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बुजुर्गो की बोझिल मन से न हो सेवा

हम सबों को अपने संस्कार, अपनी संस्कृति-परंपरा, बड़ों को सम्मान आदि मानवीय गुणों को आत्मसात करना होगा. जीवित रखना होगा. इसने युगों-युगों से भारत की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास व अध्यात्म को संवारा है, सहेजा है. ये समय की अतुलनीय धरोहर हैं. ध्यातव्य है कि बुजुर्गो का बोझिल मन से भार स्वरूप किया गया सत्कार, की […]

हम सबों को अपने संस्कार, अपनी संस्कृति-परंपरा, बड़ों को सम्मान आदि मानवीय गुणों को आत्मसात करना होगा. जीवित रखना होगा. इसने युगों-युगों से भारत की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास व अध्यात्म को संवारा है, सहेजा है. ये समय की अतुलनीय धरोहर हैं. ध्यातव्य है कि बुजुर्गो का बोझिल मन से भार स्वरूप किया गया सत्कार, की गयी सेवा, तनाव व मानसिक क्रूरता को जन्म देता है. युवाओं को इससे बचने की आवश्यकता है.

जिन बुजुर्गो ने अपनी भावी पीढ़ी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया, उन्हें अब इन की जरूरत नहीं है. वे एकाकी व अकेला जीवन जीने को विवश हैं. अकेलापन उन्हें खलता है. कोई बोलने-बतियाने, राय-सलाह लेने, साथ बैठनेवाला नहीं है. अपने भविष्य की चिंताओं से वे हताश हैं. मानसिक पीड़ा सता रही होती है.

कभी फेमिली वैल्यूज हमारी ताकत हुआ करती थी. आज न्यूक्लियर फेमिली का ट्रेंड है, जहां प्यार, सपोर्ट, गाजिर्यनशिप व सिक्योरिटी का अभाव रहता है. हाय -हैलो! व मॉम-डैड के जमाने में सामाजिक मर्यादाओं का इंफ्रास्ट्रर लगातार टूट रहा है. तोड़ने की कोशिश हो रही है. कीमती सौंदर्य प्रसाधन, पांच सितारा पब्लिक स्कूलों में नामांकन व भोग-विलास की ढेर सारी आकांक्षाओं ने हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को विखंडित कर रख दिया है. आज के आलीशान फ्लैटों में बुजुर्गो की धुंधली तसवीरें कौन टांगता है? मोबाइल, टैबलेट व लैपटॉप के आदी हो रहे लोग अपनों के बीच रह कर भी अकसर उनके साथ नहीं होते हैं.

आधुनिक जगत इतना परिवर्तित हो चुका है. अपने भूतकाल से इतना विच्छिन होता जा रहा है कि युवाओं के लिए अतीत को दृष्टिगत करना व समझना कठिन होता जा रहा है. जीवन मूल्यों ने कुछ ऐसी पलटी खाई है कि धन की चुंबकीय ताकत के आगे पुरखों की नैतिकता का पाठ अपना अर्थ खो चुका है. युवा पीढ़ी बासी समझ कर नकार दे रहे हैं. समाज, इतिहास व बुजुर्गो की धड़कनों को सुननेवाला अब कोई नहीं है. संवाद, चौपाल व परिचर्चा लुप्तप्राय हो गये हैं. स्थिति यह है कि विज्ञापनों में जो जितनी नग्नता दिखा रहा है, वह उतना ही एडवांस कहा जा रहा है. शिक्षा समाज में एक सुसभ्य नागरिक, वैचारिक सहनशीलता व उदारता का माहौल बनाती है, परंतु आज शिक्षण संस्थानों का बाजारीकरण हो चुका है. फलत : ये संस्थाएं बच्चों को मानवता का पाठ पढ़ाने उनका चारित्रिक उत्थान करने, संवेदनशील-सुसंस्कृत बनाने में सार्थक पहल नहीं कर पा रहे हैं. बड़े-बुजुर्ग को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है, वे तिरस्कृत हो रहे हैं. यह चिंता का विषय है.

मौजूदा आर्थिक विकास मॉडल ने भोग के सपने जगाये हैं. लोगों को चाहिए सिर्फ विकास, सुख, ऐशोआराम व पैसा. इस जीवन दर्शन ने हर मर्यादा तोड़ दी है. तेज रफ्तार जिंदगी रिश्तों को रौंद रही है. मानवीय रिश्ते तभी बनते हैं, जब लोग दिल से एक-दूसरे से जुड़ते हैं. आज की जीवनशैली में लोग इस कला को भूल गये हैं. आज हाथों को महंगा मोबाइल हैंडसेट चाहिए.

थ्रीजी एरा में टूजी फोन रखने में हमें ग्लानि होती है. फं की टी-शर्ट के साथ फनी स्लोगन वाले टी शर्ट, पैरों में कूल व कैटी स्लीपर्स युवाओं की पसंद बनती जा रही है. तकनीक बदलाव के बहाव में डिजाइनर्स और डिजायर्स हम सभी को अपने कब्जे में लेते जा रहे हैं डर होता है, मशीनी विकास की अंधी दौड़ में पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव में, भटक न जायें माडर्न शिक्षा की डिग्रियों से सजी आज की पीढ़ी.

हम सबों को अपने संस्कार, अपनी संस्कृति-परंपरा, बड़ों को सम्मान आदि मानवीय गुणों को आत्मसात करना होगा, जीवित रखना होगा. इसने युगों-युगों से भारत की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास व अध्यात्म को संवारा है, सहेजा है. ये समय की अतुलनीय धरोहर हैं.

ध्यानीय है कि बुजुर्गो को बोङिाल मन से भार स्वरूप किया गया सत्कार, की गयी सेवा, तनाव व मानसिक क्रूरता को जन्म देता है. युवाओं को इससे बचने की आवश्यकता है. युवा काल अच्छी वस्तुओं को सीखने का है, उन्माद में बहने का नहीं. सुकर्मो द्वारा अजिर्त सम्मान बाद तक स्थिर बना रहता है.

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