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चुनावी राजनीति में बड़े बदलाव की है जरूरत

डॉ पंकज साहा शिक्षाशास्त्री, विद्यासागर विवि पश्चिम बंगाल बिहार की चुनावी राजनीति की यह बड़ी विडंबना है कि वहां जाति के दायरे से निकल कर न तो राजनीतिक पार्टियां सोच कर रही है, न जनता में इसे लेकर वैचारिक बदलाव दिख रहा है. बात विकास से शुरू हुई थी और चुनाव करीब आते-आते सभी राजनीतिक […]

डॉ पंकज साहा

शिक्षाशास्त्री, विद्यासागर विवि पश्चिम बंगाल

बिहार की चुनावी राजनीति की यह बड़ी विडंबना है कि वहां जाति के दायरे से निकल कर न तो राजनीतिक पार्टियां सोच कर रही है, न जनता में इसे लेकर वैचारिक बदलाव दिख रहा है. बात विकास से शुरू हुई थी और चुनाव करीब आते-आते सभी राजनीतिक पार्टियां जातीय समीकरण का गणित बिठने में जुट गयीं. यह बिहार के विकास और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरनाक है. दरअसल, बिहार की सामाजिक परिस्थितियां ऐसी हैं, जिसने इसे जातिवादी के दायरे से बाहर निकलने नहीं दिया. आजादी के बाद वहां की राजनीति पर अगड़ों का वर्चस्व रहा.

इसने सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को हासिए पर रखा. 1990 के दशक में इसके खिलाफ राजनीतिक प्रतिरोध चरम पर पहुंचा और सामाजिक न्याय की बड़ी लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि जिस बात के खिलाफ यह लड़ाई गयी, अंत में उसी को नयी स्थापना मिल गयी. इस लड़ाई ने जसतिवाद के नये संस्करण को जन्म दिया. स्थिति यह रही कि सदी के अंत-अंत तक पिछड़ों में भी जातीय और उपजातीय आधार पर नयी गोलबंदी शुरू हुई और उनके बीच भी वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गयी. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में यह चरम पर है. पिछड़ी जातियां भी पिछड़ी और अति पिछड़ी में बंटी हुई हैं. वहां भी नये सामंतवाद और वही सामाजिक प्रतिरोध की परिस्थितियां पैदा हुई हैं, जो सामाजिक न्याय की लड़ाई के पहले थीं.

दरअसल, बिहार की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था का लाभ वहां की नेताओं ने लिया और पूरी राजनीतिक व्यवस्था को इसके इर्द-गिर्द बनाये रखा. बिहार और उत्तर प्रदेश, इन दो राज्यों की पूरी राजनीतिक धारा ही जातिवाद पर टिकी है. जाति को लेकर राजनीतिक आग्रह हिंदी पट्टी के दूसरे कुछ राज्यों में भी है, लेकिन उसका जितना उग्र स्वरूप और रूढ़ चरित्र इन दो राज्यों में है, उतना दूसरे राज्यों में नहीं है. बिहार राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश हैं, लेकिन वहां की राजनीतिक दिशा जातीय हितों का सवाल खड़ा कर फिर वहीं पहुंच जा रही है.

राजनीति में जातिवाद की जकड़ के लिए अशिक्षा और सामाजिक संस्कार की भी बड़ी भूमिका है. दक्षिण भारत को छोड़ दें, तो पूरे देश में वीरता की पूजा की प्रथा है. वीरता के प्रतीक वे भी हैं, जो सामाज के अगुवा हैं या जिनका आर्थिक वर्चस्व है. इसी सामाजिक संस्कार में हर जाति के अंदर प्रभावशाली व्यक्ति खुद को स्थापित कर उनका राजनीतिक दायरा तय करने में जुटा है. इस प्रतिमान को तोड़ने की जरूरत है और यह काम नयी पीढ़ी ही कर सकती है.

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