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पाकिस्तान में धीरे-धीरे मर रही है

भारत में हिंदी की उपेक्षा किसी से छिपी नहीं है. कुछ ऐसी ही हालत पाकिस्तान में उर्दू की है. पाक में अंगरेजी के बढ़ते दखल ने उर्दू को दिन-ब-दिन न सिर्फ लोगों की कलम, बल्कि जुबान से भी बेदखल किया है. वहां शिक्षा के क्षेत्र में उर्दू पढ़ने को पिछड़ेपन की तरह देखा जाता है, […]

भारत में हिंदी की उपेक्षा किसी से छिपी नहीं है. कुछ ऐसी ही हालत पाकिस्तान में उर्दू की है. पाक में अंगरेजी के बढ़ते दखल ने उर्दू को दिन-ब-दिन न सिर्फ लोगों की कलम, बल्कि जुबान से भी बेदखल किया है. वहां शिक्षा के क्षेत्र में उर्दू पढ़ने को पिछड़ेपन की तरह देखा जाता है, क्योंकि आज भी यह रोजी-रोजगार की भाषा नहीं बन सकी है. जानिए पाकिस्तान में उर्दू का हाल वहां के एक कलमकार से..

‘अब उर्दू क्या है, एक कोठे की तवायफ है, मजा हर एक लेता है, मोहब्बत कम ही करते हैं.’ रोजमर्रा की जिंदगी में उर्दू की जो हालत है, उसे बयां करने के लिए मुङो खुरशीद अफसार बिसरानी के ये शब्द उकसाते हैं. युवा पीढ़ी ने जिस तरह उर्दू से दूरी बनायी है, खासकर उर्दू साहित्य से, वह दुखी करने वाला है. मैं अपनी परवरिश का शुक्रगुजार हूं कि मेरे मां-बाप दोनों उर्दू पढ़ने के शौकीन रहे. हमेशा उन्होंने उम्दा उर्दू साहित्य पढ़ने को तरजीह दी. मैंने अशफाक अहमद, बानो कुदसिया, सआदत हसन मंटो जैसे कई अफसानानिगारों की किताबें अपने घर में देखीं. उत्कृष्ट उर्दू साहित्य हमेशा मुङो आकर्षित करता रहा है. लेकिन अपने स्कूल (लाहौर ग्रामर स्कूल) और लाहौर विश्वविद्यालय में मैंने उर्दू की दयनीय स्थिति देखी. हाइस्कूल के दिनों में मेरे साथ पढ़नेवाले ज्यादातर लड़के उर्दू अखबारों के सामान्य से शीर्षक भी नहीं पढ़ पाते थे.

दरअसल, ओ लेवल उर्दू को पाकिस्तान में आगे की शिक्षा के लिए दो स्तरों पर अनिवार्य किया गया है. फस्र्ट लैंग्वेज (सामान्यतया इसे उर्दू-ए कहते हैं) और सेकेंड लैंग्वेज (उर्दू-बी) में इसे बांटा गया है. स्कूल के तकरीबन अस्सी फीसदी छात्रों ने उर्दू-बी को चुना था. ऐसा करनेवालों में से अधिकतर कुछ साल विदेश में रह कर आये थे, जबकि तकनीकी रूप से उर्दू उनकी पहली भाषा थी. जिन थोड़े से लोगों ने उर्दू-ए को चुना था, उन्हें एक छोटे से कमरे में बिठाया जाता था, जहां शिक्षक की कुर्सी के इर्द-गिर्द महज कुछ कुर्सियां रखी हुई थीं. वहीं उर्दू-बी बाकायदा क्लासरूम में ही पढ़ायी जाती थी.

लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंस (एलयूएमएस) में बैचलर ऑफ साइंस के द्वितीय वर्ष के दौरान मैंने उर्दू को लेकर कुछ अलग ही हालात देखे. सेकेंड सेमेस्टर में मैंने अपना नामांकन ‘इकबाल की उर्दू शायरी’ में कराया. और जब मैं पहली बार कक्षा में शामिल हुआ, तो यह देख कर हैरान रह गया कि कुल 60 में से महज 20 छात्रों ने इसमें अपना नामांकन कराया था. मेरे दोस्तों को जब मैंने ‘इकबाल की उर्दू शायरी’ को वैकल्पिक विषय के रूप में चुनने के बारे में बताया, तो उनमें से कई ने निराशा जाहिर की और कुछ की प्रतिक्रिया सहानुभूति और सदमे से भरी थी. ‘हैं? क्यों यार? कोई और कोर्स नहीं मिला?’, ‘ये भी कोई पढ़नेवाली चीज है?’ ‘उर्दू? अस्तगफिरुल्लाह!’ इन उदाहरणों से मौजूदा युवा पीढ़ी के बीच उर्दू की घटती अहमियत को समझा जा सकता है.

मैं ऐसा ही एक दूसरा अनुभव भी साझा करना चाहता हूं. जब मैं फस्र्ट सेमेस्टर में था, उर्दू विभाग ने दो विभिन्न आयोजनों में डॉ जावेद इकबाल (अल्लामा इकबाल के बेटे) और मशहूर स्तंभकार आयतुल-हक काजमी को आमंत्रित किया था. लेकिन यह अत्यधिक निराशाजनक था कि इन कार्यक्रमों में विश्वविद्यालय के चार हजार छात्रों में से महज 50 ही छात्र उपस्थित थे.

उर्दू से कटते जाने का मतलब है इस युवा पीढ़ी का महान उर्दू साहित्य, जिनमें अमीर खुसरो से लेकर इकबाल तक का लेखन शामिल है, उसे जानने से वंचित रह जाना. मैं जो कहना चाहता हूं, उसे इकबाल के इस शेर के जरिये बखूबी समझा जा सकता है- ‘तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से आप ही खुदकुशी करेगी; जो शाख-ए-नाजुक पे आशियाना बनायेगा, नापायेदार होगा.’

कोई भी मुल्क किसी और की भाषा मेंकाम करके कभी तरक्की नहीं कर सकता. एक स्तंभकार के तौर पर लेखक ओर्या मकबूल जान कहते हैं, ‘दूसरे की भाषा में आप सीख तो सकते हैं, लेकिन दूसरे की भाषा में आप रचनात्मक नहीं हो सकते.’ मेरा इरादा किसी भी तरह से अंगरेजी को महत्वहीन बताना नहीं है. मैं सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि किस तरह अपनी मातृभाषा उर्दू से हम खुद को दूर करते जा रहे हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक स्तर पर ही सभी विषय उर्दू में ही पढ़ाये जाने की जरूरत है, क्योंकि यही वो उम्र होती है, जब हम चीजों को बेहतर ढंग से आत्मसात करते हैं. ऐसा न होने के कारण ही युवा पीढ़ी उर्दू को लेकर एक तरह की हीन भावना से ग्रस्त है और उसे पसंद नहीं करती.

उर्दू मातृभाषा होने के साथ ही हमारी संस्कृति की भी प्रतीक है. लेकिन यह दुभाग्र्यपूर्ण है कि खुद को कूल और ट्रेंडी दिखाने के लिए हम इससे दूर होते जा रहे हैं. अगर हम अन्य ऐसे देशों को देखें, जिनकी मूल भाषा अंगरेजी नहीं है, जैसे कि जर्मनी, फ्रांस, चीन और जापान, तो इन्हें अलग से पहचाना जा सकता है. इन देशों में कुछ अपवादों को छोड़ कर शिक्षा से लेकर सारा प्रशासनिक कामकाज वहां की राष्ट्र भाषा में होता है. यह इनकी पहचान और विकास का आधार भी है. लेकिन पाकिस्तान में अभिभावकों सहित स्कूलों में भी बच्चों को उर्दू की बजाय अंगरेजी बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. इसलिए छात्र न सिर्फ उर्दू से दूर होते जा रहे हैं, बल्कि वह उनके लिए एक कठिन भाषा बनती जा रही है.

-(blogs.tribune.comसे ओसामा साजिद का आलेख))

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