सृजन-संवाद:अरविंद गौड़
अरविंद गौड़ की प्रसिद्धि रंगमंच को एक्टिविज्म से जोड़नेवाले नाट्य निर्देशक के तौर पर है. ‘अस्मिता’ नाट्य समूह के माध्यम से मंच से लेकर गली-मोहल्लों तक वह सामाजिक विसंगतियों पर सवाल उठाते हैं. अरविंद गौड़ से प्रीति सिंह की बातचीत के अंश.
कौन सा आकर्षण है, जिसने आपको रंगमंच की ओर खींचा?
इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ कर मैंने पत्रकारिता की, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में काम किया, पेंटिंग और फोटोग्राफी भी की. बहुत से माध्यमों में तलाश किया, लेकिन मेरे आस-पास की जिंदगी के सवालात, अंदर की छटपटाहट कहीं आ नहीं पा रही थी. तलाश के इस क्रम में ही रंगमंच में आया और मुङो लगा कि यही वह माध्यम है जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.
पहले आपने भी कहीं सीखा होगा ?
मैंने थियेटर देख कर, पढ़ कर और करते हुए सीखा. किसी संस्थान में कोई विधिवत ट्रेनिंग नहीं ली. हबीब तनवीर साहब के साथ जरूर असिस्टेंट, डिजाइनर और लाइटमैन के रूप में काम किया. उनके व्यक्तित्व और काम दोनों ने मुङो बहुत प्रभावित किया. यह प्रभाव कहीं न कहीं मेरे काम में भी दिखता है. उनका जो सोशल और पॉलिटिकल कमिटमेंट था, वह मेरे काम में भी आया. इसके अलावा मैंने दुनियाभर का थियेटर देखा.
‘अस्मिता’ नाट्य समूह शुरू करने का ख्याल कैसे आया?
‘अस्मिता’ से पहले मैं नुक्कड़ नाटक तो करता था, लेकिन मंच के नाटक कम किये थे. मैंने मंडी हाउस के दोस्तों को इकट्ठा करके अस्मिता बनाया. हमने पहला शो भीष्म साहनी का ‘हानूश’ किया. लेकिन, जिस दिन शाम को शो था, सुबह नाटक के एक सीनियर एक्टर, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से प्रशिक्षित थे, उन्होंने कहा, मुङो पैसा दीजिए, नहीं तो मैं नहीं करूंगा. हमने मिलकर एक ग्रुप बनाया था और पैसा नहीं था हमारे पास. फिर मैंने वो कैरेक्टर किया और शो हाउसफुल रहा. लेकिन मैंने वहां से सीखा कि अपने एक्टर खुद ट्रेंड कंरूगा. एक साल बाद सारे एक्टर मेरे अपने थे. इन बीस वर्षो में एक्टर ट्रेंनिंग पर बहुत काम किया. हमने किसी को रिजेक्ट नहीं किया. हां, सीखने आनेवालों को अपना पैशन, ऊर्जा और समय देना होता है. मेरा थियेटर एक तरह से युवाओं का थियेटर है.
थियेटर ने एक्टिविज्म का रूप कैसे लिया ?
मेरा थियेटर समाज से जुड़ा हुआ है, और जब समाज से जुड़े मुद्दों को आप उठायेंगे, उसमें एक्टिविज्म तो अपने आप आ जायेगा. मैंने अपने आसपास के समाज में बचपन से विषमता और शोषण को देखा तथा महसूस किया है. मेरे पिता शिक्षक थे. हम लोवर मिडिल क्लास परिवार से हैं. तमाम चीजों के बीच से गुजरते हुए हमारी पढ़ाई हुई. मुझसे बड़ी, मेरी दो बहनें हैं. एक बहन की दहेज उत्पीड़न से शादी के चार साल के भीतर मौत हो गयी. ये अनुभव मेरे नाटकों में आते हैं. मेरा रंगमंच, मेरी और मेरे जैसे लाखों लोगों की जिंदगी का रंगमंच है.
आपका ‘आंबेडकर और गांधी’ नाटक बहुत चर्चित रहा है. वर्तमान में गांधी के विचार कितने प्रासंगिक रह गये हैं?
‘आंबेडकर और गांधी’ राजेश कुमार का बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक नाटक है, जो बहुत सारे सवाल खड़े करता है. हमारे यहां बाबा साहब को एक विशेष वर्ग का नेता बना दिया गया, जबकि उनका बहुत बड़ा कद है. ऐसा कहीं न कहीं हमारे राजनीतिज्ञों की वजह से भी है, जिन्होंने गलत ढंग से चीजों को सामने रखा ताकि उनका वोट बैंक बना रहे. ऐसे ही गांधी सिस्टम की जड़ों तक जाकर काम करना चाहते थे. दुर्भाग्य से आजादी के बाद गांधी के नाम पर तो बहुत कुछ किया गया पर गांधी के विचारों एवं उद्देश्य को भुला दिया गया. लेकिन मुङो लगता है कि आने वाले दिनों में गांधी कीप्रासंगिकता बढ़ेगी. युवा पीढ़ी उन्हें समङोगी.
अपने नाटकों की लोकप्रियता को कैसे
हम पॉलिटिकल नाटक करते हैं और देश में लोगों को ऐसे नाटक चाहिए जो सवाल खड़े करें. हमने अपना पूरा थियेटर दर्शक केंद्रित कर रखा है. दर्शकों के बल पर हमारा थियेटर है, सरकार या किसी कॉरपोरेट कंपनी के बल पर नहीं. ‘कोर्ट मार्शल’ हम छह सौ से सात सौ बार कर चुके हंै. हम मनोरंजन नहीं, परिवर्तन का रंगकर्म करते हैं.
रंगमंच को कैरियर के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता ?
इंजीनियर बनने के लिए चार साल और डॉक्टर बनने के लिए 5 साल से ज्यादा चाहिए. पर, थियेटर में एक या दो साल देने के बाद लोगों को लगने लगता है कि रोजगार क्यों नहीं मिल रहा है? जो लोग तीन से पांच साल लगन से थियेटर कर लेते हैं, आज उनके लिए काम की कमी नहीं है. पिछले एक दशक में इसमें ज्यादा अवसर आये हैं. स्कूल और कॉलेज में थियेटर टीचर रखे जाने लगे हैं. वर्कशॉप होने लगी हैं. थियेटर के लोगों को सिनेमा और टेलीविजन में ज्यादा काम मिलने लगा है. इसलिए बड़ी संख्या में युवा इसमें आये हैं. मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार में भी बहुत अच्छा थियेटर हो रहा है, क्योंकि युवा इससे जुड़े और रोजगार की संभावनाएं भी इसमें आयीं.
थियेटर के लोगों का फिल्म या टेलीविजन में चले जाना थियेटर का नुकसान नहीं है ?
बिल्कुल नहीं, यह थियेटर का एक्सटेंशन है. दोनों के बीच में एक ब्रिज होना चाहिए. पूरी दुनिया में ऐसे एक्टर हैं जो थियेटर में काम करते हैं और सिनेमा में भी. थियेटर की वजह से सिनेमा में अभिनय का स्तर बढ़ा है और इससे थियेटर महत्ता भी बढ़ी है. इसलिए अब लोग थियेटर में बच्चों को भेजने से पहले ये नहीं पूछते कि तेरा आगे क्या होने वाला है. एक उम्मीद, एक सपना जगा है. इसके बावजूद दिक्कत है, क्योंकि हमारी सरकार के पास कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है. इस वजह से छोटे शहरों से हर लेखक, रंगकर्मी, चित्रकार या जो भी अपने को संस्कृतिकर्मी कहता है, वह दिल्ली भाग कर आना चाहता है. पहले इलाहाबाद, पटना, बनारस, भागलपुर, रायपुर जैसे गढ़ थे. वहां से भी लोग दिल्ली आने लगे हैं. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का डीसेंट्रलाइजेशन नहीं हुआ है. डेवलप कर भी रहे हैं तो अम्ब्रेला ऑर्गनाइजेशन की तरह. क्यों न एक नाट्य स्कूल पटना में, एक रायपुर में खोलते? क्यों कोई छत्तीसगढ़ी बच्च यहां आकर खड़ी बोली सीखे? संस्कृति के नाम पर आप सिर्फ फेस्टिवल जैसे तमाशे कर रहे हैं. बोलियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं, क्योंकि कल्चर पॉलिसी नहीं है. आज युवा अगर कला के क्षेत्र में आ रहा है, तो वह अपनी ताकत के बल पर आ रहा है. दिल्ली में कई नाट्य समूहों के पास रिहर्सल की जगह नहीं है, जबकि सारी अकादमियां और संस्कृति मंत्रालय यहां हैं.
आप अपने रंगकर्म को शब्दों में कैसे अभिव्यक्त करेंगे ?
मेरा रंगकर्म आम आदमी की आवाज है. इसमें मैं समाज की कहानी को अच्छे से कहने की कोशिश करता हूं. फिर वह चाहे मुङो नुक्कड़ नाटक में या मंच के माध्यम से कहना पड़े.