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ईरान के साथ परमाणु करार का खाका तय

अमेरिका और ईरान की एक पीढ़ी, एक-दूसरे के लिए ‘शैतान’ और ‘बुराई की धुरी’ जैसे नारे लगाते-सुनते हुए अब अधेड़ हो चुकी है. इस दौरान दोनों देशों में कई बार नेता बदले, पर यह परिदृश्य नहीं बदला. लेकिन 2 अप्रैल, 2015 की देर शाम एक ऐसी खबर आयी जिससे हालात बदलते लग रहे हैं. ईरान […]

अमेरिका और ईरान की एक पीढ़ी, एक-दूसरे के लिए ‘शैतान’ और ‘बुराई की धुरी’ जैसे नारे लगाते-सुनते हुए अब अधेड़ हो चुकी है. इस दौरान दोनों देशों में कई बार नेता बदले, पर यह परिदृश्य नहीं बदला.

लेकिन 2 अप्रैल, 2015 की देर शाम एक ऐसी खबर आयी जिससे हालात बदलते लग रहे हैं. ईरान दुनिया की छह वैश्विक ताकतों (पांच परमाणु महाशक्तियों के अलावा जर्मनी भी) के साथ परमाणु समझौते के एक खाके (फ्रेमवर्क) पर सहमत हो गया है.

यह तकनीकी किस्म का समझौता है, जिसके बारे में हम यहां सरल-सहज ढंग से समझाने की कोशिश करेंगे ही. पर दिलचस्प बात यह है कि करार की बारीकियों से ज्यादा करार के पीछे की वजहों और इसके नतीजों की चर्चा हो रही है.

मसलन, क्या अमेरिकी विदेश नीति की दिशा में कोई बड़ा बदलाव आ रहा है, जो वह मध्य-पूर्व में अपने पुराने मित्रों- इस्नइल की खुली और सऊदी अरब की ढकी-छिपी नाराजगी मोल लेकर भी ईरान से रिश्ते सुधारना चाह रहा है? क्या शांति के लिए नोबेल पुरस्कार पा चुके ओबामा नोबेल का हक अदा कर इतिहास में बड़ी जगह बनाना चाह रहे हैं? ईरान इसलिए तो नहीं ‘झुकने’ को तैयार हुआ है क्योंकि पश्चिम के आर्थिक प्रतिबंधों से उसकी कमर टूट गयी है. क्या इस करार के बाद मध्य-पूर्व की भू-राजनीति में बड़े बदलाव आयेंगे?.. ऐसे अनेक सवाल हैं, जिनका जवाब तो वक्त ही देगा, क्योंकि इस परमाणु समझौते को अभी कई चुनौतियों से गुजरना है.

करार के सूत्रधार और सिद्धांत

– परमाणु बम दो तरह की रेडियोधर्मी सामग्री से बनाया जा सकता है . यूरेनियम से या फिर प्लूटोनियम से. करार का मकसद इन दोनों तत्वों को बम में बदलने की ईरान की क्षमता पर लगाम लगाना है. दोनों ही तरीकों से बम बनाने की शुरुआत यूरेनियम अयस्क से होती है.

– खनन के जरिये धरती से जो यूरेनियम निकलता है, उसमें यू-235 एक फीसदी से भी कम होता है. यू-235 ही वह समस्थानिक (आइसोटोप) है जो परमाणु रिएक्टरों में ईंधन के रूप में और बम बनाने में इस्तेमाल होता है. यू-235 को बाकी के यूरेनियम से अलग करने के लिए सेंट्रीफ्यूज की जरूरत होती है. इस प्रक्रिया को संवर्धन (एनरिचमेंट) कहते हैं.

– दूसरा ईंधन जिससे परमाणु बनाया जा सकता है, वह प्लूटोनियम है, जिसे नाभिकीय रिएक्टर में रेडियोधर्मी किरणों से उपचारित करके तैयार किया जाता है. इस प्रक्रिया में यूरेनियम का कुछ हिस्सा प्लूटोनियम में बदल जाता है.

सहमति के चार बिंदु

पहला

संवर्धन की प्रकिया में, यू-235 की सघनता (कन्सनट्रेशन) बढ़ाने के लिए सेट्रीफ्यूज इस्तेमाल किये जाते हैं. पश्चिमी देशों में बिजली पैदा करनेवाले अधिकतर परमाणु रिएक्टरों में 5 फीसदी तक संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल होता है.

बम बनाने के लिए 90 फीसदी तक संवर्धन की जरूरत होती है, जबकि ईरान अयस्क को प्रसंस्करित कर 20 फीसदी तक संवर्धन करने में सफलता पा चुका था. जानकार बताते हैं कि एक बम बनाने के लिए कम से कम 25 किलोग्राम 90 फीसदी तक संवर्धित यूरेनियम, या फिर 20 फीसदी तक संवर्धित 250 किलोग्राम यूरेनियम की जरूरत होती है. 2 अप्रैल को घोषित समझौते के खाके के मुताबिक, ईरान यूरेनियम के संवर्धन की सीमा 3.7 फीसदी तक ही रखने पर राजी हो गया है.

वह 15 सालों में निम्न-संवर्धित यूरेनियम का भंडार 10,000 किलोग्राम से घटा कर 300 किलोग्राम पर ले आयेगा. ईरान स्थापित सेंट्रीफ्यूजों की संख्या घटा कर दो-तिहाई करने, और फोरदो स्थित अपने विशाल भूमिगत संवर्धन स्थल को ‘नाभिकीय भौतिकी एवं तकनीकी शोध केंद्र’ में बदलने पर भी राजी हो गया है. नतांज के उसके मुख्य नाभिकीय केंद्र में मोटामोटी 5000 सेंट्रीफ्यूज घूमते रहेंगे, जो अभी की संख्या के आधे के बराबर है.

दूसरा

ईरान अरक में एक नाभिकीय रिएक्टर बना रहा है, जो प्लूटोनियम-239 (इसी प्लूटोनियम समस्थानिक का प्रयोग बम बनाने में होता है) तैयार करने के लिए प्राकृतिक यूरेनियम का इस्तेमाल करेगा. ईरान इस रिएक्टर का डिजाइन बदलने और इसके पुनर्निर्माण के लिए राजी हो गया है जिससे कि बम बनाने लायक प्लूटोनियम नहीं तैयार किया जा सकेगा. बम लायक प्लूटोनियम तैयार करने के लिए रिएक्टर का जो कोर तैयार किया गया था या तो उसे देश से बाहर भेज दिया जायेगा या फिर नष्ट कर दिया जायेगा. ईरान अगले 15 सालों तक कोई और भारी जल रिएक्टर नहीं बनायेगा.

तीसरा

ईरान हमेशा से परमाणु निरीक्षकों के सामने कठिन चुनौतियां पेश करता रहा है, पर अब वह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) को मुआयने की ज्यादा छूट और अपने परमाणु कार्यक्रम की ज्यादा सूचनाएं देने पर राजी हो गया है. वह सभी संदिग्ध स्थलों या गुप्त यूरेनियम संवर्धन के आरोपों की जांच करने की अनुमति भी देगा. निरीक्षकों की उस सप्लाई चेन तक भी पहुंच होगी, जिसके बूते ईरान का परमाणु कार्यक्रम चलता है. इसमें यूरेनियम की खानें और कारखाने, तथा सेंट्रीफ्यूज के निर्माण और भंडारण स्थलों की लगातार निगरानी भी शामिल है.

चौथा

इस आरंभिक समझौते के जरिये ‘बच निकलने’ का समय बढ़ा दिया गया है. कहने का मतलब यह कि ईरान को अगर पहले एक बम लायक परमाणु सामग्री तैयार करने में दो-तीन माह लगते, तो अब इस समझौते के बाद कम से कम एक साल लगेगा.

कितने समय के लिए

प्राथमिक खाके के मुताबिक, ईरान 10 साल के लिए अपनी संवर्धन क्षमता और शोध एवं विकास को सीमित करेगा. वह 15 सालों तक कोई नयी संवर्धन सुविधा या भारी जल रिएक्टर नहीं बनायेगा, और संवर्धित यूरेनियम के अपने भंडार में कटौती करेगा. निरीक्षण और पारदर्शिता संबंधी नियम इससे ज्यादा लंबे समय के लिए होंगे.

बराक ओबामा

अमेरिका के राष्ट्रपति

अपने पद से विदाई से पूर्व अमेरिकी विदेश नीति का नया अध्याय लिखने की कोशिश. ऐसा लगता है कि शांति के लिए ‘समय से पहले’ मिल गये नोबेल पुरस्कार के लिए ओबामा अपनी योग्यता साबित करना चाहते हैं.

अयातुल्लाह अली खामनेई

ईरान के सर्वोच्च नेता

देश के धार्मिक नेता के समर्थन के बिना यह करार हो पाना नामुमकिन था. उनकी छवि धुर अमेरिका विरोधी की है, पर वह करार के लिए तैयार हुए.

हसन रूहानी

ईरान के राष्ट्रपति

अहमदीनेजाद के दौर में पश्चिम खास कर अमेरिका के साथ ईरान के रिश्ते बहुत तल्ख थे. लेकिन उनके बाद जब हसन रूहानी राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने पश्चिम के साथ बातचीत का रास्ता खोला, ताकि दशकों से चल रही शत्रुता का अंत हो और ईरान को भी आर्थिक पाबंदियों से छूट मिले.

पिछले बारह सालों से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका व अन्य वैश्विक शक्तियों की उससे बातचीत चल रही थी. इस दौरान अनेक गतिरोध आये. संयुक्त राष्ट्र ने पांच बार उसके खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों को मंजूरी दी. लेकिन वार्ता का सिलसिला हमेशा के लिए नहीं टूटा.

मार्च, 2015 के आखिरी हफ्ते में दुनिया की निगाहें स्विटजरलैंड के लुसाने शहर पर लग गयीं, जहां ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के प्रतिनिधि ईरान के साथ बातचीत के लिए जुटे थे. जहां उम्मीद और नाउम्मीदी का पलड़ा करीब-करीब बराबर था, और वार्ता की सफलता और विफलता के बीच फासला काफी कम. लेकिन, आठ दिनों तक चली बातचीत के बाद 2 अप्रैल की देर शाम अच्छी खबर आयी.

ईरान के परमाणु कार्यक्रम से पैदा संकट के समाधान के खाके पर सैद्धांतिक सहमति न केवल ईरान के लिए, बल्कि विश्व समुदाय के लिए ऐतिहासिक घड़ी है. लेकिन दुनिया लुसाने की सहमति को सावधानी के साथ देख रही है. क्योंकि एक कहावत है- शैतान समझौतों के ब्योरों में छुपा होता है. ईरानी परमाणु कार्यक्र म को लेकर व्यापक समझौता तैयार करने की समयसीमा 30 जून, 2015 है.

आरंभिक परमाणु समझौते के फ्रेमवर्क के मुताबिक, ईरान अपनी यूरेनियम संवर्धन क्षमताओं में कमी लायेगा जिसके बदले में उसके खिलाफ लगे प्रतिबंधों को चरणबद्ध तरीके से हटाया जायेगा. इस समझौते का सबसे बड़ा श्रेय ईरान के साथ अमेरिका को जाता है. सन 2013 में ईरान में सत्ता परिवर्तन हुआ. कट्टरपंथी माने जानेवाले महमूद अहमदीनेजाद विदा हुए और उनकी जगह पश्चिम के प्रति नरम रवैया रखनेवाले हसन रूहानी ने राष्ट्रपति की कुरसी संभाली. रूहानी ने बातचीत के लिए गंभीर पहल शुरू की. इस बीच कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी से ईरान की माली हालत भी पतली हो गयी.

जानकार मानते हैं कि तेल के दाम गिराना ईरान को झुकाने के लिए अमेरिका और सऊदी अरब की साझा रणनीति हो सकती है. सऊदी अरब को सुन्नियों का, तो ईरान को शियाओं का अगुवा माना जाता है. दोनों देशों के बीच रिश्तों में तल्खी जगजाहिर है. खैर यह तो बात हुई ‘कांस्पिरेसी थ्योरी’ की.

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पद संभालते ही ईरान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. ओबामा ईरान के साथ समझौते को लेकर इस कदर ‘प्रतिबद्ध’ हैं कि उन्होंने मध्य-पूर्व के अपने सबसे गहरे दोस्त इस्नइल को नाराज करने से भी परहेज नहीं किया.

सुधरेगी ईरान की स्थिति

ईरान के शासकों के लिए यह समझौता संजीवनी की तरह है. अर्थव्यवस्था प्रतिबंधों के बोझ तले दबी है, वित्तीय ढांचा बिखर गया है, महंगाई ने लोगों की जिंदगी दुश्वार कर दी है.

बेरोजगारी और निराशा ने युवाओं को बेचैन कर दिया है. अरब में जिस तरह शिया-सुन्नी संघर्ष फैल रहा है, ऐसे में सऊदी अरब से वह मुकाबला तभी कर पायेगा जब उसकी आर्थिक स्थिति ठीक रहे. सऊदी अरब के नेतृत्व में हवाई हमलों के बाद यमन के सत्ता संघर्ष की आग पूरे इलाके में फैलने का खतरा है.

विरोध भी कम नहीं

लुसाने से अच्छी खबर आने के बाद इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान के साथ हुए समझौते की कड़ी आलोचना की है. समझौते के विरोध में वे अकेले नहीं हैं. इसके लिए बस तालियों की उस गड़गड़ाहट को याद करना होगा जो नेतन्याहू को अमेरिकी संसद में उनके भाषण के बाद मिली थीं.

अमेरिका के 47 सीनेटरों के ईरान सरकार को लिखे गये पत्र को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने ओबामा शासन की समाप्ति के बाद इस सहमति को वापस लेने की धमकी दी थी. सऊदी अरब, तुर्की और मिस्र जैसी क्षेत्रीय ताकतें भी ईरान के साथ परमाणु समझौते के खिलाफ हैं. इसी तरह ईरान के अंदर कट्टरपंथी भी समझौते का विरोध कर रहे हैं. परमाणु विवाद की समाप्ति का नतीजा ईरान और अमेरिका की नजदीकी और ईरान की अंतरराष्ट्रीय समुदाय में वापसी के रूप में हो सकता है. विरोधी इसे रोकना चाहते हैं.

ईरानी अखबार केहान के मुख्य संपादक हुसैन शरीअत-मदारी ने इस समझौते का विरोध करते हुए बयान दिया है कि इस समझौते के तहत ईरान ने एक सजी घोड़ा-बग्गी पश्चिमी देशों को दे दी, जिसके एवज़ में उन्होंने खच्चर की टूटी जीन हमें दी. इसके ठीक विपरीत आम ईरानी शहरी ने जिस तरह से समझौते का स्वागत किया है शायद वह इस सरकार की ढाल में तब्दील हो. लोगों का कहना है कि एक तरफ अकेला ईरान था और दूसरी ओर दुनिया की छह महाशक्तियां. और, हमारे वार्ताकारों ने फिर भी ईरान के माथे को ऊंचा रखा.

अरब जगत में बेचैनी

ईरान के समझौते पर अरब में सिर्फ इराक और सीरिया ने खुशी जतायी है. सीरिया और इराक के अलावा सभी अरब देशों में सुन्नी शासन है और शिया ईरान के साथ उनके रिश्ते शत्रुतापूर्ण हैं. अरब देशों की चिंता है कि समझौते का लाभ ईरान को मिलेगा जिससे इस क्षेत्र में उसका दबदबा बढेगा. सऊदी अरब द्वारा नियुक्त शूरा परिषद के अध्यक्ष अब्दुल्ला अल अस्कार का कहना है, ‘‘मुङो भय है कि ईरान को अधिक महत्व और छूट मिल सकती है. ईरान सरकार ने यह साबित कर दिया है कि इस क्षेत्र के लिए उसका अपना एजेंडा है और इस बारे में चैन से कोई नहीं सोयेगा.’’

भारत के हित में

ईरान और वैश्विक शक्तियों के बीच सहमति भारत और उन दूसरे तेल आयातकों के लिए भी अच्छी है, जो ईरान से तेल आयात करते हैं. भारत सालाना आधार पर चीन के बाद ईरान का दूसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है. अमेरिका के दबाव में भारत ने तेहरान से आयात किये जाने वाले तेल की मात्र में काफी कटौती की हुई है. जबकि भारत को ईरान से तेल सस्ता पड़ता है. एक दशक में पहली बार भारत ने इस मार्च में ईरान से तेल का आयात नहीं किया. ईरान मौजूदा पाबंदी की वजह से हर दिन 10 लाख से 11 लाख बैरल तेल का निर्यात नहीं कर पा रहा है. अब यह तसवीर बदलेगी.

संकट से समझौते तक

– 2002-2004 : सामने आये परमाणु स्थल : 2002 के अगस्त में मध्य ईरान के नतांज और अरक में ईरान के दो परमाणु स्थल सबके सामने जाहिर हो गये. तेहरान इनका मुआयना अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) से कराने पर राजी हो गया. संयुक्त राष्ट्र के निगहबानों ने यह उजागर किया कि उन्हें संवर्धित यूरेनियम के चिह्न् मिले हैं. इसे पश्चिम ने परमाणु संकट के रूप में देखा.

21 अक्तूबर, 2003 को ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के विदेश मंत्री ईरान पहुंचे, जिसके बाद उसने यूरेनियम का संवर्धन फिलहाल रोक दिया, पर बाद में उसने एलान किया कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम कभी नहीं बंद करेगा.

– 2005-2008 : 3.5} तक संवर्धन : राष्ट्रपति के रूप में कट्टरपंथी अहमदीनेजाद के निर्वाचन के बाद, 8 अगस्त, 2005 को तेहरान ने फिर से यूरेनियम संवर्धन शुरू कर दिया. इसके बाद यूरोपीय देशों ने बातचीत तोड़ दी.

जनवरी, 2006 में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य इस बात पर सहमत हुए कि आइएईए इस मामले को पूरे परिषद के सामने रखे. इस बीच, 11 अप्रैल को ईरान ने कहा कि उसने यूरेनियम को 3.5 फीसदी तक संवर्धित करने की क्षमता हासिल कर ली है. उसने सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों और जर्मनी द्वारा पेश बातचीत की रूपरेखा तय करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. 23 दिसंबर, 2006 को संयुक्त राष्ट्र ने ईरान के साथ संवेदनशील नाभिकीय सामग्री व तकनीक की खरीद-बिक्री पर पहले दौर का प्रतिबंध लगाया. ऐसा ही अमेरिका और यूरोपीय संघ ने भी किया. बातचीत रुकी रही.

7 नवंबर, 2007 को ईरान ने कहा कि उसके पास संवर्धन के लिए 3000 सेंट्रीफ्यूज हैं. इसका मतलब हुआ कि वह एक साल से भी कम समय में एक परमाणु बम लायक संवर्धित यूरेनियम तैयार कर सकेगा. आज उसके पास 20,000 सेंट्रीफ्यूज हैं जिसमें से आधे सक्रिय हैं.

– 2009-2012 : 20 फीसदी तक संवर्धन : 9 अप्रैल, 2009 को अहमदीनेजाद ने इस्फहान में यूरेनियम परिवर्तन सुविधा का आरंभ किया. 25 सितंबर को पश्चिमी देशों ने फोरदो के एक पहाड़ में छिपा कर बनाये गये संवर्धन स्थल को उजागर किया.

9 फरवरी, 2010 को ईरान ने कहा कि उसने नतांज में यूरेनियम को 20 फीसदी तक संवर्धित करने की क्षमता हासिल कर ली है. यह उस स्तर के करीब है जिससे कि परमाणु बम बनाया जा सकता है. ईरान के परमाणु स्थलों पर इस्राइली हमले की धमकी के बीच, 8 नवंबर, 2011 को आइएइए ने इशारा किया कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम का सैन्य पहलू हो सकता है.

9 जनवरी, 2012 को आइएईए ने कहा कि ईरान ने फोरदो में 20 फीसदी तक संवर्धन शुरू कर दिया है. 23 जनवरी, 2012 को यूरोपीय संघ ने ईरान के तेल निर्यात पर सीमाबद्ध रोक (इम्बार्गो) लगा दी और उसके केंद्रीय बैंक की परिसंपत्तियों को फ्रीज कर दिया.

– 2013 : आरंभिक सहमति : 6 अगस्त को, पश्चिम के प्रति नरम माने जानेवाले नवनिर्वाचित ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि तेहरान ‘गंभीर’ बातचीत के लिए तैयार है. 27 सितंबर को रूहानी ने यह कह कर सबको चौंका दिया कि खुद ओबामा ने उनसे टेलीफोन पर बातचीत की है. 1979 में ईरान में हुई इसलामी क्रांति के बाद, यह ईरान और अमेरिका के बीच हुई सर्वोच्च स्तर की बातचीत थी.

24 नवंबर को कड़ी सौदेबाजी के बाद, आर्थिक पाबंदियों में कुछ राहत के बदले ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर लगाम लगाने को तैयार हुआ. यह अंतरिम करार 20 जनवरी, 2014 से प्रभाव में आया.

– 2014 : विस्तृत बातचीत : एक स्थायी सहमति के लिए, 18 फरवरी को बातचीत शुरू हुई, पर बात नहीं बनी और अंतरिम करार को आगे बढ़ा दिया गया. 27 अगस्त को ईरान ने कहा कि उसने अरक स्थित रिएक्टर का डिजाइन बदलना शुरू कर दिया है, ताकि प्लूटोनियम का उत्पादन सीमित किया जा सके.

– 2015 : स्थायी सहमति की कोशिश : जनवरी में एक बार फिर बातचीत शुरू हुई, जिसमें राजनीतिक सहमति बनाने के लिए 31 मार्च की समय सीमा तय की गयी. इसके तकनीकी पहलुओं पर सहमति बनाने के लिए 30 जून तक का समय तय हुआ. इसी बीच अमेरिकी संसद में रिपब्लिकन के पास बहुमत चला गया और उन्होंने ईरान पर पाबंदियां लगाने की धमकी दी.

इस पर ओबामा ने कहा कि वह वीटो करेंगे. 3 मार्च को इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इसे ‘खतरनाक सौदा’ करार दिया. 26 मार्च को छह देशों के प्रतिनिधि लुसाने में जुटे. आठ दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार परमाणु समझौते के फ्रेमवर्क पर सहमति बन गयी.

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