कथाकार प्रकाश कांत का नवीनतम उपन्यास ‘अधूरे सूर्यो के सत्य’ उस सामाजिक वातावरण को प्रस्तुत करने का प्रयास है, जो आजादी मिलने के पहले से शुरू होकर बाबरी मसजिद ढहाने तक लगातार असंवेदनशील, असहिष्णु एवं घातक होता चला गया. समाज में विद्यमान अलग-अलग धार्मिक एवं जातीय पहचानें शोषण एवं मानवता के अपमान का कारण बनती हैं, खास तौर से उनके लिए जो मौजूदा व्यवस्था में वर्चस्वशाली धारा के विरुद्ध अपने को गढ़ने के लिए प्रयासरत हैं. लेखक ने इस कथ्य को मालवा क्षेत्र की पृष्ठभूमि में चित्रित किया है.
पृष्ठभूमि में मध्यकालीन ऐतिहासिक भवनों के खंडहर हैं, दुर्ग हैं, ढही हुई दीवारें हैं. ये सामंती सत्ताओं के अवशेष हैं. यह एक उम्दा रूपक की तरह है. मध्यकालीन संरचनाओं को ढहाये बगैर ही, उन्हीं के अवशेष पर आधुनिक लोकतंत्र की इमारत तामीर कर दी गयी. परिणामस्वरूप पुराने राजे-रजवाड़े मध्यकालीन आत्मा के साथ ही हमारे आधुनिक शासक बन गये. ‘जिसके ऊपरवाले हिस्से पर स्तंभ था, जिस पर कभी होल्करों का झंडा फरहाया करता था. अब राष्ट्रीय पर्वो पर तिरंगा फहराया जाता है.’ उपन्यास के पात्रों के ये निर्धारक तत्व हैं. एक प्रमुख पात्र जेकब के शब्दों में,‘देखो दोस्त, मैं इतिहास का शिकार हूं और तुम इतिहास के गुमशुदा. हम दोनों के भीतर जरूरी पूंजी की तरह इतिहास के कुछ खास किस्म के दंश हैं. ये दंश ही किले को लेकर हम दोनों का एक खास एंगल तय करते हैं.’ लेखक ने दो पात्रों- जेकब और अमन को केंद्र में रख कर भारत की बड़ी हलचलों का वर्णन किया है- आजादी मिलना, बंटवारे की त्रसदी, गांधीवादी कांग्रेस का भ्रष्ट और पतित होना, ‘संपूर्ण क्रांति’ के लिए आंदोलन, बाबरी मसजिद को नष्ट करने के लिए आरएसएस का आंदोलन.
यहां निजी स्वार्थों के लिए जाति और धर्म की राजनीति करनेवालों का चित्रण तो हुआ ही है, जाति और धर्म के आतंक से मनोवैज्ञानिक स्तर पर जूझते पात्रों का भी चित्रण हुआ है. जेकब हिंदू वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत दलित जाति में पैदा हुआ. उसके पिता धर्म-परिवर्तन कर ईसाई बन गये. पर फिर भी जाति के भेदभावकारी दंश से मुक्त न हो पाये. अमन का एक नाम उमाशंकर भी है. उसके पिता एक हिंदू हैं और मां मुसलिम. उसके पिता को गांधी आश्रम में रोशनी से विवाह करने के बाद समाज में खूब अपमानित किया गया था.
हिंदू और मुसलिम दोनों पहचानों के कारण वह दोनों धर्म के ठेकेदारों से पीड़ित रहा. तब और ज्यादा, जब सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न होता, देश भर में कहीं भी. बाबरी मसजिद ढहाने पर उसे लगा- ‘मां की मसजिद! पिता ने तोड़ दी! सैकड़ों साल पहले कभी पिता का मंदिर मां ने तोड़ा था, अब उतने साल बाद पिता ने उसकी मसजिद तोड़ दी.’ अमन उर्फ उमाशंकर इस दंश से कभी मुक्त नहीं हो पाया कि वह आधा हिंदू है आधा मुसलमान. उसे लगता है, वह कभी भी उस तनावपूर्ण माहौल में किसी हिंदू के हाथों मारा जा सकता है या फिर किसी मुसलिम के हाथों. उसके समक्ष धार्मिक सत्ता के अस्वीकार का साहस नहीं है. वह कहता है, ‘इस देश में तो धर्म की एकमात्र भूमिका उन लाखों-करोड़ों लोगों को आदमी तो ठीक जानवर के दर्जे से भी नीचे घटाकर रखने की रही है.’
उपन्यास में कथ्य प्रभावशाली है पर लेखकीय प्रौढ़ता और नयेपन का अभाव झलकता है. न चित्रण में औपन्यासिक गंभीरता है, न वृहत्त रचनात्मकता. लेखक को चाहिए कि वह कथ्य को उपन्यास-कला के साथ समायोजित करे ताकि पठनीयता और प्रभाव में जरा भी चूक न हो. डायरी शैली के माध्यम से गांधी के समय की स्थितियों का चित्रण काफी कुछ ठीक है. कुछ संकोच के साथ कहना चाहूंगा धर्म एवं जाति के पहचानों की टकराहट के सामाजिक प्रभावों के प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए.