।। अनुज सिन्हा।।
(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)
पर्व-त्योहारों का मौसम आ गया. साथ में शुरू हो गया चंदे का धंधा. यह सही है कि पर्व-त्योहार खुशियां लेकर आते हैं. ये हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा हैं. इन्हें उत्साह से मनाना भी चाहिए. पर हमारा धर्म, हमारी संस्कृति कहीं यह नहीं कहते कि जबरन पैसा वसूलो, मारपीट करो और पूजा आयोजन में दिखावा करो. पूजा छोटे स्तर पर हो या बड़े स्तर पर, पंडाल बड़ा बने या छोटा, इनका आकर्षण अलग-अलग हो सकता है, चमक-दमक में फर्क हो सकता है, पर पूजा का महत्व एक सा रहता है. पैसा है तो बड़ा पंडाल बने, भव्य पूजा हो, इसमें किसी को आपत्ति नहीं है. विरोध तब होता है, जब इन पूजा पंडालों को बनाने या अन्य त्योहारों को मनाने के लिए जबरन चंदा वसूली होती है. नहीं देने पर दुकानदार या ट्रक ड्राइवर का सिर फोड़ दिया जाता है.
बीच सड़क पर पंडाल बना कर, सड़कों को घेर दिया जाता है. लोगों को आने-जाने नहीं दिया जाता. देर रात तक कानफोड़ू गाने बजाये जाते हैं, नींद हराम होती है, हुड़दंग होता है. शराब पीकर मार-पीट या छेड़खानी की जाती है. देश के लगभग हर हिस्से में ऐसी घटनाएं हो रही हैं. कहीं कम तो कहीं ज्यादा, पर विरोध कोई नहीं कर पाता. विरोध करे कौन? अगर किसी ने विरोध किया, तो आस्था का सवाल उठा दिया जाता है, धर्म से जोड़ कर दूसरा रंग देने की साजिश की जाती है. लेकिन, इन सबका आस्था से कोई लेना-देना नहीं है. यह विशुद्ध गुंडागर्दी है. सवाल यह है कि आस्था के नाम पर कब तक दूसरों के अधिकार का हनन होगा.
ठीक है कि पूजा हो रही है, पंडाल बन रहा है, तो इसके लिए आयोजकों को बड़ी राशि चाहिए. कहां से आयेगा यह पैसा? जिसकी क्षमता 50 रुपये चंदा देने की है, उसके नाम पर 501 रुपये की रसीद काट देंगे, तो कहां से वह देगा? नहीं दे पायेगा, तो मारपीट. अगर दुकान है, तो उसमें तोड़-फोड़. क्या हमारी परंपरा या हमारा धर्म या कानून इसकी इजाजत देते हैं? बिल्कुल नहीं. पूजा करते हैं, तो साधन की व्यवस्था खुद करें. खुद सक्षम हैं, तो सबसे अच्छा, वरना चंदा उतना ही लें, जो कोई स्वेच्छा से दे. जबरन चंदा वसूली कानूनन अपराध है, पर शायद ही कोई इसके खिलाफ शिकायत करता है. सवाल आस्था का बना दिया जाता है. धर्म या पूजा-पाठ में आस्था के ठेकेदार सिर्फ वे ही नहीं हैं जो चंदा वसूलने निकलते हैं या पूजा का आयोजन करते हैं. भगवान तो उन करोड़ों लोगों के दिलों में बसते हैं, जो सच्चे मन से उनकी आराधना करते हैं.
उत्सव के दौरान या फिर मूर्ति विसजर्न के समय जिस तरीके का व्यवहार होता है, जैसे फूहड़ नाच होते हैं, अश्लील गाने बजते हैं, उनसे पूजा की पवित्रता बढ़ती नहीं, बल्कि घटती ही है. पंडालों में जाने से शरीफ लोग हिचकते हैं. कानून कहता है कि आप सड़क को घेर नहीं सकते, रात में 10 बजे के बाद तेज आवाज में गाना नहीं बजा सकते, पर इसे कोई मानता नहीं है. क्या कभी किसी ने सोचा है कि पास में रहनेवाले बुजुर्ग रात भर सो नहीं पाते. अस्पताल के पास रात में लाउडस्पीकर बजाने से मरीजों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा? कानून में ऐसे सभी मामलों के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान है, पर प्रशासन अपना काम नहीं करता. लोगों में कानून के प्रति डर नहीं है. पूजा कमेटियां अपनी जिम्मेवारियों से किनारा कर लेती हैं. पहले तो पूजा कमेटियों को ही स्वानुशासन लाना पड़ेगा. इस बात का ध्यान रखना होगा कि पूजा में सहयोग देने के नाम पर गलत या असामाजिक तत्व इसमें न घुस जायें. भले ही इसका तात्कालिक लाभ दिखता है, पर घटना घटने पर पूजा कमेटियां ही बदनाम होती हैं. समय बदल रहा है. लोगों का सोच बदल रहा है. पूजा के नाम पर अनावश्यक खर्च पर भी सवाल उठ रहे हैं. मूर्तियां स्थापित की जायें, पर क्या बड़े-बड़े लाखों के पंडाल अनिवार्य हैं, इस पर विचार करना होगा. क्या इन पैसों का अन्यत्र इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. अगर समय रहते नहीं चेता गया और आस्था के नाम पर हुडदंग करनेवालों पर अंकुश नहीं लगाया गया, कानून का पालन नहीं कराया गया, तो त्योहारों में लोग घरों से बाहर निकलना बंद कर देंगे.