।।रविदत्तबाजपेयी ।।
न्यायमूर्ति नहीं, न्यायप्रिय-7
न्यायमूर्ति वर्मा ने संसद को कानून बनाने में रचनात्मक सहयोग दिया
न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा एक ऐसे न्यायविद् हुए हैं, जिनके लिए कानून सिर्फ संसद से प्राप्त श्रुतलेख नहीं था, बल्कि उन्होंने बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप संसद को कानून बनाने में रचनात्मक सहयोग भी दिया.
भारत की राजनीतिक–प्रशासनिक अव्यवस्था के दौर में कई विवादास्पद मामलों में उन्होंने न्यायपालिका के परमादेश (मैनडेमस) द्वारा शासकीय संस्थाओं की जांच प्रक्रि या पर सर्वोच्च न्यायपालिका की निगरानी जैसे अनूठे प्रयास किये. मध्य प्रदेश के सुरम्य विंध्य क्षेत्र के एक छोटे शहर सतना में 18 जनवरी, 1933 को जन्मे जगदीश शरण वर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और 22 साल की आयु में वकालत में उतर आये.
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में कंपनी कानून के एक सफल अधिवक्ता के रूप में न्यायमूर्ति वर्मा की कानूनी समझदारी और उनकी ईमानदारी मशहूर थी, लेकिन अपनी सफल वकालत छोड़ कर मात्र 39 वर्ष की आयु में मप्र उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने.
1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद हेबियस कार्पस याचिका पर बंदियों की रिहाई का आदेश देने वालों में न्यायमूर्ति वर्मा सबसे आगे थे. बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की असहमति के बावजूद भी इन याचिकाओं के दाखिले पर ही रोक लगा दी. मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति वर्मा ने, किस्सा कुर्सी का फिल्म की रील नष्ट करने के आरोप में आपातकाल दौर के सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल के 1980 में चुनाव लड़ने को गैर कानूनी मानते हुए उनके निर्वाचन को रद्द कर दिया.
मप्र उच्च न्यायालय से न्यायमूर्ति वर्मा ने शराब लाइसेंस बांटने में अनियमितताओं के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर आरोप तय किये और चुरहट लाटरी कांड में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा इसकी जांच हेतु गठित आयोग के अध्यक्ष को बदलने के आदेश को निरस्त किया.
सामान्य वरिष्ठता क्र म से न्यायमूर्ति वर्मा को सन 1986 में ही सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत होना था, किंतु न्यायिक नियुक्तियों में राजनीतिक दखल के कारण उन्हें राजस्थान स्थानांतरित कर दिया गया, न्यायमूर्ति वर्मा अपने बहुतेरे कनिष्ठ व्यक्तियों के बाद सन 1989 में सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे. न्यायमूर्ति वर्मा लगभग नौ वर्षो तक सर्वोच्च न्यायालय में रहे और अपने कार्यकाल के आखिरी 10 महीनों में वे भारत के मुख्य न्यायाधीश भी रहे.
भारतीय संविधान में राष्ट्रपति द्वारा राज्य सरकार को बरखास्त करने में धारा 356 के दुरुपयोग से संबंधित एस आर बोम्मई बनाम भारत गणराज्य नामक मुकदमे में नौ न्यायाधीशों की पीठ में से एक न्यायमूर्ति वर्मा भी थे.
1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में सुरक्षा चूक की जांच के लिए गठित आयोग के प्रमुख के रूप में न्यायमूर्ति वर्मा ने अपनी नियमित अदालती जिम्मेदारियों के साथ ही इस जांच को अंजाम दिया.
जैन हवाला कांड, जिसमें भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दल के नेताओं के रिश्वत लेने के आरोप लगे थे का मुकदमा भी न्यायमूर्ति वर्मा की पीठ को सौंपा गया था, अपने निर्णय में उन्होंने केंद्रीय जांच आयोग को इसके राजनीतिक आकाओं के चंगुल से मुक्त करने का आदेश दिया था, इसी फैसले का कम प्रचारित अंश राज्य के पुलिस निदेशकों से लेकर जिला पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति, स्थानांतरण, कार्यकाल की सीमा को भी राजनीतिक नियंत्रण से स्वतंत्र करने का आदेश भी था.
जैन हवाला कांड के मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही न्यायमूर्ति वर्मा ने न्यायपालिका के परमादेश (मैनडेमस) द्वारा सीबीआइ को इस मामले की समयबद्ध व नियमबद्ध जांच करने को अनुशासित किया. न्यायपालिका के परमादेश (मैनडेमस) के अंतर्गत ही बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला कांड, चंद्रास्वामी जैसे मामलों की जांच आगे बढ़ पायी, न्यायमूर्ति वर्मा के सेवानिवृत्ति के अनेक वर्षो बाद भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मामले की जांच में परमादेश (मैनडेमस) का सहारा लिया गया.
1994 में न्यायमूर्ति वर्मा ने भारत सरकार के जम्मत–ए–इसलामी–हिंद को प्रतिबंधित करने के निर्णय को निरस्त कर दिया,चूंकि सरकारी गुप्तचर संस्थाओं ने अदालत को पूरी सूचना देने से इनकार कर दिया और प्रस्तुत सबूत अपर्याप्त माने गये. 1996 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी द्वारा अपने चुनाव अभियान में हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने को गैर कानूनी मानते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने उनका निर्वाचन रद्द कर दिया, सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति वर्मा ने हिंदुत्व को अन्य धर्मो या धर्माविलंबयों के लिए आक्रामक नहीं मानते हुए, जोशी का निर्वाचन बहाल कर दिया.
1997 में महिलाओं पर यौन हिंसा के विरु द्ध लाये गये मुकदमे विशाखा बनाम राजस्थान सरकार, में न्यायमूर्ति वर्मा ने सभी संगठित–असंगठित कार्यस्थलों जैसे दफ्तर–कारखाने–खेत–दुकान में महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के दिशा–निर्देश जारी किये और काम करने के अधिकार को मूल अधिकार मानते हुए महिलाओं के प्रति यौन हिंसा को महिलाओं के मूल अधिकारों का उल्लंघन माना.
न्यायाधीशों की नियुक्ति का दूसरा मुकदमा के नामक प्रकरण में नौ न्यायाधीशों की पीठ में से एक न्यायमूर्ति वर्मा ने उच्चतर न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (एक कार्यकारी परिषद या समिति) के गठन का निर्णय दिया था.
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्ति वर्मा ने मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में 2002 में गुजरात दंगों के दौरान पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा अपने विवेक से निर्णय नहीं लेने का दोषी पाया.
दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक युवती के साथ यौन हिंसा और उसकी नृशंस हत्या के बाद उमड़े विशाल जन आंदोलन के बाद भारत सरकार ने न्यायमूर्ति वर्मा को महिला सुरक्षा से संबंधित कानूनों में सुधार के लिए सुझाव देने का जिम्मा दिया. वर्मा समिति ने मात्र 29 दिनों में सरकार को महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों में विस्तृत और व्यापक सुधारों का प्रारूप प्रस्तुत किया.
24 अप्रैल, 2013 को न्यायमूर्ति वर्मा का निधन हो गया. अपने जीवन के अंतिम दिनों में महिला सुरक्षा से संबंधित वर्मा समिति की रिपोर्ट के कुछ अंश की टाइपिंग उन्होंने स्वयं की थी, समिति का काम समय से पहले समाप्त करने पर, बचे हुए 23 लाख रु पये सरकार को लौटा दिये गये.
न्यायमूर्ति वर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय को अपने सामाजिक परिवेश के साथ जुड़ी हुई एक जीवंत संस्था बनाया और भ्रष्ट–निष्क्रि य प्रशासनिक व्यवस्था को गवर्नेस सिखाने के लिए न्यायपालिका की दंडात्मक शक्तियों का प्रयोग भी किया. न्यायमूर्ति वर्मा जनोपयोगी न्यायिक सक्रि यता के सबसे बड़े प्रवर्तक थे.
आज जानें न्यायमूर्ति जेएस वर्मा को. वह अपनी पीढ़ी के एक बेहद ईमानदार, निर्भीक और निरपेक्ष न्यायाधीश थे. न्यायमूर्ति वर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय को अपने सामाजिक परिवेश के साथ जुड़ी हुई एक जीवंत संस्था बनाया और भ्रष्ट–निष्क्रि य प्रशासनिक व्यवस्था को गवर्नेस सिखाने के लिए न्यायपालिका की दंडात्मक शक्तियों का प्रयोग भी किया. न्यायमूर्ति वर्मा जनोपयोगी न्यायिक सक्रियता के सबसे बड़े प्रवर्तक थे.