1987 के सूखे में कालाहांडी के गांवों की यात्र के दौरान मैंने गरीबी को उसके सबसे भयावह रूप में देखा. मिट्टी की खाली झोपड़ियों में धीरे-धीरे मरते हुए बच्चों की तसवीरें एक दर्द की तरह मेरे दिमाग ही नहीं दिल में भी अंकित रह गयी हैं. उस साल बारिश ने मुंह फेर लिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि एकफसली अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी और वहां के आदिवासी परिवार पक्षियों को खिलानेवाले चुग्गे और आम की गुठलियों पर महीनों गुजर-बसर करने को मजबूर थे. महिलाओं ने अपने बच्चों को बेचना शुरू कर दिया था. वे उन्हें दूध नहीं पिला सकती थीं.
ऐसे में आपको यह नहीं लगता कि अगर कोई सभ्यता से इतने दूर बसे इलाके में बड़ा निवेश करने को तैयार है, तो उसका बांहें खोल कर स्वागत किया जाना चाहिए! लेकिन हुआ इसके ठीक उलट है, और वह भी गलत कारणों से. वेदांता का विरोध करनेवालों में सबसे पहले लोग विदेशी थे. अगर पास की नियमगिरि पहाड़ी के बॉक्साइट से लांजीगढ़ रिफाइनरी में एल्युमिनियम का उत्पादन किया जाता, तो उसकी कीमत प्रति टन 1500 डॉलर बैठती, जबकि इसकी औसत वैश्विक कीमत 2050 डॉलर है. इसने विश्व एल्युमिनियम उद्योग के कानों में खतरे की घंटी बजा दी और जल्दी ही शक्तिशाली विदेशी एनजीओ परियोजना पर ब्रेक लगाने के लिए नियमगिरि में दिखाई देने लगे. ग्रीनपीस और एमनेस्टी इंटरनेशनल आज भी वहां हैं, जिनका तथाकथित मकसद जंगल में रहनेवाले आदिवासी जनजातियों के हितों और उनके पवित्र पहाड़ की रक्षा करना है.
यह विदेशी हाथ ज्यादा असरदार साबित नहीं हुआ होता अगर भारत की केंद्र सरकार दूसरे तरीकों से इस रिफाइनरी का चालू होना हर तरह नामुमकिन नहीं बना देती. इनमें से एक कदम यह घोषित करना था कि नियमगिरि में बॉक्साइट का खनन नहीं होगा. इस बात पर भ्रम आज भी बना हुआ है कि यह फैसला पर्यावरणीय कारणों से लिया गया था या इसका मकसद जमीन छिनने से आदिवासियों की रक्षा करना था! लेकिन एक बार जब खनन पर रोक लगा दी गयी, ओड़िशा माइनिंग कॉरपोरेशन के लिए वेदांता को 150 मिलियन टन बॉक्साइट खनिज की आपूर्ति करना संभव नहीं रहा.
वेदांता के लिए पर्यावरणीय, सरकारी और एनजीओ की समस्याएं तब शुरू हुईं, जब वह रिफाइनरी में दो वर्षो में 15,000 करोड़ा का निवेश कर चुकी थी. यह रिफाइनरी दूसरे राज्यों से आयातित बॉक्साइट पर चलती रही. यह अब मुमकिन नहीं है, इसलिए इस प्रोजेक्ट का बंद हो जाना तय है. अब आदिवासी प्रकृति के साथ अपने आदिम साहचर्य में पहले की तरह जीवन जी सकेंगे. जिसमें उनके बच्चों के लिए स्कूल नहीं होगा, जिसमें स्वास्थ्य की कोई सुविधा नहीं होगी. बिजली नहीं होगी, साफ पानी नहीं होगा. न ही उनके जीवन में कभी सुधार की कोई संभावना होगी. क्या वे इस तरह से खुश होंगे! हां उन शहरी एनजीओ के हिसाब से ऐसा ही है, जो भीषण गरीबी को उनके जीवन की पद्धति बता कर उसे रूमानी रूप देते हैं. जिस गरीबी में वे खुद एक दिन भी नहीं रह सकते.
वेदांता को निशाना बनाने के बारे में दिलचस्प यह है कि अगर यही परियोजना किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी की होती, तो वह इस पर आगे बढ़ी होती और उसने नियमगिरि का पूरा शोषण किया होता और इसका कोई नोटिस भी नहीं लेता. अतीत में ऐसा होता रहा है, और आज भी ऐसा हो रहा है.
(29 सितंबर, 2012 को द फाइनेंसियल टाइम्स में छपे लेख का अंश.)
तवलीन सिंह
वरिष्ठ स्तंभकार