पलायन की चर्चा अक्सर होती है? कभी इसे विकास के पैमाने पर आंका जाता है, तो कभी इसे बहुत बड़ी समस्या बताया जाता है?
बेहतर अवसर, बेहतर कमाई, बेहतर संसाधन देखकर जगह बदलना तो मानव इतिहास में सदा से होता रहा है. आज भी हो रहा है. इसके स्वरूप अलग-अलग होते हैं. अपना श्रम बेचने के लिए अपने मूल स्थान से, अपनी जन्मभूमि से लोग निकल रहे हैं. सदा के लिए, एक लंबी अवधि के लिये.
किन इलाकों में बिहार-झारखंड जैसे राज्यों से सर्वाधिक पलायन होता है?
मुझे लगता है कि देश का कोई भी हिस्सा बचा नहीं है. जैसे ही आप दिल्ली की गंदी बस्तियों में, मुंबई के उपनगरों में, सूरत-बेंगलुरू-जयपुर जैसे तेजी से उभरते औद्योगिक नगरों में, पंजाब-हरियाणा-पश्चिम उत्तर प्रदेश के हरित क्रांति वाले क्षेत्र में ही नहीं, कश्मीर की दुर्गम और जोखिम भरी घाटियों, कर्नाटक की गन्ना मिलों, केरल के रबर तथा नारियल बागानों में पेड़ पर चढने वालों और गुजरात के कपड़ा व्यवसाय के केद्रों पर नजर डालेंगे आपको पग-पग पर दिखने वाले बिहारी, बंगाली, झारखंडी, छत्तीसगढ़ी मजदूर दिखाई देंगे. बेहतर रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा के लिए इन राज्य के बाहर जाने वालों की संख्या एकदम अलग है. इतना ही नहीं दिल्ली जैसे राज्य में इन मजदूरों का खास ठिकाना भी है. निजामुद्दीन दिल्ली स्टेशन का मतलब छत्तीसगढ़ी मजदूरों का ठिकाना है तो आनंद विहार का मतलब पुरबिया मजदूरों को शहर के बाहर उतरने-चढ़ने का ऐसा ठिकाना देना है जहां भरी गरमी में पीने का पानी भी नसीब नहीं होता. कथित तौर पर विकास के इन क्षेत्रों और जगहों के विकास में इनकी भागीदारी कितनी है, यह किसी से छिपी नहीं है.
क्या ऐसी स्थिति तब भी है जब बिहार में विकास के दावे किये जा रहे है? यह भी कहा जाता है कि इन मजदूरों की बदौलत बिहार में पूंजी संचय हुआ है?
देखिए, चुनाव में मजदूरों का पलायन मुद्दा बनता है. विकास का दावा करते हुए यह भी कहा जाता है कि पलायन कम हुआ है. इस बात में भी सच्चई है कि बाहर कमाने गए मजदूर हजारों करोड़ों रुपए बिहार भेजते हैं- सचमुच के हजारों करोड़. हां, यह बात अलग है कि सौ-पचास करोड़ का लालच दिलाने वाले आदमी के आगे तो बिहार सरकार बिछ जाती है. लेकिन प्रवासी मजदूर के लिए अपनी कमाई सुरक्षित रखना सबसे बड़ा विषय है – उसकी सबसे ज्यादा छीना-झपटी, लूट, नशा मिलाकर सब कुछ छीनना सबसे ज्यादा बिहार में ही होता है. और यह अकेले बिहार में ही होता हो यह कहना भी गलत होगा. प्रवासी मजदूरों के साथ हर कहीं यही सब होता है क्योंकि वे कमजोर ही नहीं प्राय; कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ और पैसे लाने ले-जाने की आधुनिक व्यवस्थाओं से अनजान होते हैं. 1971 के बाद और फिर भूमंडलीकरण के दौर में नए कारण उभरे हैं. बैंकों-खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद एक बड़ा कारण पूंजी का पलायन है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में बिहार आज सबसे नीचे है. फिर, बिहार के लोग बैंकों में जो पैसा रखते हैं, उसका लगभग दो-तिहाई हिस्सा आज बिहार से बाहर जा रहा है. आज शेयर बाजार हो या म्युचुअल फंड, विभिन्न जमा योजनाएं हो या डाकघरों का माध्यम, बिहारी अपनी लगभग पूरी बचत बाहर ही निवेश करते हैं. बिहार में सीधा निवेश प्राय: शून्य है. यह तथ्य कुछ लोगों को हैरान कर सकता है कि शेयर बाजार में निवेश करने के लिये जरूरी डी-मैट खाते के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है. यह कहानी सभी पिछड़े इलाकों की हो गयी है, क्योंकि उंनके पास पूंजी का उत्पादक इस्तेमाल करने का शऊर भी नहीं है. बिहारियों के विकास में काफी पूंजी लगेगी, काफी उद्यम करने होंगे, काफी मेहनत करनी होगी. जिन कारणों से पलायन हो रहा है, वे बहुत बड़े हैं, बहुत गहराई तक गए हैं.
कई लोग पलायन को ताकत बताते हैं, और इसे विकास के लिए जरूरी मानते हैं?
पलायन को लेकर कई तरह के अध्ययन कराये गये हैं. कुछ लोग ऐसे हैं जो कि विकास के एक खास मॉडल के पैरोकार हैं, और पलायन को अच्छा मानते हैं और इसे अनिवार्य तत्व करार देते हैं. उनका दूसरा तर्क है कि पलायन जितना ज्यादा होता है उस व्यक्ति, महानगर, और इलाके का उसी अनुपात में विकास होता है. इसलिए अगर कहीं से मजदूर या अन्य लोग निकल कर किसी और इलाके में नहीं जा रहे हैं तो यह प्रवृत्ति विकास के लिए उचित नहीं है. कभी कैलोरी की खपत तो ऊर्जा की प्रति व्यक्ति उपलब्धता को विकास का पैमाना मानने वाला यह समूह पलायन करने वालों को और आबादी के अनुपात को विकास का पैमाना मानने वाला है.
आपने पलायन का परिवार पर पड़ने वाले असर की चर्चा की, लेकिन बड़ी संख्या में मजदूर अपने परिवार के साथ पलायन करते हैं. उनके साथ महिलाएं भी होती हैं, और बच्चे भी. पलायन का इनपर क्या असर होता है?
मजदूरों के पलायन पर बारीक नजर रखने वालों का मानना है कि परिवार को साथ लेकर पलायन करने के मामले में अलग-अलग इलाके के मजदूरों का व्यवहार अलग-अलग है. बिहार और पूरब के मजदूर प्राय: अकेले चलते हैं तो मध्य भारत के मजदूर परिवार के साथ. अगर काम टिकाऊ हो और काम करने की जगह खूब परिचित हो जाये तब मजदूर अपनी पत्नी- बच्चों को भी लाना पसंद करते हैं. कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं जिन्हें शहर में पति के साथ काम की तलाश में निकलना पड़ता है. उन्हें अपनी जगह छोड़ने और नयी जगह पर खुद को सुरक्षित रखते हुए काम कर लेने में भी खासी मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं – मर्दो से कई गुना ज्यादा. बोली, भोजन, काम की तलाश जैसे मसलों में तो उनका और उनके पति का कष्ट एक जैसा होता है पर जैसे ही रहने, नहाने-धोने और शौच आदि की जगह की कल्पना सामने आती है, वे तनाव में आ जाती हैं. ऐसी महिलाओं से छेड़छाड़ और दुष्कर्म तक की घटनाएं होना आम है.
पलायन की गति को कम करने के लिए और इसके तह तक पहुंचने के लिए आप क्या सुझाव देंगे?
मेरा पहला सुझाव है कि ग्रामीण श्रम पर बने राष्ट्रीय आयोग के सुझावों पर तत्काल अमल किया जाये. इसके साथ ही प्रवासी मजदूरों संबंधी जानकारियों का पंजीकरण किया जाना जरूरी है. अंतरराज्य प्रवासी कानून के हिसाब से प्रदेश से बाहर जानेवालों का पंजीकरण कलक्टर के जिम्मे दे दिया गया है. जबकि व्यावहारिक अनुभव से यह तथ्य सामने आया है कि कोई मजदूर या ठेकेदार कलक्टर के पास जाने से बचता है. जब इस प्रावधान को शामिल किया गया था, तब बिहार में थोड़ा प्रयास हुआ, पर तब भी एक लाख से ज्यादा मजदूरों का पंजीकरण नहीं हुआ था. इसके बाद यह प्रक्रिया कमोबेश खत्म ही हो गयी. ऐसे में जन्म-मरण के पंजीकरण की तरह ही गांव और मुहल्ले से मजदूरों के आने-जाने की सूचना दर्ज करने का काम ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के जिम्मे करना चाहिए. यह काम काफी लाभकर हो सकता है.
अरविंद मोहन
प्रवासी मजदूरों की व्यथा पुस्तक के लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार