।।दक्षा वैदकर।।
बचपन में हम एक गेम खेला करते थे. सारे बच्चे गोल घेरा बना कर बैठ जाते थे और उनमें से कोई एक बच्च एक कठिन वाक्य, दूसरे बच्चे के कान में कहता था. फिर दूसरा बच्च अपने पास बैठे तीसरे बच्चे के कान में वह वाक्य कहता था. इसी तरह तीसरा, चौथे के कान में. इसमें यह शर्त होती थी कि उस वाक्य को केवल एक ही बार कहा जायेगा. किसी को अगर साफ सुनाई न दे, तो भी उसे दोबारा पूछने की इजाजत नहीं थी. उसे जो समझ आया था, उसे वही वाक्य अगले को बोल देना था. मजेदार बात यह होती थी कि अंत में जब वाक्य अपना पूरा चक्कर लगा कर पहले बच्चे के पास तक पहुंचता, तो वह बिल्कुल बदल चुका होता. सभी फिर चरचा करते कि कहां, किसने वाक्य को गलत सुना, किसने उसमें कोई नया शब्द जोड़ा, किसने गलत अर्थ निकाला.
बचपन का यह खेल आज हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुका है. हम यही खेल दिन भर खेला करते हैं. हम किसी की बात को सुनते हैं और उसमें नये शब्द जोड़ कर, मिर्च-मसाला डाल कर उसे दूसरे तक पहुंचाते हैं. यह करना हमारी आदत में शामिल हो चुका है और हम इस बात को गलत भी नहीं समझते. हमें लगता है कि यह कोई बुरी बात थोड़े ही है. यह तो सभी लोग करते हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि हमने जिस इनसान की बात को मिर्च-मसाला लगा कर अन्य लोगों के सामने पेश किया है, वह भी हमारी बात के साथ ठीक ऐसी ही खिचड़ी पका रहा होगा.
एक उदाहरण लें. एक ऑफिस में कुछ दिनों से एक कर्मचारी बीमार होने की वजह से छुट्टी पर चल रहा था. बॉस ने मीटिंग में यूं ही उस कर्मचारी का जिक्र किया कि ‘वह ऑफिस कब तक आयेगा? किसी साथी को इस बात की जानकारी है क्या?’ सभी ने ‘ना’ में सिर हिला दिया. जब मीटिंग खत्म हुई, तो सभी ने इस बात को अलग-अलग तरह से उस बीमार कर्मचारी तक पहुंचाया. किसी ने कहा ‘बॉस कह रहे थे कि वह तो बीमारी का बहाना बना कर छुट्टी लिये बैठा है, ऐसा वह हमेशा ही करता है.’ किसी ने कहा ‘बॉस तुम्हारे नाम से आग बबूला हो रहे थे, वह तो तुम्हें नौकरी से निकालने तक की सोच रहे हैं. उन्होंने तो नये लोगों का इंटरव्यू लेना भी शुरू कर दिया है.’