दुर्गाशक्ति नागपाल मामले में फेसबुक वॉल पर की गयी टिप्पणी को लेकर दलित लेखक और चिंतक कंवल भारती के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने धार्मिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगा कर मुकदमा दर्ज कराया था. इस घटना के बाद भारती ने कांग्रेस से जुड़ कर एक नयी बहस को जन्म दिया है, कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के लिए किसी राजनीतिक दल का सपोर्ट जरूरी है! प्रस्तुत है कंवल भारती से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के मुख्य अंश
आपकी पहचान चिंतक-लेखक के तौर पर है. अब आप कांग्रेस में शामिल हो गये हैं. आपका कहना था कि रामपुर में हालात ऐसे हो गये कि आपको किसी के साथ की जरूरत थी. कांग्रेस ही क्यों ?
असल में मुङो राजनीति में आना था और मैं समझता हूं कि दलितों को सभी पाटिर्यो में जाना चाहिए. जिस तरह दूसरी जातियों के लोग सभी पार्टियों में हैं, दलितों को भी होना चाहिए. सपा से तो हमारी लड़ाई चल ही रही है और बीएसपी को मैं लोकतांत्रिक पार्टी नहीं मानता. उसमें सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति को बोलने का अधिकार है. और बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवाद से आज तक हमारी सहमति नहीं बन पायी. ऐसे में एक कांग्रेस ही बचती है, जहां अभी भी थोड़ा-बहुत डेमोक्रेटिक तरीके से सोचने की गुंजाइश बची हुई है. इसलिए मैंने कांग्रेस ज्वाइन करने का फैसला किया. मैं जिन सामाजिक आंदोलनों से निकला हूं, जो मेरी वामपंथी पृष्ठभूमि है, उसमें मैंने बहुत काम किया, लेकिन अंतत: मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वाम राजनीति, एक किस्म की एलीट राजनीति है. वे लोग आज तक कोई राजनीतिक विकल्प नहीं खड़ा कर पाये.
लेकिन, राहुल गांधी को अपने खुले पत्र में आपने कहा है कि कांग्रेस ने हमेशा दलितों की उपेक्षा की है?
जी बिल्कुल. कांग्रेस ने ही नहीं, सभी दलों ने की है. लेकिन राहुल गांधी की वजह से मुङो कांग्रेस में परिवर्तन की उम्मीद दिखती है. राहुल ने कहा कि वे नये मूल्यों की राजनीति करना चाहते हैं. इन सब चीजों को देख कर मुङो लगा कि अपनी बात राहुल गांधी तक पहुंचानी चाहिए. अलीगढ़ में एक रैली में उन्होंने कहा था ‘हमें लाखों दलित नेता चाहिए’. मैंने अपने खुले पत्र में लिखा है कि लाखों दलित नेता तो हैं, पर कांग्रेस ने उनके लिए क्या किया? जो दलित नेता कांग्रेस में गये, उसने उनकी उपेक्षा की. मैंने वीपी मौर्य और रामदास अठवाले के नाम का उल्लेख भी किया है. अभी भी अगर कांग्रेस रेडिकल नेतृत्व को साथ लेकर चलती है, तो वह दलितों के बीच मजबूत होगी . वैसे भी दलित तो कांग्रेस का पुराना जनाधार है. बाद में उसने दूसरी जमीन क्यों तलाशी, इस पर कांग्रेस को सोचना होगा. गड्ढा जहां होता है, पानी वहीं भरता है. मैं मानता हूं कि जिस तरह ब्राrाण सत्ता पर काबिज हैं, दलितों को भी सत्ता में जाना चाहिए,
तो आपको भरोसा है कि कांग्रेस आपकी उम्मीदों पर खरी उतरेगी ?
मुङो उम्मीद तो है, पर देखिए आगे क्या होता है. अगर कांग्रेस एक नयी किस्म की राजनीति करना चाहती है, तो उसको बहुत सारी चीजों को बदलना पड़ेगा. सामंती ढांचे में परिवर्तन करना होगा और नये मूल्यों तथा नयी विचारधारा के साथ काम करना होगा.
अभी आप विधिवत रूप से कांग्रेस से नहीं जुड़े हैं, क्या कारण है?
हां मैंने अभी विधिवत रूप से कांग्रेस नहीं ज्वाइन की है. दरअसल, मैं स्थानीय कांग्रेस के पास राहुल गांधी से मुलाकात का समय मांगने के लिए गया था, क्योंकि वह वहां एक रैली में आने वाले थे. वहां उन लोगों कहा कि राहुल तो नहीं, मानव संसाधन राज्य मंत्री जितिन प्रसाद आ रहे हैं. हम उनसे आपकी मुलाकात करा देंगे. वह आपके प्रकरण से वाकिफ भी हैं. मैं जब जितिन प्रसाद जी से मिलने गया, तो उन्होंने मेरा अभिनंदन किया. हार पहना कर सम्मान किया. दूसरे दिन उनके साथ फोटो रिलीज हो गयी कि मैं कांग्रेस में शामिल हो गया हूं. मैंने इसका खंडन इसलिए नहीं किया क्योंकि मुङो कांग्रेस के राजनीतिक सर्पोट की जरूरत थी. हां विधिवत ज्वाइनिंग जिस तरह से होती है, वो अभी नहीं हुई है.
क्या राजनीतिक दल का दामन थामे बिना अभिव्यक्ति की आजादी संभव नहीं?
नहीं, मैं ऐसा नहीं समझता और यह एक अलग विषय है. लेकिन अगर राजनीतिक दृष्टि से देखें, तो सभी सत्ताएं और दल अपने विरोधियों पर प्रहार करते हैं. इसी चीज को हम बदलना चाहते हैं. अगर कांग्रेस में भी इस तरह की चीजें हैं, तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे.
आप एक विचारक-लेखक के नाते दलितों के पक्ष में आवाज उठाते रहे हैं. राजनीतिक पार्टी में शामिल होकर यह काम करना ज्यादा कठिन नहीं होगा?
बिल्कुल नहीं होगा. और जिस दिन मुङो लगेगा कि मेरा मार्ग अब कठिन हो रहा है, तो मैं राजनीति छोड़ दूंगा. रास्ते खुले हुए हैं. मैं सामाजिक-लोकतांत्रिक आंदोलनों का आदमी हूं. सामाजिक मुद्दों पर पीछे हटनेवाला नहीं हूं. मैं अपनी बात पहले की ही तरह कहूंगा.
आपके पत्र पर क्या राहुल गांधी की कोई प्रतिक्रिया आयी?
(जोर से हंसते हुए) मुङो लगता है मेरा पत्र उन तक पहुंचा भी नहीं होगा. अभी तक तो उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है, लेकिन आशा करता हूं कि जल्द आना चाहिए.
आप फेसबुक पर काफी सक्रिय रहते हैं. यह सक्रियता विवादों को न्योता भी देती है. विचारों के आदान-प्रदान के मंच के तौर पर फेसबुक की कैसी भूमिका है?
देखिए, लेखन के खतरे तो हर जगह हैं. अखबार में भी हैं और फेसबुक में भी. लेकिन अखबार और फेसबुक में एक अंतर है. हम अखबार में कुछ लिख कर भेजते हैं तो वो उनकी मर्जी है कि वो उसे प्रकाशित करें न करें. हर अखबार की अपनी नीति होती हैं. लेकिन फेसबुक पर आप तुरंत आसानी से अपने विचार या मन की बात को अभिव्यक्त किया जा सकता है. मैं जब शुरू-शुरू में फेसबुक से जुड़ा था दो ढाई साल पहले तो इसमें आज की तरह वैचारिक उपस्थिति नहीं थी. कुछ शेरो-शायरी और फोटो ही डाल देते थे. इधर हिंदी में कुछ अच्छे लोग फेसबुक से जुड़े हैं. एक वैचारिक धरातल बना है फेसबुक का और नये-नये मंच बने हैं. अब फेसबुक ज्यादा सशक्त मंच बन गया है.
आपके राजनीति में जाने के कदम पर लेखक बिरादरी की क्या प्रतिक्रिया रही?
मेरी गिरफ्तारी का विरोध तो पूरे देश के लेखक, पत्रकार और मीडिया ने किया. मुङो सबका समर्थन और बल मिला. दलित लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संगठन, जनवादी लेखक संगठन सबने मेरा समर्थन किया. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार सब जगह मेरे खिलाफ हुई कार्रवाई का विरोध हुआ. लेकिन इधर कांग्रेस से जुड़ने के बाद मेरे बहुत से मित्र जो वामपंथी विचारवाले हैं, जिनके साथ मैं काम करता था, वो जरूर थोड़ा असमंजस में हैं कि ऐसा कैसे हो गया. कई मित्र नाराज भी हैं. बड़े-बड़े भद्दे शब्दों से मुङो नवाजा जा रहा है. ऐसा लग रहा है कि जैसे मैं कंवल भारती नहीं रहा, एकदम से असामाजिक, अराजक, अलोकतांत्रिक और दलित विरोधी हो गया हूं. लेकिन धीरे-धीरे लोग समझ जायेंगे कि राजनीतिक आस्था अलग चीज है और लेखन के प्रति सरोकार अलग. सबकी नाराजगी दूर हो जायेगी.