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यह कैसा बिहेवियर

कई ऐसी बीमारियां हैं, जिनका इलाज अगर सही समय पर हो जाये, तो वे नासूर नहीं बनेंगी. बच्चों में एटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) एक ऐसा ही विकार है, जिसे पहचान कर अगर बचपन में इलाज शुरू कर दिया जाये, तो उम्र के दूसरे पड़ाव में इसका दुष्प्रभाव नहीं दिखेगा. हालांकि, विश्व के विकसित देशों […]

कई ऐसी बीमारियां हैं, जिनका इलाज अगर सही समय पर हो जाये, तो वे नासूर नहीं बनेंगी. बच्चों में एटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) एक ऐसा ही विकार है, जिसे पहचान कर अगर बचपन में इलाज शुरू कर दिया जाये, तो उम्र के दूसरे पड़ाव में इसका दुष्प्रभाव नहीं दिखेगा. हालांकि, विश्व के विकसित देशों में इस डिसआर्डर के प्रति पैरेंट्स जागरूक हैं, लेकिन हमारे देश में इसके प्रति जागरूकता की कमी है. ‘एडीएचडी जागरूकता माह’ के बहाने एडीएचडी के विभिन्न बिंदुओं की पड़ताल करता सत्वम स्पेशियलिटी सेंटर फॉर वीमेन एंड चिल्ड्रेन, बेंगलुरु के निदेशक डॉ दीपक शाह का आलेख.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आकड़ों के अनुसार आजकल पांच से पंद्रह वर्ष की आयु-वर्ग में लगभग दस में से एक बच्चा एटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर ( एडीएचडी) का शिकार है.

सामान्य भाषा में इसे एकाग्रता की कमी व चंचलता में अति होने की स्थिति कहा जा सकता है. सतही स्तर पर यह लक्षण सामान्य या नगण्य लग सकते हैं, लेकिन गंभीरता व गहराई से इन्हें समझने की जरूरत है. शुरु आत एक उदाहरण से करते हैं. आपके बच्चे के टीचर ने आपको स्कूल में बुला कर आपसे कहा कि आपका बच्चा सहपाठियों से मार-पीट करता है, उन्हें परेशान करता है, उनकी चीजें छीन लेता है, अपनी जगह पर नहीं बैठता, चीखता-चिल्लाता है, पढ़ाई पर ध्यान नहीं देता. आप कहते हैं, यह तो सामान्य तौर पर हर छोटा बच्चा करता है. चंचलता व नटखटपन बालपन की निशानी है. पढ़ाई के प्रति बेरुखी भी मामूल होती है, लेकिन मेडिकल नजरिये से सामान्य से ज्यादा ऐसे लक्षण कुछ और ही इंगित करते हैं. मेडिकल भाषा में इसे ‘एडीएचडी’ कहते हैं. अफसोस की बात है कि देश में अभी तक वांछित जागरूकता नहीं है.

अमेरिका व यूरोपीयन देशों में बाकायदा एडीएचडी सपोर्ट ग्रुप्स बने हैं, जिससे कि इस समस्या संबंधी जानकारी, चिकित्सकीय समाधान व विभिन्न थेरेपी के विकल्प की विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है. अलबत्ता हमारे देश में भी इस दिशा में धीरे-धीरे लोगों की जागरूकता बढ़ रही है. ऐसे में पैरेंट्स को ‘एडीएचडी’ के लक्षण, आकलन व निदान के बारे में जानकारी जरूरी है.

आमतौर पर सभी बच्चे थोड़े शरारती, थोड़े हाइपर होते हैं. खेल में ज्यादा रुचि व पढ़ाई में ध्यान कम होता ही है, लेकिन जब एकाग्रता में कमी और चंचलता में अतिशयता बच्चे का स्वभाव बन जाये, उसके हर हरकत में यह लक्षण साफ-साफनजर आये, तब पैरेंट्स को इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत होती है. विशेष रूप से पांच साल की उम्र तक यह लक्षण बच्चे के व्यक्तित्व में प्रखरता से उजागर हो जाते हैं. उस समय बच्चे का आकलन (एस्सेस्मेंट) जरूरी बन जाता है. लक्षणों के आधार पर उचित इलाज या थेरेपी की जरूरत होती है. यदि इन बच्चों का समय पर इलाज नहीं करवाया जाये, तो आगे चल कर गंभीर मानसिक या मनावैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.

किशोरावस्था तथा युवावस्था में ‘बिहेवियर प्रॉब्लम्स’ भी हो सकते हैं. कुछ बच्चे हीन भावना यानी (इंफिरियरिटी कांप्लेक्स) के भी शिकार हो जाते हैं. कुल मिला कर बालपन के ऐसे कुछ लक्षण आगे चल कर कौन-सा आकार ले सकते हैं, कोई दावे के साथ नहीं कह सकता. इसलिए पैरेंट्स का यह फर्ज बनता है कि पैनी नजर से अपने बच्चों के आचार-विचार को समझें और सामयिक सलाह-सूचना का सहारा लें.

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