जीवन के संघर्ष सुभाषिनी मिस्त्री को कभी तोड़ नहीं पाये, बल्कि जिंदगी के मुश्किल दौर ने उन्हें कुछ अलग करने का सपना दिखाया. इसी सपने ने इस सब्जी बेचनेवाली को अस्पताल चलानेवाली महिला की पहचान दे दी..
कहने को तो जीवन अनमोल है, फिर क्यों जिंदगी की कीमत कागज के चंद टुकड़ों से कम होती है? डॉक्टर की महंगी फीस और अंगरेजी दवाओं का खर्च न उठा पाने के चलते क्यों बहुत-सी महिलाएं विधवा, बच्चे अनाथ और परिवार बेसहारा हो जाते हैं?
इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए कोलकाता की एक मामूली सब्जी बेचनेवाली सुभाषिनी मिस्त्री ने अस्पताल बनाने तक का सफर तय किया. ताकि फिर किसी गरीब को जिंदगी में दर्द भरे वे दिन न देखने पड़ें, जो कभी सुभाषिनी ने देखे थे.
पति की बीमारी ने दिया जीवन को एक मकसद
सुभाषिनी मिस्त्री महज 23 वर्ष की थीं, जब पति की बीमारी और गरीबी ने उन्हें विधवा बना दिया था. सुभाषिनी के 35 वर्षीय पति की मृत्यु इसीलिए हो गयी, क्योंकि वे पैसों की तंगी की वजह से अपना उपचार नहीं करा सके. अस्पताल बनाने का फैसला तो सुभाषिनी तभी कर चुकी थीं, जब वे हर दिन अपने पति को कष्ट सहते देखती थीं, लेकिन पति की मृत्यु के बाद चार बच्चों की जिम्मेदारी उन पर ही आ गयी.
ऐसे में उनके लिए इस फैसले को हकीकत में बदलना आसान नहीं था. वह दौर तो इतना मुश्किल था कि बच्चों का पेट पालने के लिए कभी-कभी सुभाषिनी को पड़ोसियों के आगे हाथ फैलाने पड़ जाते थे. वे पड़ोसियों से चावल का मांड़ मांग कर अपने बच्चों का पेट भरती थीं. जब वह भी नसीब नहीं होता, तो उन्हें अपने बच्चों को उबली हुई घास भी खिलानी पड़ जाती थी. उस दौरान जब वे किसी से अस्पताल बनाने के सपने का जिक्र करती थीं, तो लोग उनका मजाक उड़ाते थे.
मेहनत से तिनका-तिनका जोड़ा
अपने बच्चों की परवरिश के लिए सुभाषिनी ने लोगों के घर के बरतन मांजे, झाड़ू-पोंछा किया, जूते पॉलिश किये, मजदूरी और ऐसे ही कई मुश्किल काम किये. बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने और अस्पताल बनवाने के अपने सपने को साकार करने के लिए सुभाषिनी ने कोलकाता के सेंट्रल पार्क में 20 सालों तक सब्जी बेची. इतना ही नहीं, उन्होंने कभी भी खुद पर एक रुपया अनावश्यक खर्च नहीं किया. पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के साथ वे अस्पताल के लिए भी पैसे इकट्ठा करती रहीं. शुरू में सुभाषिनी पांच पैसा कमाती थीं. दो पैसे घर का किराया देती थीं, दो पैसे राशन में खर्च होते थे और एक पैसा अस्पताल के लिए बचाती थीं. तिनका-तिनका करके जुटाई गयी राशि से सुभाषिनी ने 1993 में अस्पताल के लिए एक एकड़ जमीन खरीदी और 1994 में झोपड़ी का रूप देकर अपने अस्पताल की शुरुआत की. सुभाषिनी के प्रयास से आसपास के डॉक्टर उनके अस्पताल में मरीजों को देखने आने के लिए तैयार हो गये और पहले ही दिन इस अस्पताल में 250 से भी ज्यादा मरीजों का उपचार किया गया.
दस वर्षो बाद सपना हुआ साकार
दस वर्षो के कठिन संघर्ष के बाद एक क्षेत्रीय नेता के सहयोग से सुभाषिनी को अपने ह्यूमैनिटी हॉस्पिटल के सपने को हकीकत में बदलते हुए देखने का मौका मिला. 2002 में अस्पताल की इमारत तैयार हुई. आज अस्पताल के पास अपनी 15 हजार वर्ग फुट जमीन, 100 बिस्तर और ऑपरेशन थिएटर है और प्रतिदिन 50-100 मरीज मुफ्त इलाज के लिए आते हैं. जिंदगी के तमाम संघर्षो का सामना करते हुए सुभाषिनी ने गरीबों के लिए एक अस्पताल ही नहीं शुरू किया, बल्कि अपने बड़े बेटे अजय को भी डॉक्टर बनाया. आज अजय ही इस अस्पताल की जिम्मेवारियों को निभाने में उनका साथ देते हंै. वह अस्पताल में आये मरीजों का उपचार करते हैं. उनकी पत्नी मरीजों को खाना खिलाती हैं और सुभाषिनी की बेटी मरीजों की देखभाल करने में मदद करती हैं.