।।उत्तम सेनगुप्ता।।
(डेपुटी एडिटर, आउटलुक)
उत्तम सेनगुप्ता उन दिनों पटना में अंगरेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के रेसिडेंट एडिटर थे. उन्होंने बहुचर्चित पशुपालन घोटाला प्रकरण की जांच को बड़े करीब से देखा है. कई मुद्दों को उजागर भी किया है. हाल में अंगरेजी साप्ताहिक ‘आउटलुक’ के अंक (14 अक्टूबर, 2013) में इस प्रकरण पर एक लंबा लेख लिखा है. इसका शीर्षक है- ‘द अनमेकिंग ऑफ लालू यादव’. इस लेख में ऐसे कई तथ्यों पर रोशनी डाली गयी है, जो अबतक अचर्चित हैं. पढ़िए लंबे आलेख के हिंदी अनुवाद की पहली कड़ी.
पीछे मुड़ कर देखें, तो यह तथ्य काफी दिलचस्प लगेगा कि वर्ष 2004 से 2009 तक, यानी जब लालू प्रसाद केंद्रीय रेल मंत्री थे, उनके दामन पर घोटाले का एक भी छींटा नहीं पड़ा था. लालू एक ऐसे राजनेता हैं, जिनका नाम चारा घोटाले का पर्याय बन गया है, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनकी पारी आश्चर्यजनक ढंग से बेदाग रही है. लालू ने खुद मुझसे कहा था, ‘मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि मुझ पर निगाह रखने के लिए वे सीबीआइ और आइबी को लगा सकते हैं. यहां कई लोग ऐसे हैं, जो मेरे लड़खड़ाने का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन मैं उनकी हसरत पूरी नहीं होने दूंगा.’ उसी मुलाकात के दौरान मैंने लालू प्रसाद से पूछा था कि आखिर क्या वजह है कि केंद्रीय मंत्री के तौर पर वे इतने सफल हैं, लेकिन राज्य में निराशाजनक रूप से असफल रहे? उनका शांत आवाज में जवाब था, ‘मुझे कुछ करने के लिए वक्त ही कहां मिला? मुङो जेल में डाल दिया गया. मैं क्या कर सकता था?
चारा घोटाला में लालू को सजा से एक ऐसे राजनीतिज्ञ का अवसान हुआ है, जिसमें राजनीतिक सूझ-बूझ, गंवई संस्कृति से लबरेज मसखरापन और लोगों से जुड़ने की अद्भुत योग्यता थी. उनका कैरियर उम्मीदों से भरा हुआ था. विडंबना यह है कि जिन चीजों के लिए उन्हें सजा मिली है, संभवत: कई दूसरे मुख्यमंत्री भी दोषी हैं. 1200 करोड़ का घोटाला ( जिसमें अधिकांश 1990 के बाद का है, जबकि कुछ तब का है, जब 1980 के दशक में डॉ जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे) बाद के दूसरे घोटालों की तुलना में नगण्य है. लेकिन लालू को अपने सहज और अक्खड़ होने का मूल्य चुकाना पड़ा. निरंतर टोही जांच, आकस्मिक पत्रकारिता और रिकार्डो के कंप्यूटरीकरण की भी सजा उन्हें भुगतनी पड़ी है. यह अवसान की ओर जा रहे एक ऐसे व्यक्ति की अनकही कहानी है, जो प्रधानमंत्री हो सकता था.
चंद्रगुप्त का उदय : मार्च, 1990
साढ़े आठ बज गये थे. दो घंटे पहले यानी साढ़े छह बजे लालू प्रसाद तीन-तरफा मुकाबले के बाद जनता दल विधायक दल के नेता चुन लिये गये थे, लेकिन गंगा के घाट पर बने ब्रजकिशोर हॉल में इस घोषणा का स्वागत मुर्दनी खामोशी से किया गया था. ज्यादातर विधायक दस्तों में बाहर निकले और अपने-अपने गंतव्यों की ओर रवाना हो गये. हां, उनके दर्जनों समर्थक जरूर हॉल के भीतर घुसे और उन्हें गले से लगा लिया, लेकिन विधायकों के बीच का माहौल काफी उदासीभरा था. दो घंटे के बाद पटना वेटेरिनरी कॉलेज के सामने सैकड़ों गाड़ियां और एक बहुत बड़ी हंगामाखेज भीड़ मालाओं के साथ ‘मैन ऑफ द मोमेंट’ का इंतजार कर रही थीं. काफी हड़बड़ी में गायों के तबेले के सामने एक छोटा सा शामियाना लगा दिया था, लेकिन भावी मुख्यमंत्री का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था. आधी रात के काफी बाद आखिरकार लालू प्रसाद आये. उस वक्त तक ज्यादातर लोग जा चुके थे, लेकिन लालू के 50 के करीब वफादार साथी अब भी वहां जमा थे. उतनी रात गये भी लालू प्रसाद मुङो और मेरे पत्रकार बंधु अनिरुद्ध मुखर्जी उर्फ झंपन को इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो गये. लेकिन, इससे पहले उन्होंने अपने हर समर्थक से मुलाकात की.
हम लोग शामियाने के नीचे बैठ गये और काफी देर तक बातचीत करते रहे. मुख्यमंत्री चुने गये लालू प्रसाद ने अपने जीवन का लंबा वक्त वेटेरिनरी कॉलेज के चपरासियों के क्वार्टर में बिताया था और उनका दावा था कि वे आज भी वहीं रहते हैं. बेशक, मुख्यमंत्री बनने के बाद वे मुख्यमंत्री के आलीशान बंगले में शिफ्ट कर गये. उस इंटरव्यू के दौरान उनका सबसे यादगार जवाब इस सवाल पर आया था, ‘इससे पहले मंत्री नहीं बनने का क्या कोई मलाल रहा है? लालू का जवाब था, ‘जो चाणक्य बनना चाहते हैं, वे चाणक्य की तरह बर्ताव करें. मैं बस इतना जानता हूं कि मैं पाटलीपुत्र में चंद्रगुप्त के तौर पर उभरूंगा.’
दो साल के बाद मैं मुख्यमंत्री से मिलने गया. मेरे साथ काटरूनिस्ट आरके लक्ष्मण, टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर इन चीफ दिलीप पडगांवकर और अरविंद नारायण दास थे. वह मुलाकात काफी अच्छी रही थी. लेकिन जब मैंने आरके लक्ष्मण के लिए कार का दरवाजा खोला, उस वक्त उन्होंने जो कहा वह थोड़ा विचित्र था. ‘मैंने इस आदमी को गौर से देखा. यह आदमी किसी देवदूत जैसा शैतान (एंजेलिक डेमन) है.’ इस मुलाकात के दौरान लालू के व्यक्तित्व की मोहकता को महसूस किया जा सकता था. उन्होंने आरके लक्ष्मण से कहा, ‘बिहार रिच, वेरी रिच’ , ‘बट पीपुल पूअर’(बिहार बहुत धनी है, पर लोग गरीब हैं). दिलीप ने अपनी हंसी को दबाने की पूरी कोशिश की, जबकि अरविंद नारायण दास ने पूरी शिद्दत के साथ मुख्यमंत्री से जिरह किया. लक्ष्मण ने ज्यादा कुछ नहीं कहा था और लालू को देख कर सिर हिला दिया था.’ मैं यह जानने के लिए उत्सुक था कि लक्ष्मण ने जो कहा, उसकी वजह क्या थी. लेकिन, उनका कार्यक्रम काफी व्यस्त था. लक्ष्मण और दिलीप को पटना पुस्तक
मेले में भीड़ ने घेर लिया और सेलेब्रिटी के भूखे शहर पटना ने उन दोनों को कभी अकेला नहीं छोड़ा.’
लक्ष्मण के बयान को जो चीज ज्यादा विचित्र बना रही थी, वह था उनका समय का चयन. लालू उस समय अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे. मीडिया उनकी बातों को हाथों-हाथ लेती और वे गर्व से घोषणा किया करते थे कि वे बिहार पर अगले बीस साल तक राज करेंगे और अपने विरोधियों को धूल में मिला देंगे.
दिल्ली के साथ उनका हनीमून बस शुरू ही हुआ था और राष्ट्रीय मीडिया ने उन्हें ‘लल्लू’ कहना बंद कर दिया था. बाबरी मसजिद के विध्वंस और बिहार में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी, जहां उनकी यात्र रोक दी गयी थी, के बाद के सांप्रदायिक माहौल को उन्होंने जिस तरह से संभाला था, उसने उनके इर्द-गिर्द एक आभामंडल का निर्माण किया था. अरविंद नारायण दास ने कहा, ‘यह आदमी गृह मंत्री बनने के लायक है.’ और मेरा मानना है कि दिलीप पडगांवकर और हरीश खरे, जो उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया के सीनियर एडिटर थे और बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार बने, भी उनके इस आकलन से इत्तिफाक रखते थे.
पशुपालन घोटाले का पहला सुराग
मैं तब रांची एयरपोर्ट पर था, जब 1992 की शुरुआत में ही पशुपालन विभाग के घोटाले का पहला सुराग बाहर आया. ऐसा लगता है कि इस दृश्य को खासतौर पर टीवी के लिए तैयार किया गया था. दिल्ली के लिए उड़ान भरने को तैयार एयर इंडिया का एक विमान उड़ान भरने के लिए पार्किग बे से धीरे-धीरे सरकना शुरू ही किया था कि आयकर विभाग की एक टीम वहां पहुंची और अधिकारियों से पायलट को विमान रोकने को कहा. उन्हें सूचना मिली थी कि पशुपालन विभाग के कुछ अधिकारी और उनके परिवार के सदस्य भारी मात्र में नकदी (अनअकाउंटेड कैश) और गहनों के साथ विमान में यात्र कर रहे हैं. उनके पास उन्हें गिरफ्तार करने का वारंट भी था. विमान रोक दिया गया और उन्हें विमान से उतरने को कहा गया. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जब समूह के सदस्यों को टर्मिनल की ओर ले जाया जा रहा था, उस वक्त कइयों ने अपने हैंडबैगों और ब्रिफकेसों से नकद और गहने निकाल कर जमीन पर गिरा दिये. स्थानीय अखबारों ने इस सनसनीखेज खबर को उठाया, लेकिन दूसरों ने इसका फॉलोअप नहीं किया. यहां तक कि आयकर विभाग ने भी इस मामले को दबा दिया और इस पूरे मामले पर चुप्पी साध ली.
1993 आते-आते लालू प्रसाद से मोहभंग होना शुरू हो गया था. अपने लोगों को काबू में रखने की लालू की नाकामी, कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और मीडिया को साधने की उनकी कोशिशों ने बड़े पैमाने पर असंतोष को जन्म दिया था और साथ ही लालू से जुड़े कई चुटकुले प्रचलित हो गये थे. लालू राज के तीन साल पूरे होने पर मैंने एक लेख लिखा था, जिसमें मैंने लालू को बिहार का क्लाउनिंग ग्लोरी बताया था. इसके चंद दिनों के भीतर, किसी ने मुझ पर टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर के सामने गोलियां दागीं, लेकिन उसका निशाना चूक गया. एक देसी कट्टे से दागी गयी .315 गोली कार की बॉडी के आरपार चली गयी और आगे की सीट में जाकर धंस गयी. उस रात लालू खुद टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर पहुंचे और पूछा कि क्या इसका कोई नाता प्रोपर्टी या प्रशासनिक कदम से हो सकता है? आधी रात के काफी बाद जब मैं घर पहुंचा, तो दिल्ली से राजेश पायलट का फोन आया. पायलट उस वक्त आंतरिक सुरक्षा के राज्यमंत्री थे. मैं उनसे कभी नहीं मिला था. उनका सवाल था कि क्या इस हमले में मुङो मुख्यमंत्री की मिलीभगत का शुबहा है? मेरे ‘न’ में जवाब देने पर उन्हें जरूर निराशा हुई थी. मुङो शक था कि यह हमला राज्यसभा के लिए नामांकित एक सांसद की शह पर किया गया था, लेकिन मेरे पास इसका कोई सबूत नहीं था, इसलिए मैंने अपने इस संदेह का इजहार नहीं किया.
पीएम इन वेटिंग और पशुपालन विभाग
आम चुनाव मुश्किल से पांच महीने दूर था और 1996 में गंठबंधन सरकार का बनना लगभग तय माना जा रहा था. यह चर्चा आम थी कि लालू अगली गंठबंधन सरकार का नेतृत्व कर सकते हैं. आलोचकों और भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू की जीत हुई थी. मुख्यमंत्री के तौर पर लालू पहली दफा विदेश यात्रा करके आये थे. उन्होंने बिहार में निवेश के लिए अप्रवासी भारतीयों के एक सम्मेलन का आयोजन भी किया था. ऐसा लग रहा था कि लालू की किस्मत का सितारा अभी और ऊपर जायेगा. ऐसे ही माहौल में मैंने लालू से इंटरव्यू की इच्छा जाहिर की. मेरा उनसे सवाल था, ‘क्या आपको लगता है कि आपके प्रधानमंत्री बनने की वास्तव में कोई संभावना है?’ लालू ने मेरी तरफ कुछ इस तरह देखा, जैसे मैं बेवकूफ हूं. उनका जवाब था, ‘दादा, अगला चुनाव मिला-जुला परिणाम देगा. क्या मुङो कुत्ते ने काटा है कि मैं एक अस्थिर गंठबंधन का नेतृत्व करूंगा? नहीं, मैंने अपनी निगाहें इस चुनाव के बाद के चुनाव पर टिका रखी है. उस समय मैं बहुमत के साथ जीतूंगा और प्रधानमंत्री बनूंगा.’ वे शरारतभरे अंदाज में मुस्कुराये और कहा, ‘तब मैं आपको दिल्ली लेकर चलूंगा.’
रांची दौरे के दौरान मुङो चारा घोटाले के बारे में पहली जानकारी मिली. आइएएस अधिकारी अमित खरे, जो चाईबासा में डिप्टी कमिश्नर के पद पर तैनात थे, ने ट्रेजरी से पशुपालन विभाग के अधिकारियों द्वारा धोखाधड़ी से पैसे निकाले जाने के मामले को उजागर किया था. जांच के दौरान उन्होंने पाया कि ट्रेजरी अधिकारी ने कई बार रात में ट्रेजरी को खोला और करोड़ों रुपये के चेक जारी किये. इस मामले में पटना और रांची के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ ही चाईबासा के अधिकारियों की संलिप्तता के सबूत साफ तौर पर दिख रहे थे. आखिर जिला अधिकारी को क्या करना चाहिए था? उस वक्त लालू संभवत: उल्लास में डूबे हुए थे या दिल्ली में ऐसा उत्सव जैसा माहौल था कि उनके पास इस पर गौर करने का वक्त नहीं था. उन्होंने प्रतीक्षा करने की बजाय दोषियों को पकड़ने की इजाजत दे दी.
इस सिलसिले में गिरफ्तारियों का व्यापक असर हुआ. पशुपालन विभाग से अवैध निकासी की ऐसी खबरें दूसरे जिलों से भी आने लगीं. इसके तत्काल बाद सीबीआइ जांच के लिए पटना हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर दी गयी. पशुपालन विभाग को बहुत महत्व नहीं दिया जाता था और न ही इसका बजट अधिक था(1996 तक राज्य में इस विभाग का कुल बजट 48 करोड़ से अधिक नहीं हुआ था). लेकिन इसके अधिकारी हमेशा पैसे के खेल में लगे रहते थे. लोग मानते थे कि यह कमाऊ विभाग है. हालांकि उनका वेतन आकर्षक नहीं था और यहां तक कि क्षेत्रीय निदेशक को भी प्रतिमाह 12 हजार रुपये ही मिलते थे, लेकिन इन अधिकारियों के परिवार में शादियां भव्य होती थी, महमानों को महंगे गिफ्ट दिये जाते थे और आइटम नंबर के लिए मुंबई व कोलकाता से कलाकारों को बुलाया जाता था. रांची के क्षेत्रीय निदेशक श्याम बिहारी सिन्हा और उनके अधीनस्थ अधिकारी इतने दयालु थे कि जिन्हें भी जरूरत होती उन्हें बड़ी रकम दे देते थे.
रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और राज्य सभा और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके स्वर्गीय राम दयाल मुंडा ने मुङो कहा था कि एक बार उन्होंने सिन्हा से अमेरिका जाने के लिए 10 हजार रुपये उधार मांगा, लेकिन वे तब शर्मिदा हो गये जब सिन्हा ने अपने दूत के जरिये 50 हजार रुपये नकद भेज दिया. भाजपा सांसद शत्रुघन सिन्हा ने बताया था कि केएम प्रसाद के पुत्र, जो उनके सहयोगी भी थे, ने तब मुंबई में दो करोड़ की कीमत वाले चार फ्लैट खरीदने का प्रस्ताव इस शर्त पर दिया कि फिल्मस्टार की रियल एस्टेट कंपनी इसे नकद में स्वीकार करे. शुरुआती दौर में इस बात का पता नहीं था कि उन्होंने पैसा कैसे कमाया है. यहां तक कि अगर वे वैसे सामान से पैसा बनाने में व्यस्त थे, जिसकी आपूर्ति ही नहीं की गयी, तब भी सवाल उठता था कि इतने कम बजट से वे इतना पैसा कैसे कमा सकते हैं?
ऐसे में थोड़ी निराशा में हमलोगों ने टाइम्स ऑफ इंडिया में इन अधिकारियों के गांवों में आलीशान घरों को फोकस करने का निर्णय लिया. हर दिन एक कैप्शन के साथ अखबार में तसवीर छपती थी और पाठकों से मकान की कीमत का आकलन करने के लिए कहा जाता था. कैप्शन में मकान की जगह, गांव का नाम और मकान के मालिक के बारे में गांव वालों की राय और विभाग भी जोड़ दिया जाता था. ये घर बिल्कुल अलग दिखते थे. आलीशान बंगले सुनसान जगहों पर बने थे. कुछ घरों में छत तक गाड़ी जाने के रास्ते बने थे. इस अभियान से व्यापक पैमाने पर अन्य घरों के बारे में और घोटाले तथा घोटालेबाजों के बारे में गुममान सूत्रों से जानकारियां सामने आने लगीं. इस अभियान के शुरू होने के एक हफ्ते बाद आयकर विभाग के कमिश्नर ने मुङो अनुरोध के साथ बुलाया. उन्होंने पूछा, क्या आप पटना में निर्माणाधीन एक मकान की तसवीर छाप सकते हैं? उनकी जानकारी के मुताबिक यह घर मुख्यमंत्री या उनके साले का था, लेकिन इसके बारे में जांच करने पहुंचे अधिकारियों से बदसलूकी की गयी थी. उन्हें धमकी भरे फोन आने लगे कि अगर उन्होंने जांच जारी रखी तो उनकी पत्नी और बच्चों का अपहरण कर लिया जायेगा. कमिश्नर ने कहा कि इस घर की तसवीर प्रकाशित होने पर उन्हें कानपुर से एक विशेष टीम गठित कर जांच करने में मदद मिलेगी. इस काम के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया के फोटोग्राफर कृष्ण मोहन प्रसाद को लगाया गया और हिदायत दी गयी कि वे किसी निर्माणाधीन मकान से ही इस घर की तसवीर लें. उसी शाम मुङो हिंदुस्तान टाइम्स के स्थानीय संपादक र्तीथकर घोष का फोन आया, जो यह जानना चाहते थे कि हम किस तरह की तसवीर प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं? मुख्यमंत्री कार्यालय ने उनसे संपर्क कर आग्रह किया था कि मुख्यमंत्री से संपर्क किये बिना वे इस मकान की तसवीर प्रकाशित न करें. मुङो इस बात का पता नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है, वे थोड़ा रुके और जानना चाहा कि क्या हो रहा है? मैंने इस बारे में कोई जानकारी नहीं होने का बहाना बनाया और कहा कि जिलों के कई फोटो हमारे पास हैं, लेकिन पटना का एक भी नहीं है. कुछ घंटे बाद उन्होंने फिर फोन किया और फिर वही बात दोहरायी. उन्होंने कहा कि आपके लिए एक मंत्री को भेज दिया गया है. कृष्ण मोहन का भाई हिंदुस्तान टाइम्स का फोटोग्राफर था और किसी ने दोनों
की पहचान को मिला दिया था. हमें उसी दिन उस फोटोग्राफ को प्रकाशित करना था और हमने इस कैप्शन के साथ प्रकाशित किया कि आयकर विभाग इस घर के मालिक का पता लगाने में असमर्थ है और इस बारे में जानकारी देनेवाले का धन्यवाद होगा. कुछ महीने के बाद नवादा की एक घरेलू महिला ने इस मकान पर अपना दावा जताया और कहा कि उसने इसका निर्माण कृषि से होनेवाली आय से किया है.
एक दिन एक गुमनाम व्यक्ति ने जानकारी दी कि पटना म्यूजियम के सामने एक घर बन रहा है. न तो गार्ड और न ही इसका देखरेख कर रहा व्यक्ति बता रहा है कि सफेद संगमरमर से बन रहे पांच बेडरूम वाले इस मकान का मालिक कौन है. आर्किटेक्ट और ठेकेदार का जब पता चला, तो वे भी जवाब दिये बिना भाग गये. राजस्व विभाग के दस्तावेजों से पता चला कि आजादी से पहले यह जमीन एक बंगाली परिवार को लीज पर दी गयी थी, जो कोलकाता चले गये और जीवित नहीं हैं. इस सफेद घर में मार्बल और लाल पत्थर लगे थे, बड़े-बड़े बाथरूम में आकर्षक शीशे और चमकदार लाइटिंग थी.