जुवेनाइल जस्टिस के मामले में संविधान और देश के कानून के साथ ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों से भी बंधे हुए हैं हम
आमोद कंठ, बाल अधिकार विशेषज्ञ
16 दिसंबर को दिल्ली में घटित हुई गैंगरेप की घटना में शामिल अभियुक्तों में शामिल एक आरोपी नाबालिग था, इसलिए अदालत ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में शामिल प्रावधानों के तहत ही उसे अधिकतम तीन साल की सजा सुनायी है. इसके तहत नाबालिग को बाल सुधार गृह में भेजा जायेगा, जहां वह दो साल चार महीने तक रहेगा, क्योंकि वह पहले ही आठ महीने जेल में बिता चुका है, जिसे अदालत ने आठ महीने की सजा मान लिया है.
जुवेनाइल कोर्ट द्वारा सुनायी गयी सजा को लेकर कई लोग आपत्ति कर रहे हैं. कोई जुवेनाइल एक्ट में संशोधन की मांग कर रहा है, तो कोई उसके द्वारा किये गये अपराध के मुताबिक कड़ी सजा की मांग कर रहा है. यह कहा जा रहा है कि दो-चार माह उम्र कम होने से उसके अपराध की जघन्यता कम नहीं हो जाती. उसको दी गयी सजा को कमतर या निम्नतम बताया जा रहा है. लेकिन अदालत ने जनदबावों और कथित तौर पर पब्लिक परसेप्शन के आगे न झुकते हुए कानून के मुताबिक सजा सुनायी है. क्योंकि कानून सिर्फ भावना के आधार पर काम नहीं कर सकता.
जुवेनाइल जस्टिस सिस्टम की एक लंबी परंपरा रही है. बहुत सोच समझ कर चिल्ड्रेन एक्ट 1920 बनाया गया है. अगर नाबालिगों की उम्र सीमा 18 वर्ष निर्धारित की गयी है, तो इसके पीछे तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं. अगर हम यह तर्क देते हैं कि उसकी अपरिपक्वता के बावजूद भी उसके द्वारा किये गये अपराध के मुताबिक उसे कठोर सजा दी जाये, तो सवाल उठता है कि फिर आखिर उम्र सीमा निर्धारित ही क्यों की गयी थी. इसी उम्र सीमा के आधार पर वह कई तरह के कानूनी अधिकारों से वंचित है. लोग यह तर्क दे रहे हैं कि चंद माह ही 18 वर्ष पूरा होने में बाकी था, तो क्या किसी नाबालिग को इस आधार पर रोजगार का अधिकार दिया जा सकता है कि उसकी आयु 18 वर्ष से दो दिन कम है और वह पात्र है. क्या संपत्ति खरीदने का अधिकार, शादी का अधिकार, कानूनी कार्रवाई के अधिकार से उसे उम्र सीमा के अधिकार के निर्धारण की वजह से वंचित नहीं किया गया है.
देश के कानूनों व संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही नहीं, बल्कि हम कई तरह के अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों, मसलन यूएन कन्वेन्शन ऑफ चाइल्ड राइट, बीजिंग कन्वेंनशन, रियाद प्रावधान सभी से बंधे हुए हैं. आनन-फानन में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव कर किसी को कटघरे में खड़ा कर देना किसी भी तरह से जायज नहीं है. इसलिए अदालत का फैसला काफी सोच समझ कर उपलब्ध कानूनों के अनुरूप लिया गया है. मैं खुद इस मामले में स्रुप्रीम कोर्ट के समक्ष बाल अधिकारों का लेकर अपना तर्क प्रस्तुत कर चुका हूं. सुब्रह्मणयम स्वामी ने नाबालिग को दी गयी सजा को बढ़ाने के लिए रिव्यू पेटीशन भी डाला है. उन्होंने तर्क दिया है कि अपराध की प्रकृति और नाबालिग की मैच्युरिटी को देखते हुए सजा में बदलाव किया जाना चाहिए. इस पर अदालत क्या फैसला देती है, यह देखने योग्य होगा. लेकिन सवाल है कि आखिर अदालत किस आधार पर बच्चे की मैच्युरिटी का निर्धारण करेगी.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)