देश के जाने-माने राजनीति विज्ञानी योगेंद्र यादव की राजनीतिक प्रतिबद्धता से केंद्र सरकार नाराज हो गयी है. मानव संसाधनमंत्रालयने उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के सदस्य पद से हटा दिया है. दलील दी गयी है कि उनके यूजीसी सदस्य रहने से उच्च शिक्षा की इस सर्वोच्च संस्था का ‘राजनीतीकरण’ होने की आशंका है. इस संबंध में योगेंद्र यादव के जवाब को भी मंत्रलय ने खारिज कर दिया है. क्या है पूरा मामला और अब क्या कदम उठाएंगे योगेंद्र यादव, इस संबंध में उनसे खास बातचीत की रंजन राजन ने.
मानव संसाधनमंत्रालयने आपके जवाब को खारिज करते हुए आपको यूजीसी के सदस्य पद से हटा दिया है. इस पर क्या कहेंगे?
मुझें हटाये जाने की जानकारी अभी मीडिया से ही मिली है. यह अप्रत्याशित नहीं है. ऐसा लगता है कि सरकार ने कारण बताओ नोटिस जारी करने से पहले ही मुझें हटाने का मन बना लिया था. असल में सरकार यूजीसी के जरिये कुछ ऐसे काम करवाने की जल्दीबाजी में है, जो मेरे रहते नहीं हो सकता था. मसलन, कुछ विदेशी यूनिवर्सिटीज को भारत में यूजीसी के जरिये अनुमति देने की कवायद चल रही है. और फिर यूजीसी की अगली मीटिंग की तारीख भी एक अक्तूबर तय कर दी गयी है.
नोटिस का विस्तृत जवाब देने के बाद भी हटाये जाने पर हैरानी तो हुई होगी?
एक हद तक हैरान हूं. इसलिए कि अफसाने में जिसका जिक्र नहीं था, वह बात नागबार गुजरी है. यूजीसी एक्ट में कहीं यह जिक्र नहीं है कि राजनीतिक दल से जुड़े लोग इसके सदस्य नहीं हो सकते. सरकार ने मेरे राजनीति से जुड़ने पर ‘हितों के टकराव’ की बात कही है, लेकिन यूजीसी एक्ट में हितों के टकराव की व्याख्या में भी राजनीति का जिक्र नहीं है. यूजीसी कोई चुनाव आयोग तो है नहीं, जिसका रिश्ता राजनीतिक दलों के नियमन से हो. इसलिए मेरे मामले में सीधे-सीधे हितों के टकराहट की कोई स्थिति नहीं बनती है. हैरानी इसलिए भी है कि इस संस्था में पहले हितों की भयानक टकराहट होती रही है. यूपीए वन के दौरान यूजीसी में कई ऐसे लोगों को शामिल किया गया था, जो प्राइवेट यूनिवर्सिटीज के मालिक थे. यानी जिनके बारे में नियम बनने थे, उन्हें ही निर्णय लेने का अधिकार दे दिया गया था. ऐसे ही सदस्यों के मनोनयन के कारण डीम्ड यूनिवर्सिटी से संबंधित घोटाला यूजीसी के माथे पर आन पड़ा था.. लेकिन एक लिहाज से मुझें हैरानी नहीं भी हुई है, क्योंकि राजनीति शा का विद्यार्थी होने के नाते मैं बखूबी जानता हूं कि सत्ता के विरोध में खड़े होने की कीमत हमेशा चुकानी पड़ती है.
तो क्या राजनीतिक दल से जुड़ने के बाद भी आपको या किसी अन्य व्यक्ति को यूजीसी जैसी संस्था का सदस्य बने रहना चाहिए?
देखिये, यूजीसी की सदस्यता मैंने मांगी नहीं थी. अपने मनोनयन पर मुझें आश्चर्य हुआ था. मेरा मनोनयन मेरी अकादमिक साख के आधार पर हुआ होगा. तो फिर, राजनीतिक दल से जुड़ाव के कारण यह अकादमिक साख कैसे बदल गयी? और फिर मैंने करीब एक साल पहले ही खुद फोन कर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को (उनके निजी सचिव के मार्फत) आम आदमी पार्टी से जुड़ाव के अपने फैसले की जानकारी दे दी थी. अगले दिन उनके निजी सचिव ने मुझें फोन कर बताया था कि मंत्रलय यूजीसी सरीखी संस्थाओं की स्वायत्तता का आदर करता है और बतौर सदस्य मेरी भागीदारी को लेकर उसे कोई आपत्ति नहीं है. साथ ही मुझें इस पद पर बने रहने को कहा गया था. इस तरह न तो मैंने कुछ छुपाया है और न ही मैं जिन मूल्यों-आदर्शो को मानता हूं, उनके विरुद्ध या कोई गलत आचरण किया है.
मंत्रालयके नोटिस का जवाब आपने अपनी सदस्यता बचाने की मंशा से दिया था या सरकार को आईना दिखाने के लिए?
नोटिस में कहा गया था कि एक राजनीतिक दल से जुड़ाव के कारण मेरा ‘पिछला रिकार्ड और विश्वसनीयता’ पहले की तरह नहीं रही. यह पढ़ कर पहले तो हंसी आयी, फिर अचरज हुआ और आखिर में दु:ख भी. दु:ख अपने बारे में कही बातों पर नहीं, बल्कि इस नोटिस में सत्ताधारियों के बारे में छिपे संकेत पर हुआ. इसे कारण बताओ नोटिस के रूप में लिखा गया था. ऐसा तो सरकार अपने कर्मचारियों के साथ करती है, जिसमें स्वर दाता और ग्रहीता का होता है. जबकि यूजीसी मेंबर के रूप में मुझें न वेतन मिल रहा था और न ही कोई सुविधा. फिर भी नोटिस का स्वर कुछ ऐसा था मानो यूजीसी की सदस्यता से नवाज कर सरकार मुझ पर उपकार कर रही हो. शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, लेखकों और खिलाड़ियों के साथ बरताव में सरकार इसी मानसिकता का परिचय देती है. अफरशाही और राजनीतिक ताकत का यह दर्प मुझें उदास करता है. अपनी मर्जी से सदस्यता से हटना एक बात है और बिना गलती के किसी की आज्ञा शिरोधार्य कर पद छोड़ना एकदम ही दूसरी बात. इसलिए शुरुआती द्वंद्व के बाद मैंने नोटिस का जवाब देने का फैसला लिया. नोटिस का संदेश यह भी था कि किसी स्वायत्त संस्था का कोई स्वतंत्र सदस्य मंत्रलय की बातों से असहमति दिखाने का साहस करे तो उसे बाहर कर दिया जायेगा. इसलिए मुझें लगा कि मैं जवाब नहीं दूंगा तो यह उच्च शिक्षा और यूजीसी जैसी स्वायत्त संस्था के लिए गलत नजीर बन सकती है.. और फिर यदि कोई खुद को ताकतवर समङो तो मैं उसकी आंख में आंख डाल कर जवाब देना जरूरी भी समझता हूं.
..तो क्या आंख में आंख डाल कर जवाब देने के कारण आपको हटाया गया है?
यूजीसी सदस्यों की सेवा से संबंधित 1992 के नियम में राजनीतिक भागीदारी या राजनीतिक दल की सदस्यता को अयोग्यता का आधार नहीं माना गया है. इसमें यूजीसी मेंबर को सिर्फ तीन कारणों से हटाने का नियम है. पहला, बिना कारण बताये लगातार चार मीटिंगों से अनुपस्थित रहना. मैं गत दो साल में सिर्फ एक मीटिंग से अनुपस्थित रहा हूं. दूसरा, सदस्य का दिवालिया घोषित होना. यह भी मेरे ऊपर लागू नहीं होता. तीसरा, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाना. मुझें लगता है कि सरकार ने मुझें इसी आधार पर हटाया होगा. जो व्यक्ति सरकार के नोटिस का हंसते हुए जवाब दे दे, यानी जो सीधे-सीधे सरकार से पंगा लेने की सोचे, आज के दौर में उसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ ही माना जाता है! असल में अब लोग सरकार की आंख में आंख डाल कर बात करना भूल गये हैं. इसलिए मेरा मानना है कि इस समय देश में मेरे जैसे ‘मानसिक असंतुलन’ वाले कुछ और लोगों की सख्त जरूरत है.
यानी आपको लगता है कि आपको हटा कर सरकार ने नियम के विरुद्ध काम किया है. तो फिर आप इस मनमानी को चुपचाप सह लेंगे, या आगे भी विरोध की कोई योजना है?
इस संबंध में अभी मैंने कुछ तय नहीं किया है. दरअसल आगे क्या करना चाहिए, इसे लेकर मैं अभी दुविधा में हूं. एक स्वायत्त संस्था में रह कर सत्ता के सुर में सुर नहीं मिलानेवाले व्यक्ति को सरकार जब चाहे मनमाने तरीके से हटा दे, यह एक गलत परंपरा है, जिसका विरोध होना चाहिए. लेकिन मैं इसे व्यक्तिगत टकराव का मुद्दा नहीं बनाना चाहता हूं. डीम्ड यूनिवर्सिटी से जुड़े घोटाले के बाद यूजीसी की साख को लेकर मेरे मन में संदेह जगे थे. इसलिए जब मुझें इसकी सदस्यता ऑफर की गयी थी, तब इसे स्वीकारने से पहले मैंने अपने साथियों-सहकर्मियों से राय ली थी. मुझें दिलासा इस बात से मिला था कि यह पद अपनी प्रकृति के मुताबिक है और इसके लिए वेतन या कोई सुविधा नहीं मिलती है. यूजीसी हर बैठक में भागीदारी के लिए मानदेय के रूप में दो हजार रुपये देती है, पर मैंने इसे भी नहीं लेने का फैसला किया. अब नयी परिस्थितियों में मैं फिर उन्हीं लोगों से पूछूंगा कि आगे क्या करना चाहिए.
आखिरी सवाल, यदि आम आदमी पार्टी कभी सत्ता का हिस्सा बनेगी, तो कोई ऐसी व्यवस्था करेगी कि राजनीतिक दल से जुड़े लोग भी संवैधानिक संस्था से भी जुड़े रह सकें?
कोई भी सरकार सीधे-सीधे ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकती है. असली जरूरत एक ऐसी नयी राजनीतिक संस्कृति के लिए प्रतिबद्ध होने की है, जो संस्थाओं की स्वायत्तता का आदर करे. इसके लिए देश के बुद्धिजीवियों को सोचना होगा.