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मुश्किलें आयीं, तो मंजिलें भी बड़ी चुन लीं

।। अनुज सिन्हा ।।(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर) नवंबर को अरुणिमा सिन्हा को सुनने, मिलने का मौका मिला. जब खबर मिली कि रामकृष्ण मिशन के एक कार्यक्रम में वह रांची आयी हैं तो उन्हें अपने दफ्तर में बोलने के लिए आमंत्रित किया. साथियों के साथ उन्हें सुना. फिर एक घंटे तक उनसे बात भी हुई. अरुणिमा […]

।। अनुज सिन्हा ।।
(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)

नवंबर को अरुणिमा सिन्हा को सुनने, मिलने का मौका मिला. जब खबर मिली कि रामकृष्ण मिशन के एक कार्यक्रम में वह रांची आयी हैं तो उन्हें अपने दफ्तर में बोलने के लिए आमंत्रित किया. साथियों के साथ उन्हें सुना. फिर एक घंटे तक उनसे बात भी हुई. अरुणिमा के चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास दिखा. एक-एक वाक्य में कुछ करने, दुनिया की परवाह किये बगैर आगे बढ़ने का संदेश था. सुनने-बात करने के बाद लगा कि अगर इरादे बुलंद हों, तो दुनिया में क्या कुछ नहीं किया जा सकता. एक पैर नहीं है तो क्या हुआ, हिम्मत, जज्बा तो है. तभी तो इस लड़की ने एक पैर (दूसरा पैर कृत्रिम है) से एवरेस्ट पर चढ़ कर इतिहास रचा.

2011 की घटना है. वालीबाल की राष्ट्रीय खिलाड़ी अरुणिमा जब लखनऊ से दिल्ली जा रही थी, तो उसे ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया. उसका एक पैर कट गया था. सात घंटे तक वह रेलवे ट्रैक पर पड़ी अपने कटे पैर को देखती रही. एम्स में इलाज हुआ. कृत्रिम पैर लगा. एक बार उसे लगा कि जिंदगी खत्म हो गयी है. मध्यवर्गीय परिवार, ऊपर से लड़की है, कैसे कटेगी जिंदगी? क्या होगा भविष्य? फिर उसने तय किया कि हिम्मत हारने, कमजोर पड़ने से कुछ नहीं होगा. कुछ करके दिखाना होगा. एक पैर से वह करिश्मा दिखाना होगा, जो लोग दो पैर से भी नहीं कर पाते. अंदर की ताकत को उसने जगाया.

अरुणिमा को पता था कि आस्कर पिस्टोरियस के दोनों पैर नहीं हैं. जब वह छोटा था तभी उसके दोनों पैर घुटने के नीचे से कट गये थे. पिस्टोरियस ने हिम्मत नहीं हारी और उसने ओलिंपिक में दौड़ में मेडल जीता. वह लोहे के पैर (ब्लेड) से दौड़ता है. अरुणिमा ने तय किया कि वह भी ऐसा कर सकती है, इससे बड़ा काम कर दिखायेगी. इच्छाशक्ति का पूरा उपयोग किया और तय किया एवरेस्ट फतह करने का. यह दुनिया का सबसे कठिन कार्य है. यह और कठिन तब हो जाता है जब एक पैर कृत्रिम हो. अरुणिमा ने बछेंद्री पाल से संपर्क किया और उन्होंने अरुणिमा का उत्साह बढ़ाया. पर्वतारोहण की उनसे ट्रेनिंग ली. एवरेस्ट सामने था, आक्सीजन खत्म हो रही था, उसे मना किया गया कि आगे जाना खतरनाक है, मौत हो सकती है, लौट आओ, पर वह धुन की पक्की थी. कह दिया- कुछ नहीं होगा, जाऊंगी. यह था आत्मविश्वास. पैर कटने के दो साल के अंदर वह दुनिया की शीर्ष चोटी पर खड़ी थी और भारत का तिरंगा लहरा रही थी.

अरुणिमा के एवरेस्ट फतह करने से दुनिया के उन करोड़ों लोगों का मनोबल बढ़ा है, उत्साह बढ़ा है, जिनमें कोई शारीरिक अक्षमता है. यह भावना बढ़ी है कि कोई भी काम असंभव नहीं है. सिर्फ अपने अंदर की ताकत को पहचानना होगा. जुनून पैदा करना होगा. बाधाएं आयेंगी, आती रहें. बाधाओं को मात देना होगा. इरादे पक्के होने चाहिए. अरुणिमा यहीं नहीं रुकी है, वह अब ब्लेड रनर बनना चाहती है. अगर उसने ठान ली है, तो यह काम भी वह आसानी से कर लेगी. वह स्पोर्ट्स अकादमी खोल रही है. जब उत्तराखंड का हादसा हुआ, तो ट्रक पर राहत सामग्री लाद कर गांववालों की सेवा करने निकल पड़ी थी. आटे की बोरियों के बीच बैठ कर उन गांवों में पहुंच गयी थी, जहां प्रशासन भी नहीं पहुंचा था. पहाड़ी क्षेत्र के लोगों को सहयोग किया था. अब वहां अस्पताल बनाना चाहती है.

हो सकता है कि अरुणिमा के साथ हादसा नहीं होता, तो इतना काम वह नहीं कर पाती. शायद वह खिलाड़ी ही रहती या फिर सीआइएसएफ में नौकरी कर रही होती. कर्म पर विश्वास करनेवाली अरुणिमा ने हादसे के बाद अपने को मजबूत किया. लक्ष्य तय किया. उसे पूरा करने का इरादा बनाया. उसके लिए योजना बनायी, उसे अमल में लायी, परिश्रम किया. रास्ता खुद-ब-खुद निकलता गया. दुनिया की आलोचना से वह विचलित नहीं हुई. तभी तो उसने कहा- दुनिया को जो सोचना है, सोचने दीजिए. मुङो जो बेहतर लगता है, जो मैं करना चाहती हूं, करूंगी. अरुणिमा की सफलता का यही सबसे बड़ा मंत्र है.

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