हुंकार रैली आज
तीन साल पहले हुआ था गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी का भाषण
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम उम्मीदवार की भूमिका में पटना के गांधी मैदान में रविवार को ‘हुंकार रैली’ को संबोधित करने जा रहे हैं. इससे पहले गांधी मैदान में मोदी का भाषण तीन साल पहले हुआ था, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद. वो दिन था 13 जून 2010 का.
लेकिन इन तीन वर्षो में भारतीय सियासत के दो बड़े चेहरों और दो बड़े दलों के बीच रिश्ते काफी बदल गये हैं. समझ ही गये होंगे, बात कर रहे हैं मोदी–नीतीश और भाजपा–जदयू की. उस वक्त जब नरेंद्र मोदी आये थे, तो बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में जदयू–भाजपा की सरकार मजबूती से चल रही थी.
नीतीश की सरकार ने न सिर्फ लालकृष्ण आडवाणी, बल्किमोदी को भी ‘स्टेट गेस्ट हाउस’ में टिकाया था.
नीतीश और मोदी के बीच के संबंध भी व्यावहारिकता की दृष्टि से सामान्य थे. भले ही चुनावी समीकरण के हिसाब से नीतीश ने बिहार में मोदी को 2005 के विधानसभा चुनावों या फिर 2009 के लोकसभा चुनावों में कैंपेन नहीं करने दिया था, लेकिन उसको लेकर अंदरखाने कोई खास खटास नहीं थी.
नरेंद्र मोदी को पता था कि नीतीश बिहार के अल्पसंख्यक मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए अगर सार्वजनिक तौर पर उनसे दूरी बनाये रखना चाहते हैं, तो कोई हर्ज नहीं है. सियासत की बाध्यताओं का अंदाजा भला मोदी को कैसे नहीं हो सकता था.
लेकिन 2010 में पटना में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के वक्त ही कुछ ऐसा घटा, जिसने इन दोनों नेताओं के आपसी संबंधों में इतनी कड़वाहट भर दी कि संबंध सुधरने की जगह लगातार बिगड़ते चले गये. अंतिम नतीजा ये निकला कि मोदी को इस साल गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कैंपेन कमेटी का अध्यक्ष बनाये जाने के साथ ही नीतीश की पार्टी जदयू ने भाजपा से अपना दशकों पुराना रिश्ता तोड़ लिया और वो एनडीए से बाहर आ गया.
आखिर क्या था वो घटनाक्र म, जिसने मोदी और नीतीश के संबंधों की दिशा को तय कर दिया. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए जब मोदी पटना पहुंचे थे, उसी समय बिहार के अखबारों में फुल पेज के विज्ञापन छपे. एक तरफ बिहार के बाढ़ पीड़ितों के साथ खड़े रहने का मोदी का संदेश, तो दूसरी तरफ इसी विज्ञापन में नीतीश और मोदी का वही फोटो जो एक साल पहले लुधियाना की चुनावी सभा में क्लिक किया गया था, एक–दूसरे से गले मिलते नीतीश और मोदी की तसवीर.
ये विज्ञापन मोदी या फिर उनकी सरकार की तरफ से नहीं जारी किया गया था, बल्किसूरत के एक समर्थक की तरफ से जारी हुआ था. लेकिन नीतीश को ये भारी सियासी नुकसान करने वाला दिखा.
नीतीश को ये लगा कि जब अगले छह महीनों के अंदर बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, सियासी गणित के तहत उन्हें इसका गंभीर नुकसान हो जायेगा, खासतौर पर अल्पसंख्यक वोटों के लिहाज से. दूसरी ‘सेक्युलर’ पार्टियां या फिर उनके नेता नीतीश को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करें, इससे पहले नीतीश ने लिया एक ऐसा फैसला, जिसके दूरगामी परिणाम हुए, खासतौर पर नरेंद्र मोदी से उनके संबंधों को लेकर.
12 जून 2010 की शाम नीतीश कुमार ने अपने यहां भाजपा के तमाम बड़े नेताओं को रात्रिभोज के लिए बुलाया था, जो भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाग लेने के लिए आये थे. इन आमंत्रितों में नरेंद्र मोदी भी थे. नीतीश ने भाजपा नेताओं को रात्रि भोज देने की योजना कई दिन एडवांस में बनायी थी, लेकिन 12 जून को सुबह अखबारों में छपे विज्ञापन के बाद उन्होंने एक ऐसा कदम उठा डाला, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी.
नीतीश ने उस रात्रिभोज को खुद कैंसिल कर दिया, जिसके लिए आमंत्रण भी उन्होंने ही दिया था. भाजपा के नेता तो ठीक, लेकिन खुद जदयू में भी ज्यादातर नेताओं को इसके रद्द होने की खबर पाकर झटका लगा. खुद मोदी का इस मुद्दे पर कभी कोई सार्वजनिक बयान नहीं आया. लेकिन अगर अंदरूनी सूत्रों की मानें, तो वो नीतीश के इस कदम से अंदर तक हिल गये.
मोदी को पता था कि नीतीश ने रात्रिभोज रद्द करने का जो फैसला किया है, वो उनको लेकर ही हुआ है. मोदी अपने इस अपमान को कभी अंदर से पचा नहीं पाये और न ही नीतीश कुमार को इसके लिए माफ कर पाये.
तीन साल बाद रविवार को जब मोदी पटना में पीएम उम्मीदवार के तौर पर रैली करने वाले हैं, मोटे तौर पर नीतीश ही उनके निशाने पर हो सकते हैं. भले ही मोदी खुल कर कहें या न कहें, लेकिन बिहार की सियासत में किसी एक व्यक्ति या किसी एक पार्टी को वो सबसे कमजोर करने के ख्वाहिशमंद होंगे, तो वो नीतीश और उनकी पार्टी जदयू ही होगी. नीतीश से पिछले एक साल में सामान्य शिष्टाचार वाले संबंध भी नहीं रह गये हैं मोदी के, पिछली बार जब दिल्ली में प्रधानमंत्री की बुलायी बैठक में दोनों इकट्ठा भी हुए थे, तो एक–दूसरे को देखने तक से परहेज कर डाला.
बिहार की सियासत दो दशक से भी अधिक समय से ओबीसी नेतृत्व के हाथ में है. पहले लालू और फिर उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने करीब 15 साल तक बिहार पर एकछत्र राज किया, तो फिर 2005 से नीतीश इस भूमिका में हैं. किसी भी उत्तर भारतीय राज्य में इस तरह की सियासी परिस्थिति नहीं रही है, जहां लगातार सत्ता ओबीसी नेतृत्व के हाथ में रही हो.
और जहां तक बिहार की बात है, ओबीसी राजनीति के इस खास मैदान में यहां दो बड़े चेहरे लालू और नीतीश ही रहे हैं इन दो दशकों में. लालू तो चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने के साथ फिलहाल रांची के जेल में हैं, नीतीश बिहार में सरकार की अगुवाई कर हैं.
ऐसे में क्या मोदी ओबीसी राजनीति के टर्फपर भी नीतीश को चुनौती दे सकते हैं.
आजाद भारत के इतिहास में ये पहला ही मौका है, जब ओबीसी समुदाय से आनेवाले किसी शख्स को देश की एक प्रमुख पार्टी ने पीएम पद का उम्मीदवार बनाया हो. 1947 से लेकर मौजूदा समय तक, भारतीय सियासत में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है ऐसा. जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की अगुआई में लगातार 1977 तक इस देश पर कांग्रेस का शासन रहा.
1977 की जनता लहर में पहली बार गैर–कांग्रेसी सरकार केंद्र में बनी भी, तो प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई और फिर चौधरी चरण सिंह. खास बात ये कि उन चुनावों में भी किसी को पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया गया था. 1980 से लेकर 1989 तक पहले इंदिरा और फिर राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे. यहां तक कि 1989 के चुनावों के बाद भले ही वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन उन्हें पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया गया था.
1991 में भी यही हुआ. वैसे भी ये तमाम चेहरे तथाकथित सवर्ण या अगड़ी जाति के थे. बाद के वर्षो में ही यही हुआ. राव के पांच साल के शासन के बाद 1996 में वाजपेयी की 13 दिन की सरकार आयी और उसके बाद एचडी देवगौड़ा या फिर इंदर कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने.
ये दोनों भी अप्रत्याशित चेहरे थे या फिर सियासी संयोग के नतीजे. उसके बाद का इतिहास तो काफी नया है, कभी ऐसा कोई संयोग बना ही नहीं, जिसमें ओबीसी राजनीति के बड़े चेहरों– मुलायम, लालू या नीतीश को किसी गंठबंधन ने पीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करने की रणनीति बनायी हो.
ऐसे में मोदी की ओबीसी पृष्ठभूमि क्या बिहार की राजनीति में लोकसभा चुनावों के लिहाज से जातिगत समीकरणों के हिसाब से उलटफेर कर सकती है. ध्यान रहे कि मोदी कभी अपने ओबीसी कार्ड को खुद खुल कर खेलते नहीं हैं. हाल की चुनावी सभाओं में बस इसका इशारा भर करते नजर आये वो, अपनी पिछड़ी पृष्ठभूमि या फिर ट्रेन में चाय बेचने की घटना के तौर पर.
मोदी देश के हाल के दशकों की राजनीति में ओबीसी समुदाय से आनेवाले पहले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अपनी पहचान ओबीसी नेता के तौर पर बनाने की खुल कर कोशिश नहीं की.
ऐसे में मोदी दोतरफा अंदाज में अपने को पैकेज कर सकते हैं, खासतौर पर उनके स्पिन डॉक्टर्स. एक तो पहली बार किसी ओबीसी नेता के लिए देश में प्रधानमंत्री बनने की गुंजाइश है, दूसरा ये कि वो नेता सबको साथ लेकर चलना चाहता है.
मोदी या फिर उनके समर्थक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से ओबीसी मतदाताओं को ये भी समझा सकते हैं कि विधानसभा चुनावों में भले ही आप अपनी जाति या पसंद के ओबीसी नेता को वोट कर डालें, लेकिन लोकसभा के चुनावों में मोदी का साथ दे दें. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोटे तौर पर सवर्ण या अगड़ी जातियों का कब्जा रहा है, ऐसे में मोदी ओबीसी मतदाताओं को मनोवैज्ञानिक मलहम भी लगा सकते हैं. मोदी सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने का अभियान तीन दिन बाद छेड़ने वाले हैं. इसका क्या संदेश जायेगा? विश्लेषण आराम से कीजिएगा, फिलहाल तो मोदी की हुंकार रैली का इंतजार कीजिए.
।। ब्रजेशकुमारसिंह ।।
संपादक–गुजरात,एबीपीन्यूज
(ये लेखक के निजी विचार हैं)