बमबारी यानी ईरानी बम या इजराइली बमबारी में से किसी एक को चुनना पड़ेगा. लेकिन ‘पी5+1’ इस पर कोई न कोई समझौता चाहते थे.
दोषी रहा अहमदीनेजाद का आक्रामक रवैया
ईरान के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद का रवैया आरंभ से ही बड़ा आक्रामक रहा है; क्योंकि उनके पीछे ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला अली खमैनी का वरदहस्त था. अयातुल्ला अली खमैनी का आशीर्वाद प्राप्त होने के कारण ही अहमदीनेजाद ने किसी को भी चुनौती देने का साहस किया, फिर चाहे वह घरेलू राजनीतिक ताकत हो या बाहरी अर्थात संयुक्त राज्य अमेरिका. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति, ईरान के विपक्षी ग्रीन आंदोलन, यूरोपीय देशों के नेताओं या फिर ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड के कमांडर अथवा ईरान के रुढ़िवादी सांसद, किसी की भी परवाह नहीं की और आगे का रास्ता आक्रामकता के साथ तय करते गये. चूंकि अहमदीनेजाद स्वयं इस्लामी क्रांति की उपज थे, इसलिए उनका रवैया पश्चिमी ताकतों के प्रति कहीं अधिक प्रतिवादी रहा. अपने शासनकाल में वे न तो ईरान में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित कर पाय, न बेरोजगारी की वृद्घि (लगभग 11 प्रतिशत) रोक पाये; बल्कि उनकी नीतियों से ईरान की आबादी में डेढ़ करोड़ से ज्यादा बढ़ोतरी हो गयी. उनका नाभिकीय कार्यक्रम दुनियाभर की आलोचना का शिकार बना. हालांकि, उन्होंने 2006 में यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका राष्ट्र संस्कृति, तर्क और सभ्यता प्रधान है, उसे नाभिकीय हथियारों की जरूरत नहीं है. लेकिन कई अध्ययन और रिपोर्टे यह बता चुकी हैं कि ईरान परमाणु बम बनाने के निकट पहुंच रहा है. जनवरी, 2012 की अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) की रिपोर्ट में कहा गया था कि इस बात के भी सबूत मिले हैं कि ईरान ने हाई एक्सप्लोसिव लेंसेस विकसित कर लिये हैं. अगर परमाणु हथियार बन जाते हैं, तो उन्हें किस तरह से वह अपनी मिसाइल सहाब-3 में वार-हेड के रूप में प्रयुक्त कर सकता है, इस पर भी कार्य कर रहा है.
बदली परिस्थितियां
तेहरान परमाणु कार्यक्रम के कारण प्रतिबंधों की दर्जनों परतों से पिछले कुछ समय में ईरान पूरी तरह से आच्छादित हो चुका है और यदि यह वार्ता भी असफल हो जाती तो ईरान के लिए कहीं अधिक मुश्किलें खड़ी हो जाती. इसलिए ईरान को भी नया रास्ता तलाशने की जरूरत थी. उल्लेखनीय है कि ईरान पर लगे तेल और गैस निर्यात के प्रतिबंध के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार से बहिष्कार का असर उस पर बहुत ज्यादा हुआ. उसका तेल व्यापार बहुत कम हो गया और इससे मिलने वाला राजस्व 50 प्रतिशत तक कम हो गया. कच्चे तेल के व्यापार का सबसे बुरा समय 2012 में आया और ईरान को 30 अरब यूरो का नुकसान उठाना पड़ा. 2013 में आर्थिक स्थिति पिछले वर्ष से भी बुरी है. इसलिए ईरान को तो अब झुकना ही था. उल्लेखनीय है कि ईरान का 70 फीसदी राजस्व तेल और गैस के निर्यात से आता है, इसलिए उसके लिए तेल प्रतिबंध के नतीजे निश्चित ही गंभीर हैं. इसी का परिणाम है कि ईरानी मुद्रा का तेजी से अवमूल्यन हुआ, महंगाई बेकाबू हुई, देश में बेरोजगारी बढ़ी और समाज में युवाओं के सामने विकल्प न होने जैसी स्थितियों के पैदा होने से असंतुष्टि बढ़ी. इसलिए अब उसे अपनी परंपरागत नीतियों में बदलाव तो लाना ही था.
शिया बनाम सुन्नी संघर्ष से ईरान बना नेता
अभी तक की सूचनाओं के मुताबिक इस संघ में सुन्नी दुनिया के देश सामान्य तौर पर वैदेशिक संबंध, सुरक्षा, सैन्य व्यवस्था/ प्रतिरक्षा और आर्थिक क्षेत्र में एकजुट होकर निर्णयों को लेने तथा उन्हें क्रियान्वित कराने तक सीमित होंगे. लेकिन खाड़ी क्षेत्र में नवनिर्मित समीकरणों से ऐसा लगता है कि इसमें कुछ गौण, लेकिन अतिमहत्व के तत्व भी मौजूद हैं, जो खाड़ी क्षेत्र की राजनीति में उथल-पुथल लाने की ताकत रखते हैं. इन अतिमहत्व के गौण तत्वों में सबसे अहम अमेरिकी रणनीति का लगता है. चूंकि सऊदी नेतृत्व वाली सुन्नी अरब दुनिया को तेहरान के नेतृत्व वाली शिया दुनिया की उभरती ताकत से इस समय कुछ खतरे दिख रहे हैं, जिनसे निपटने के लिए अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी.
अमेरिका भी ईरान को अब खड़े हुए देखना नहीं चाहता, इसलिए उद्देश्य-समता के चलते सुन्नी अरब दुनिया का अमेरिकी रणनीति का हिस्से बनने के लिए तैयार होना लाजिमी है. एक बात यह भी है कि देर-सबेर शिया बम जरूर बनेगा और ऐसा होते ही तेहरान खाड़ी देशों के बीच एक निरंकुश ताकत के रूप में उभरेगा; जबकि सुन्नी दुनिया इस ताकत से वंचित होगी. ऐसे में जरूरी यह है कि ईरान को पहले ही घेर लिया जाए कि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल न हो सके. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिम तेहरान को काबू करने में सफल नहीं हो पाया. बल्कि सीरिया मामले पर, जिसके पीछे से तेहरान दबंगई से खड़ा था, अमेरिका को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. वास्तव में तेहरान ने दिखा दिया कि वह फारस की खाड़ी में एक ऐसी ताकत है, जिसे दबाकर आगे निकलने की कोशिशें इतनी आसानी से कामयाब नहीं हो सकतीं.
बहरहाल समझौता जिस सीमा में भी हुआ हो, लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि क्या ईरान में हसन रोहानी अकेले ही इसे गंतव्य तक पंहुचा सकते थे. इसमें कोई शंका नहीं कि सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह अली खमैनी का निर्णय पहले की ही तरह ईरान का आखिरी निर्णय होता है और परमाणु विवाद जैसे अहम मुद्दे पर विचारधारा में बदलाव उनकी सहमति के बगैर संभव नहीं.
कई वर्षो से अटकी पड़ी परमाणु वार्ता के लिए भी वह कई साल तक अकेले ही जिम्मेदार थे न कि उनके इशारों पर चलने वाले अहमदीनेजाद. अब ऐसा क्या हुआ है कि पुरानी परमाणु नीति को उन्होंने बदल दिया और नये राष्ट्रपति के साथ बिलकुल नयी राह पर चल पड़े हैं? सच तो यह है कि ईरान और पश्चिम के नजदीक आने से सभी खुश नहीं है, बल्कि इसके बिलकुल विपरीत इस समझौते के विरोधी बहुत हैं और हर जगह हैं, ईरान में भी. लेकिन शायद आज वक्त की मांग यही है.
पश्चिम के साथ ईरान के टकराव की वजह
दरअसल ईरान में इसलामी क्रांति के पश्चात उदारवाद का समापन हो गया, क्योंकि खमैनी का ईरान दिशा-भ्रमित हो गया था. परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी राष्ट्र ईरान के इस रवैये से कुछ भयभीत हुए, लेकिन इस दूरगामी आशंका से वे हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने इससे निपटने के उपाय तलाशने शुरू कर दिये. ईरान द्वारा अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों को बंधक बना लिये जाने की घटना ने अमेरिका और उसके मित्र देशों को कार्रवाई करने के लिए बाध्य कर दिया. सामान्य तौर पर तो अमेरिकी कार्रवाई सिर्फ आर्थिक प्रतिबंधों तक ही सीमित रही थी, लेकिन वास्तविकता यह है कि अप्रैल, 1980 में ही तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति के रक्षा सलाहकार ब्रेङोजिंस्की ने यह घोषित कर दिया था; यदि भविष्य में इराक और ईरान के बीच संघर्ष स्थानीय संघर्ष न रह सका तो अमेरिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा.
उस समय इसका सीधा अर्थ लगाया गया था कि अमेरिका इराक को ईरान से निपटने के लिए हरी झंडी दे रहा है. इसी का परिणाम था कि 1980 में सद्दाम ने दबे स्वरों में ही सही लेकिन ईरान के साथ निर्णायक संघर्ष का इरादा जाहिर कर दिया था. यही नहीं सद्दाम ने इसे अरब राष्ट्रवाद से भी जोड़कर प्रस्तुत किया था. उन्होंने कहा था कि खमैनी की इसलामी क्रांति ‘फारसी नस्लवाद’ और ‘अरबों के विरुद्ध दबी हुई घुटन’ है. दूसरी तरफ खमैनी ने सद्दाम के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का ऐलान कर दिया था. तात्पर्य यह कि ईरान यहीं से अमेरिका का दुश्मन बना हुआ है. हालांकि, बाद में सद्दाम भी उसके दुश्मन बने, जिसका परिणाम उनके खात्मे के रूप में सामने आया. लेकिन ईरान बचा रहा. 9/11 की घटना के बाद ईरान पाप की धुरी वाले देशों में से एक हो गया, जिसके बाद अमेरिका ने ईरान को घेरने की पूरी कोशिश की.