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महासभा में बदलाव जरूरी

प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया में व्यापक तौर पर जन और धन की हानि हुई थी. आनेवाली पीढ़ी को इस तरह के युद्धों से बचाने के लिए दुनिया के तमाम प्रभावशाली नेताओं ने ऐसे संगठन के निर्माण के बारे में सोचा, जो दुनिया को ऐसे युद्धों से बचा सके. […]

प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया में व्यापक तौर पर जन और धन की हानि हुई थी. आनेवाली पीढ़ी को इस तरह के युद्धों से बचाने के लिए दुनिया के तमाम प्रभावशाली नेताओं ने ऐसे संगठन के निर्माण के बारे में सोचा, जो दुनिया को ऐसे युद्धों से बचा सके. 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की नींव रखी गयी.

अमेरिका और रूस के बीच दशकों तक जारी शीत युद्ध के तनाव को एक सीमा के भीतर रखने में इसका अहम योगदान रहा. हालांकि, समय के साथ इसकी चुनौतियां भी बढ़ती जा रही हैं और भारत, जापान, ब्राजील जैसे देशों को सुरक्षा परिषद में शामिल किये जाने की मांग तेज हो गयी है. संयुक्त राष्ट्र महासभा की आगामी बैठक के मद्देनजर इस पूरे मसले पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..

।। डॉ. रहीस सिंह।।
(विदेश मामलों के जानकार)

दुनिया जिस तेजी से बढ़ती है, उसी रफ्तार से नयी चुनौतियों और नये संघर्षो का उदय भी होता है. इन चुनौतियों और संघर्षो का केंद्र कहीं भी हो, लेकिन प्रभाव वैश्विक होता है. इसलिए इनका समाधान न होने पर विश्व समुदाय के समक्ष बड़ा संकट खड़ा हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना ऐसे ही समाधानों और शांति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हुई थी, जैसा कि उसके उद्देश्य संकल्प से पता चलता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के 68वें वार्षिक अधिवेशन तक का सफर तय करने के पश्चात यह प्रश्न अवश्य उठता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ वास्तव में ऐसे समाधानों को खोजने में सफल हो पाया है अथवा नहीं?

वर्ष 1945 में जब रूजवेल्ट, चर्चिल और स्तालिन जैसे नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक आकार देने का प्रयास किया था, तो उस समय इसका मुख्य उद्देश्य ऐसी स्थितियों का निर्माण करना था, जिसमें शांति तथा व्यवस्था को स्थायी आधार मिल सके. इसके पीछे मूल कारण विगत दो विश्व युद्धों का वह मानसिक दबाव था, जिसने मानव जीवन के ही समक्ष संकट पैदा कर दिया था. यानी, यह संस्था एक प्रकार की गारंटी थी कि भविष्य में विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियां नहीं उत्पन्न होने दी जायेंगी. दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध ने यह तय कर दिया था कि अब मानवता सुरक्षित नहीं है, क्योंकि हिरोशिमा और नागासाकी में अमेरिकी प्रयोग ने दुनिया को परमाणु बम के ढेर पर बैठाने की शुरुआत कर दी थी. शीतयुद्ध इसके अगले चरण के रूप में सामने आया, इसलिए आगे भी दुनिया इस भय से गुजरती रही कि पता नहीं कब यह प्रत्यक्ष युद्ध में बदल जाये. लेकिन, शीत युद्ध की स्थितियां प्रत्यक्ष युद्ध में नहीं बदलीं, जिसका श्रेय बहुत हद तक संयुक्त राष्ट्र को दिया जा सकता है.

इसमें कोई संशय नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र ने ऐसे तमाम विषयों और मुद्दों पर महत्वपूर्ण निर्णय लिये, जिससे कि उसके संकल्प के अनुसार दुनिया की प्रगति सुनिश्चित हो सके. लेकिन इसके विपरीत एक सच यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र अपने उद्देश्यों से अभी बहुत दूर खड़ा है. इसका कारण यह है कि वह समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने ढांचे और प्रकृति में परिवर्तन नहीं कर सका. वैसे संयुक्त राष्ट्र महासभा सामान्य संकल्पों और उद्देश्यों पर अमल करने के लिए प्रतिबद्ध रही, लेकिन जब निर्णय महाशक्तियों के खिलाफ लेना हुआ तो या तो वह ऐसा नहीं कर पायी अथवा महाशक्तियों ने इसे मानने से इनकार कर दिया. वियतनाम, निकारागुआ, सूडान, अफगानिस्तान, इराक जैसे मुद्दों पर अमेरिका ने जिस प्रकार की कार्रवाई की उससे वैश्विक राजनयन का केंद्र व्हाइट हाउस या पेंटागन ही नजर आया, संयुक्त राष्ट्र नहीं.

प्रमुख अंग

संयुक्त राष्ट्र के अंगों में पांच प्रमुख हैं- महासभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद (इकोसाक), अंतरराष्ट्रीय न्यायालय और सचिवालय. लेकिन इनमें से महासभा और सुरक्षा परिषद को कमोबेश राष्ट्रीय सरकार की सी हैसियत प्राप्त है. संयुक्त राष्ट्र में इन दोनों की स्थिति इतनी दृढ़ है कि संयुक्त राष्ट्र के प्राथमिक उद्देश्यों की प्राप्ति केवल यही अंग तय कर सकते हैं. वैसे, बाध्यकारी निर्णयों के संदर्भ में सुरक्षा परिषद को श्रेष्ठ स्थिति प्राप्त हो जाती है और यह अपने प्रभाव के कारण महासभा के निर्णयों को आच्छादित भी कर देती है.

महासभा

जहां तक महासभा का प्रश्न है, तो वह संयुक्त राष्ट्र की सर्वागीण संस्था है. इसमें संयुक्त राष्ट्र के समस्त सदस्य राष्ट्रों का सम प्रतिनिधित्व है. वह संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र के अंतर्गत आनेवाले समस्त विषयों और संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अंगों की कार्यपरिधि में आनेवाले विभिन्न प्रश्नों पर विचार करती है. संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 10 इसकी शक्तियों और कार्यो का स्पष्ट वर्णन करता है, इसलिए इसके कार्यों एवं अधिकारों में अस्पष्टता नहीं रह जाती.

महासभा का जिन विषयों पर विमर्श करना प्रमुख दायित्व है, उनमें नि:शस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियंत्रण के सिद्धांत और अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा संबंधी प्रश्न आते हैं. अंतरराष्ट्रीय सहयोग की वृद्धि, अंतरराष्ट्रीय विधि का विकास और संहिताकरण, मानवमात्र के मौलिक अधिकार आदि विषयों पर अध्ययन की व्यवस्था करके वह इन विषयों पर प्रस्ताव ला सकती है. यही नहीं, महासभा उन स्थितियों की ओर सुरक्षा परिषद का ध्यान आकृष्ट कर सकती है, जिनसे शांति एवं सुरक्षा को संकट की आशंका है. लेकिन वास्तव में उसके प्रस्ताव आदेशात्मक न होकर केवल नैतिक बल रखते हैं, इसलिए यह जरूरी नहीं होता कि इसके द्वारा लाये गये प्रस्तावों पर कार्रवाई सुनिश्चित हो.

वार्षिक अधिवेशन

सामान्यत: महासभा वार्षिक, विशेष और आपात अधिवेशन में मिलती है, जो सितंबर के तीसरे मंगलवार से शुरू होता है. इसमें आरंभिक दो सप्ताहों के लिए, सामान्य बहस जारी रहती है, जिसमें महासचिव और अध्यक्ष के बाद हर प्रतिनिधि को सभा के सामने व्याख्यान देने का अवसर दिया जाता है. महासभा के विशेष अधिवेशन को सुरक्षा परिषद या सभा के बहुमत के अनुरोध पर बुलाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि महासभा के गठन के बाद से अब तक उन वैश्विक मुद्दों पर, जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है जैसे- फिलिस्तीन का प्रश्न, संयुक्त राष्ट्र वित्त, नि:शस्त्रीकरण, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग, ड्रग, पर्यावरण, जनंसख्या, महिला, सामाजिक विकास, मानव स्थापन, एचआइवी/ एड्स, रंगभेद और नामीबिया आदि पर दो दर्जन से अधिक विशेष अधिवेशन बुलाये जा चुके हैं. कुछ विषयों पर जब सुरक्षा परिषद में गतिरोध बना रहा, उन पर आपातकालीन अधिवेशन बुलाये गये.

बदलाव की मांग

कुल मिला कर महासभा ने पिछले वर्षों में विश्व की विभिन्न जटिल समस्याओं पर विचार किया और कोरिया, ग्रीस, फिलिस्तीन, स्पेन आदि के प्रश्न पर उचित कार्रवाई भी की. वर्ष 1959 में ब्रिटेन, फ्रांस और इस्नइल द्वारा स्वेज पर किये गये आक्रमण को रोकने संबंधी निर्णय लिये. इन तमाम मुद्दों में से बहुत से विषयों पर परिणाम बेहतर आये, जबकि कुछ पर अमेरिका या अन्य ताकतों के साथ गतिरोध होने के कारण ऐसा नहीं हो सका. यही कारण है कि अब इसके पुनरुद्धार या परिवर्तन की मांग जोर पकड़ रही है. भारत लगातार कहता चला आ रहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र महासभा के पुनरुद्धार के लिए जारी प्रयास में अपनी हिस्सेदारी और रचनात्मक समर्थन के लिए प्रतिबद्ध है.

वास्तव में यदि महासभा का पुनरुद्धार होता है या इसे अधिक ताकत प्रदान की जाती है, तो संयुक्त राष्ट्र का स्वरूप अधिक लोकतंत्रत्मक होगा अन्यथा जब तक सुरक्षा परिषद के पास कार्यपालिका संबंधी अधिकार बने रहेंगे, तब तक संयुक्त राष्ट्र लोकतांत्रिक भावनाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पायेगा.

आज संयुक्त राष्ट्र पर ये आरोप लग रहे हैं कि देशों की अखंडता, समानता और हस्तक्षेप न करने जैसे संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र के मुख्य सिद्धांत अब समाप्त होते जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र वर्तमान मानवीय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता नहीं रखता अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ अपने मूल उद्देश्य, अर्थात मनुष्य को युद्ध से बचाने में सफल नहीं हो सका है.

फिलहाल संयुक्त राष्ट्र महासभा के 68वें अधिवेशन का मूल विषय है ‘2015 के बाद का विकास एजेंडा और उसकी शुरुआत’ लेकिन महासभा जब तक उपयरुक्त मुद्दों पर कोई बड़ा निर्णय नहीं लेगी, तब तक इन विषयों पर होनेवाले विमर्श औपचारिक ही रहेंगे. देखना यह है कि 68वंे अधिवेशन में महासभा कोई अहम निर्णय ले पाती है या नहीं.

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