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जातिवाद से समावेशी विकास नहीं हो सकता

हरिश्चंद्र मिश्र शिक्षाशास्त्री, शांति निकेतन जातिवादी व्यवस्था तो मानव सभ्यता के इतिहास का बड़ा हिस्सा है. धार्मिक विश्वास ने इस व्यवस्था को स्वीकृति दी और इसकी जड़ें भारतीय समाज में बहुत मतबूत हुईं. इसके अपने तर्क थे. अपनी प्रासंगिकता थी. समाज के कर्म और आर्थिक स्वरूप को गढ़ने में इसकी मदद ली गयी और इसे […]

हरिश्चंद्र मिश्र

शिक्षाशास्त्री, शांति निकेतन

जातिवादी व्यवस्था तो मानव सभ्यता के इतिहास का बड़ा हिस्सा है. धार्मिक विश्वास ने इस व्यवस्था को स्वीकृति दी और इसकी जड़ें भारतीय समाज में बहुत मतबूत हुईं. इसके अपने तर्क थे.

अपनी प्रासंगिकता थी. समाज के कर्म और आर्थिक स्वरूप को गढ़ने में इसकी मदद ली गयी और इसे कभी स्थूलता प्रदान नहीं की गयी थी. यह रूढ़ नहीं था, अपितु इसमें आंतरिक स्वतंत्रता और कर्म के आधार पर जाति के निर्धारण या अनुकरण की लोच थी. यह सभी जानते हैं कि भारतीय सामाजिक संरचना की जिस अवधारणा के आधार पर जातीय व्यवस्था स्थापित की गयी थी, वह कालांतर में लुप्त हो गयी और इस व्यवस्था में वंशगत जाति ने ठोस रूप ले लिया. इससे उत्पन्न विसंगतियों और कठिनाइयों को समाज ने बहुत गहराई तक महसूस किया और इसे तोड़ने की काफी कोशिशें हुईं.

सामाजिक सुधार के आंदोलनों का लंबा इतिहास हमारे साथ है. महात्मा गांधी और उनके समकालीन सामाज सुधारकों को यह विश्वास था कि स्वतंत्रता के बाद के भारतीय समाज में जातिगत विभेद की मानसिकता कमजोर पड़ जायेगी और समतामूलक समाज बनेगा. हमारे संविधान ने भी यही विश्वास किया और यही गारंटी दी, लेकिन जिन राजनीतिक दलों को सामाजिक सुधार और जातिवाद की जड़ों को कमजोर करने की जवाबदेही लेनी थी, उन्होंने इसके विपरीत काम किया. उन्होंने जातिवाद की गांठों को पानी डाल कर और भी मजबूत कर दिया. आज बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की राजनीति पर इसका ज्यादा असर है.

जातीय आधार पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को उन्होंने खत्म करने की बजाय, उसे और मजबूती दी, ताकि उनके आर्थिक वर्चस्व के संघर्ष को अपने हित में भुना सकें. आज वही हो रहा है. मेरी राय है कि यह जातिवादी राजनीति समाज और सत्ता दोनों को दूषित करती है और समावेशी विकास की आवश्यकता को यह कभी पूरा नहीं होने देगी, लेकिन इसके खिलाफ आवाज कौन उठाए? सत्ता और ताकत उन्हीं के पास है. वह इसमें सुधार कभी नहीं चाहेंगे, क्योंकि वह न तो समाज के प्रति ईमानदार हैं, न विकास के प्रति.

राजनीति में नये प्रयोग की संभावनाओं को भी बिहार जैसे राज्य में वह आजमाना न तो जरूरी समझते हैं, न सुरक्षित. इसलिए बात टिकट बांटने की हो या चुनावी समीकरण तैयार करने की, जाति के प्रभाव से कोई दल बाहर नहीं है. सभी दल किसी-न-किसी जातीय वर्ग का प्रतिनिधित्व करते नजर आ रहे हैं. इसके खिलाफ सामाजिक मुहिम चलाने की जरूरत है.

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