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हाशिये के लोगों की आवाज बने साहित्य

‘यह तो झारखंड की ललमटिया है/ जिसका रंग बस नामशेष/ ललमटिया हुई है कलमटिया/ भूतल में जब से दमका है कोयले का अकूत भंडार/ उनकी लालची आंखों में/ कटे पेड़, जमींदोज हो कोयलाने की संभावना से दूर/ बिलाये विनम्र मवेशी, उद्धत पशु शोरीले पंछी सारे..’ ये पंक्तियां वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति की अपनी मातृभूमि झारखंड के […]

‘यह तो झारखंड की ललमटिया है/ जिसका रंग बस नामशेष/ ललमटिया हुई है कलमटिया/ भूतल में जब से दमका है कोयले का अकूत भंडार/ उनकी लालची आंखों में/ कटे पेड़, जमींदोज हो कोयलाने की संभावना से दूर/ बिलाये विनम्र मवेशी, उद्धत पशु शोरीले पंछी सारे..’ ये पंक्तियां वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति की अपनी मातृभूमि झारखंड के प्रति चिंता और लगाव को अभिव्यक्त करती हैं. पिछले दिनों अपने गांव पथरगामा आये ज्ञानेन्द्रपति से प्रवीण तिवारी की बातचीत में भी इसचिंताके कई पहलू उभर कर सामने आये.

ज्ञानेंद्रपति आधुनिक हिंदी कविता के अत्यंत सम्मानित और पढ़े जाने वाले कवि है. उन्हें काव्य कृति ‘संशयात्मा’ पर वर्ष 2006 में प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिल चुका है़ वे ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित होने वाले झारखंड के पहले कवि-साहित्यकार हैं. उन्हें ‘पहल सम्मान’ भी प्राप्त हो चुका है ़ उनकी कविता पुस्तक ‘गंगातट’ अत्यंत लोकप्रिय हुई थी. इससे पहले ‘आंख हाथ बनते हुए’,‘ शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’,‘भिनसार’ और ‘कवि ने कहा’ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.साथ ही ‘एकचक्रानगरी’ काव्य नाटक व कथेतर गद्य के रूप में ‘पढ़ते-गढ़ते’ छप चुका है़ ज्ञानेंद्रपति बनारस में रहते हैं. कविता के फुलटाइम कार्यकर्ता बने हुए़ अपने को झारखंड की उपज मानते है.

इसलिए स्वाभाविक रूप से उनकी चिंता में झारखंड शामिल रहता है. उनके लिए यहां के पहाड़ों को टूटते देखना दुखद है. उन्हें जैविक प्रजातियों का लुप्त होते जाना भी चिंतित करता है, तो बच्चों को स्कूल जाने की जगह बंधुआ मजदूरों की तरह खटते देखना भी परेशान करता है़ इन दिनों स्त्री विषयों पर केंद्रित किताबघर से प्रकाशित उनका नवीनतम कविता संग्रह ‘मनु को बनाती मनई’ चर्चा में है़ इस बीच ज्ञानेंद्रपति अपने गांव गोड्डा जिले के पथरगामा पहुंचे हैं. इसी क्रम में उनसे वर्तमान समय-समाज में साहित्य की स्थिति से लेकर झारखंड के साहित्यिक परिदृश्य तक कई पहलुओं पर उनके विचार जानने की मैंने कोशिश की.

मेरे द्वारा यह पूछे जाने पर कि आज समय, साहित्य और समाज को किस रूप में देखते हैं, ज्ञानेंद्रपति का कहना था- यह समय पूंजीवादी साम्राज्यवाद के जयघोष का है. अमेरिका की अगुवाई में साम्राज्यवादी शक्तियां- विकासशील और अविकसित देश-समाजों के प्राकृतिक संसाधनों पर काबिज हो रही हैं. लोकतंत्र और मानवाधिकार की दुहाई देते हुए इराक और लीबिया को ध्वस्त कर दिया जाता है, और विश्व समाज गूंगा बना देखता रहता हैं़ पूंजीवादी साम्राज्यवाद की आधारशिला सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के हाथों रखी जाती है. इस प्रक्रिया में किसी भी देश-समाज के जीवन मूल्य तार-तार हो जाते हैं़ और वहां का नागरिक उपभोक्तावाद को चरम जीवन -मूल्य के रूप में अंगीकार कर अपने को धन्य समझता है़

देश की खनिज संपदा से मानवीय मेधा तक हर चीज सस्ते दामों बिक कर ही कृतार्थ होती है. ऐसे समय में साहित्य हाशिए पर चला जाता है, लेकिन तब भी यह गुंजाइश बनी रहती है कि वह हाशिए के लोगों की आवाज बन सक़े समकाल की पेचीदगियों की पहचान करने और जनमानस को प्रतिरोध की भावना से लैस करने का दायित्व साहित्य का है, जिसका निर्वहन कर ही वह प्रासंगिक बन सकता है.

जब उनसे यह पूछा गया कि साहित्य की गांवों के विकास में क्या भूमिका हो सकती है? तो वे कहते हैं- सच तो यह है कि साक्षरता के प्रसार के बावजूद गांवों से साहित्य का संपर्क कमजोर हुआ है. गांवों की समाजिक संरचना में नयी जटिलताएं उभरी हैं, फिर भी जैसे कि बुनियादी रूप से भारतीय गांव किसी अतीत में ठिठका हुआ है, जो अभी व्यतीत नहीं हुआ है.

इसलिए भी बहुतेरे लोग यह महसूस करते हैं कि प्रेमचंद का ग्राम-केंद्रित साहित्य आज भी प्रासंगिक है. ग्रामीण क्षेत्रों में जाति-भेद आज तक नहीं मिट पाया है और सामुदायिक जीवन में नये तरह के वैमनस्य उभरे हैं. ऐसे में,‘आह ग्राम-जीवन भी क्या है!’ की भावुकता केवल सच्चाई से मुंह मोड़ने का जरिया बन सकती है. यह भी कि सच है अब तक मूक रहे समुदायों के मुंह भी खुले हैं.

दलित-दमित तबकों और आदिवासी समाजों के भीतरी दाहक अनुभवों को कहने वाले लेखक उभर रहे हैं.स्थापित लेखकों की तुलना में ऐसे लेखकों की आवाज ज्यादा भरोसे के काबिल और आशा का आधार है़ गांवों में पुस्तकालय-वाचनालय खोलने और उन्हें सक्रिय रखने की जरूरत है. यह अपने आप में एक वैचारिक मंच की भूमिका निभा सकते हैं. नगरीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे गांवों को बौद्धिक उन्मेष की जरूरत है. साहित्य इसमें बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. अगर वह सुलभ हो और लोग उसके समीप आयें.

यह पूछने पर कि झारखंड में साहित्यिक चेतना के विकास के लिए क्या और किस प्रकार किया जा सकता है, ज्ञानेंद्रपति कहते हैं- नवगठित झारखंड राज्य के संचालकों से यह जायज उम्मीद थी कि जनता की वैचारिक चेतना के विकास के लिए भी ठोस कदम उठाये जायेंगे. खेद है कि यह उम्मीद पूरी होती नजर नहीं आती है. इस तरफ जिनके सोचने से स्थिति में सकारात्क फर्क पड़ता है, वे इस चिंतन-दिशा की ओर झांकने तक नहीं आते. साहित्य, भाषाओं, संस्कृति, कलाओं के पोषण के लिए केंद्रीय साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी की तर्ज पर जरूरी विभिन्न अकादमियों के गठन की ज्वलंत जरूरत को लगातार अनदेखा किया जा रहा है. ऐसा किया जा सके, तो वह प्राथमिक चरण का कार्य होगा. गतिरोध या यथास्थिति को तोड़ने के लिए अभी तो पहला कदम उठाने की जरूरत है. अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित और विश्वसनीय संभावनाओं के रूप में उदीयमान साहित्यिक प्रतिभाओं की झारखंड में कोई कमी नहीं है. सूबे की बौद्धिक खनिज संपदा का समुचित दोहन हो सके तो जल्द ही झारखंड साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से देश के अग्रणी राज्यों में गिना जायेगा.

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