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शिया-सुन्नी विवाद से पैदा हुआ यमन संकट

सितंबर, 2014 में राजधानी सना पर काबिज हूती विद्रोहियों ने उत्तर के सादा से चलकर दक्षिण के अदन के दरवाजे पर दस्तक दे दी है. उन्हें पूर्व राष्ट्रपति के कबीलाई लड़ाकों और यमनी सैनिकों का भी समर्थन है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा हूती कब्जे को खारिज करने के बाद सऊदी अरब और कई अरबी देश […]

सितंबर, 2014 में राजधानी सना पर काबिज हूती विद्रोहियों ने उत्तर के सादा से चलकर दक्षिण के अदन के दरवाजे पर दस्तक दे दी है. उन्हें पूर्व राष्ट्रपति के कबीलाई लड़ाकों और यमनी सैनिकों का भी समर्थन है.
लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा हूती कब्जे को खारिज करने के बाद सऊदी अरब और कई अरबी देश ‘अपदस्थ’ राष्ट्रपति हादी के पक्ष में हवाई हमले कर रहे हैं तथा उन्हें अमेरिका और कुछ पश्चिमी देश सहयोग कर रहे हैं. इस कदम का ईरान, रूस और चीन ने घोर विरोध किया है. इस स्थिति में अल-कायदा और इसलामिक स्टेट ने भी अपना मोर्चा खोला हुआ है. यमन संकट के गहराने की आशंकाओं के बीच इसकी पृष्ठभूमि और भावी परिस्थितियों का विश्लेषण आज के समय में ..
सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
यमन में सऊदी अरब और ईरान के हित जुड़े हुए हैं. अगर वहां शिया लड़ाकों के नेतृत्व में सरकार बनती है, तो इसकी लपटें सऊदी अरब तक पहुंच सकती हैं. इससे वहां के तेल बहुल इलाकों में उपद्रव के हालात पैदा हो सकते हैं और ईरान इसका फायदा उठा सकता है. यही वजह है कि सऊदी अरब ने नौ देशों के साथ मिल कर यमन पर हवाई हमला शुरू कर दिया. यमन संकट के कारण ईरान और सऊदी अरब आमने-सामने आ गये हैं.
यमन संकट के कारण ईरान और सऊदी अरब एक बार फिर आमने-सामने आ गये हैं. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी सदियों से दोनों देशों के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं. शिया-सुन्नी विवाद इसकी एक प्रमुख वजह रही है. सऊदी अरब जिस इसलाम को बढ़ावा देता है, उससे शियाओं का दमन होता रहा है. पिछले 15-20 वर्षो से ईरान जिस आक्रामक नीति को अपनाता रहा है, उससे सऊदी अरब परेशान रहा है.
ईरान में 1979 में इसलामिक क्रांति के बाद शिया-सुन्नी विवाद और गहरा हुआ है. वर्ष 1980 से 88 के दौरान ईरान-इराक के बीच चले युद्ध के दौरान यह विवाद नियंत्रण में रहा, लेकिन 10 साल पहले इराक में अमेरिकी दखल के बाद एक बार फिर शिया-सुन्नी विवाद भड़का और इस क्षेत्र में ईरान का दखल बढ़ा. इराक में शिया-सुन्नी विवाद के कारण हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. सीरिया में गृह युद्ध शुरू होने के बाद यह विवाद और भड़का.
सद्दाम हुसैन के शासन के खात्मे के बाद इराक में शिया हुकुमत आयी और ईरान से इनके संबंध बेहतर हुए. सीरिया और लेबनान में हिजबुल्लाह को ईरान समर्थन दे रहा है. उसी प्रकार गाजा पट्टी में हमास को भी ईरान का समर्थन हासिल है. कतर में 70 फीसदी आबादी शिया है, लेकिन शासन पर कब्जा सुन्नी शासक का है. पिछले साल कतर में शासक के खिलाफ उपजे आंदोलन को ईरान ने समर्थन दिया, जबकि शासक को सऊदी अरब का सहयोग मिला.
सीरिया में असद के शासन को खत्म करने के पीछे ईरान के प्रभाव को कम करने की कोशिश की गयी, लेकिन इसके सकारात्मक प्रभाव नहीं दिखे. उसी प्रकार यमन में शिया बहुतायत में हैं, लेकिन अब तक ईरान के साथ सांठ-गांठ के सबूत नहीं मिले हैं. फिर भी सऊदी अरब को लग रहा है कि अंदरूनी तौर पर यमन संकट में ईरान का हाथ है. सीरिया का संकट भी यमन की तरह ही शुरू में गृह युद्ध था, जो बाद में क्षेत्रीय संकट और फिर अंतरराष्ट्रीय संकट बन गया.
यमन में सऊदी अरब और ईरान के हित जुड़े हुए हैं. सऊदी अरब को लग रहा है कि ईरान का प्रभाव बढ़ने से राजशाही को सीधा खतरा है. सऊदी अरब से पसंदीदा नेता को जबरन हटाने से उसकी शंका और प्रबल हुई है. सऊदी अरब इस बात को लेकर चिंतित है कि देश के पूर्व में शिया काफी संख्या में हैं और यहां तेल भंडार स्थित हैं.
सऊदी अरब के लिए यमन काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर वहां शिया लड़ाकों के नेतृत्व में सरकार बनती है, तो इसकी लपटें सऊदी अरब तक पहुंच सकती हैं. इससे वहां के तेल बहुल इलाकों में उपद्रव के हालात पैदा हो सकते हैं और ईरान इसका फायदा उठा सकता है. यही वजह है कि सऊदी अरब ने नौ देशों के साथ मिल कर यमन पर हवाई हमला शुरू कर दिया. यमन संकट के कारण ईरान और सऊदी अरब आमने-सामने आ गये हैं.
जहां तक यमन संकट का प्रभाव भारत पर पड़ने की बात है, अगर यह संकट वहीं तक सीमित रहता है, तो इसका कोई खास असर भारत पर नहीं पड़ेगा. यमन में भारतीयों की संख्या भी अधिक नहीं है और कच्चे तेल की आपूर्ति भी यमन से काफी कम मात्र में होती है. लेकिन अगर यमन संकट पूरे खाड़ी देश में फैल गया, तो इसका प्रभाव निश्चित तौर पर भारत पर पड़ेगा. सवाल सिर्फ तेल की कीमतों का नहीं है. मौजूदा समय में तेल की कीमत 55 डॉलर बैरल के आसपास है और भारत 120 डॉलर प्रति बैरल तेल खरीद कर भी अपनी जरूरतें पूरी कर चुका है. लेकिन अगर यह संकट पूरे अरब क्षेत्र में फैल गया, तो तेल की आपूर्ति बाधित होगी और इसका अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ेगा. संकट बढ़ने का असर वहां रह रहे भारतीयों पर भी पड़ेगा.
फारस की खाड़ी और लाल सागर का क्षेत्र सिर्फ तेल के लिए ही नहीं, बल्कि यूरोपीय देशों के साथ व्यापार के लिए काफी महत्वपूर्ण है. स्वेज नहर के जरिये यूरोप से व्यापार होता है. इस नहर का एक हिस्सा यमन के क्षेत्र से होकर गुजरता है. इसलिए यमन संकट का तात्कालिक प्रभाव भारत की ऊर्जा सुरक्षा और शिपिंग पर होगा. लेकिन अगर यमन संकट खाड़ी देश में युद्ध का रूप ले लेता है, तो भारत पर इसका दीर्घकालिक असर होगा और इससे तेल की कीमतें तो बढ़ेंगी ही, इसकी आपूर्ति भी बाधित होने का खतरा पैदा हो जायेगा. तेल की आपूर्ति बाधित होने से भारतीय अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो जायेगी और महंगाई बढ़ने का खतरा पैदा हो जायेगा.
दूसरा असर यह होगा कि खाड़ी देशों में लगभग 70 लाख भारतीय हैं. इतनी बड़ी संख्या में वहां से लोगों को निकालना मुश्किल काम है. इतने लोगों को वापस लाना बेहद कठिन काम है. इसका आर्थिक पहलू भी है. भारत में हर साल लगभग 70-75 बिलियन डॉलर रेमीटेंस आते हैं. (अनिवासी भारतीयों द्वारा अपने देश में रकम भेजना). इसमें से 35-40 बिलियन डॉलर रेमीटेंस खाड़ी देशों से ही आते हैं. अगर खाड़ी देशों में किसी तरह के युद्ध के हालात बनते हैं, तो ये रेमीटेंस आने बंद हो जायेंगे और इससे देश का विकास प्रभावित होगा.
खाड़ी देशों का संकट भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय है. यूरोप और अमेरिका के आर्थिक हित भी इस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय नहीं चाहेगा कि यह संकट बढ़े. समुद्री रास्ते को संकट से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर कोशिशें हो रही हैं. इसलिए उम्मीद है कि यमन के संकट को जल्द ही सुलझा लिया जायेगा.
यह खाड़ी देशों के हित में भी है कि संकट गंभीर नहीं बने, क्योंकि हालात गंभीर होने पर इन देशों की अर्थव्यवस्था को भी काफी नुकसान होगा. यमन का स्थानीय और आतंरिक संकट अब क्षेत्रीय संकट बन गया है. ईरान और सऊदी अरब के आमने-सामने आने से यह अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है. इराक और सीरिया संकट के समाधान की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है. अब यमन संकट शिया और सुन्नी का विवाद बन गया है. इससे खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता की संभावना प्रबल हो गयी है. यमन संकट से अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु मुद्दे पर चल रही बातचीत पर भी असर पड़ सकता है. लेकिन यूरोपीय और अमेरिका की आर्थिक स्थिति को देख कर कहा जा सकता है कि ये देश भी नहीं चाहेंगे की खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता फैले.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
यमन की अनदेखी नहीं की जा सकती
प्रो. पुष्पेश पंत
विदेश मामलों के जानकार
यमन के साथ भारत के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं. भारतीय संगीत में जिस यमन राग का जिक्र होता, कुछ विद्वानों का मानना है कि उसकी शुरुआत यमन से ही हुई है. इसलाम के आभिर्भाव के पहले से यमन का नाता हिंदुस्तान से जुड़ा है. लेकिन आज कठिनाई यह है कि हिंदुस्तान के लोग यमन की लगभग उपेक्षा करते हैं. इसलामी कट्टरपंथवाले देशों में यमन का नाम अग्रणी है. लेकिन हम यह अकसर भूल जाते हैं कि यमन एक गरीब इसलामिक देश है. हम सोचते हैं कि उसके पास सऊदी अरब की तरह पैसा नहीं है, पेट्रो डॉलर नहीं है, तो वह अपने कट्टरपंथ का निर्यात उस प्रकार से नहीं कर सकता है.
यमन में आज कट्टरपंथ का जो लावा फैला हुआ है, वहां जो संघर्ष चल रहा है, वह जनतंत्र बनाम तानाशाही का ही नहीं है, वह जनतंत्र बनाम कट्टरपंथी इसलाम बनिस्बत अपेक्षाकृत उदार इसलाम की व्याख्या से भी जुड़ा हुआ है. इसलिए दुनिया भर में जहां भी इस तरह का संघर्ष हो रहा है, उसकी भारत इसलिए अनदेखी न करे कि वह देश की विदेशनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं है या उसके साथ भारत का व्यापार बहुत नहीं होता है. यमन के संघर्ष में हमारी दिलचस्पी सामरिक कारणों से भी होनी चाहिए, क्योंकि यमन की भू-राजनीतिक स्थिति अफ्रीका के खाड़ी देशों और पाकिस्तान तक के संदर्भ में महत्वपूर्ण है.
मुङो लगता है कि हम कुछ चीजों को समझने में गलती कर देते हैं. हम इराक, सीरिया, लीबिया को तो दुनिया के लिए संकट तौर पर देखते हैं. लेकिन, आज यमन में जो हो रहा है, वह हमें विश्व शांति के लिए बहुत खतरा नहीं लगता है. यह नहीं भूलना चाहिए कि कई बार शरीर के किसी हिस्से का छोटा सा नासूर भी जानलेवा बन जाता है. अगर आप गौर से देखें तो कई चीजें आपस में जुड़ती हैं. कहीं-न-कहीं नाइजीरिया का बोको हराम अल्जीरिया के कट्टरपंथी से सीधे जुड़ता है. मिस्र की मुसलिम बिरादरी तक पहुंचता है और फिर फिलिस्तीनियों और लेबनान तक जाता है.
कोई भी हिस्सा आज इससे अछूता नहीं है. यदि कहीं एक जगह भी कट्टरपंथ पर विजय पाने की स्थिति बनती है, जनतंत्र के पक्ष में सफलता मिलती दिखती है, तो यह लड़ाई सबके साङो की है. इसलिए जो भी हो रहा है, वह हमारे लिए भी महत्वपूर्ण है. अगर मलयेशिया का इसलामीकरण होता है, तो वह भी हमारे लिए चिंता का विषय है. इसी तरह यमन के संघर्ष की उपेक्षा नहीं की जा सकती. यमन का गृह युद्ध कहीं न कहीं स्पेनिश सिविल युद्ध की याद दिलाता है, जो सारे संसार में जनतंत्र के लिए प्रेरक बन गया था.
यमन तेल उत्पादक देश नहीं है, इसलिए यमन के संघर्ष को तेल उत्पादक देशों के कट्टरपंथ और संघर्ष से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. यमन इनसे अलग-थलग देश है, उसकी भूराजनीतिक स्थिति ऐसी है कि यदि वहां का संघर्ष कट्टरपंथी ताकतों के पक्ष में तय होता है, तो कहीं न कहीं उस कट्टरपंथ की जडं़े सर्वत्र मजबूत होती हैं. मालदीव तो बहुत छोटा देश है, अगर कट्टरपंथ वहां अपनी जड़ें जमाता है, तो आतंकवादियों, समुद्री तस्करों के लिए शरणस्थली बढ़ती है.
कुल मिलाकर अगर यमन की भूराजनीतिक स्थिति और आर्थिक व सामाजिक विषमता पर ध्यान दिया जाये, तो जहां इतनी आर्थिक विषमता है, इतना उत्पीड़न, शोषण और तानशाही है, वहां विद्रोही किसी भी चीज का सहारा ले सकता है, कट्टरपंथ का भी. समता या जनतंत्र की लड़ाई जब तानाशाही, आततायी और आतंक के मुकाबले खड़ी होती है, तो वह जो संभव सहारा होता है उसका इस्तेमाल करती है. वह सहारा कट्टरपंथी इसलाम भी हो सकता है. यमन में भी यही देखने का मिल रहा है.
भारत के संदर्भ में इस संघर्ष को देखें, तो यमन का संकट और संघर्ष भारत को सीधे-सीधे प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन ऐसा नहीं है कि हम उसकी अनदेखी या उपेक्षा कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा नहीं माना जा सकता कि चार-पांच या दस की संख्या में भी कट्टरपंथी यमन से प्रेरित होकर भारत में कुछ उत्पात नहीं कर सकते हैं. इसलिए यमन के घटनाक्रम पर भारत को सतर्क नजर रखनी होगी. यह भी समझना आवश्यक है कि यमन के संघर्ष पर हमें उतनी चिंता प्रकट करने की जरूरत नहीं, जितनी इस बात पर कि संसार में जहां-जहां इस तरह का संघर्ष चल रहा है, वह भारत के लिए चिंताजनक है क्योंकि दुनिया में मुसलमानों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी यहीं है.
यमन से हमारा हजारों साल पुराना रिश्ता है, लेकिन हाल के दिनों में हमारी उससे कोई घनिष्ठता नहीं रही है. इसका कारण वहां का इसलामी कट्टरपंथ है, वहां की तानाशाही है. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम वहां जो कुछ भी हो रहा है उससे बिल्कुल आंखें मूंद लें.
(बातचीत पर आधारित)
सऊदी अरब, ईरान और यमन में चल रहा ‘महाखेल’
यमन में ईरान के रणनीतिक हित बिल्कुल साफ हैं. खाड़ी प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी सिरे पर स्थित यह देश लंबे समय से कुशासन और समुदायों के झगड़ों का शिकार रहा है. सऊदी अरब से अपनी स्पर्धा में ईरान के लिए 35 प्रतिशत शिया आबादी के यमन में अपनी समर्थक सरकार का होना बहुत फायदेमंद हो सकता है. मगर क्या ईरान का वास्तविक मकसद बस यही है?
मार्टिन रियरडन
यह कहना कि यमन में सत्ता के लिए चल रही आंतरिक सियासत मध्यपूर्व की सबसे पुरानी, सबसे जटिल तथा सर्वाधिक गतिशील सियासी स्पर्धाओं में बस एक है, चीजों को कम करके देखना होगा. अब तक जो एक लड़खड़ाती और कमजोर सुन्नी केंद्रीय सरकार यमन के विभिन्न संघर्षशील धड़ों के साथ लगातार संघर्ष करती हुई किसी तरह बस सत्ता पर काबिज थी, वह एक सप्ताह पहले गिर गयी.
यमन में आदिवासियों के सतत संघर्ष, उत्तरी तथा दक्षिणी दोनों हिस्सों में अलगाववादी आंदोलन तथा ‘अरब प्रायद्वीप में अल कायदा’ (एक्यूएपी) नामक उग्रवादी संगठन का गृहआधार होने ने इस आग में घी का काम किया है. दरअसल, यहां चल रहा एक आंतरिक और एक बाहरी संघर्ष आपस में घनिष्ठ रूप से संबद्ध है, जो हालिया घटनाओं के आलोक में घरेलू और क्षेत्रीय सियासत में ऊपर उभर आये हैं.
पहला, हूती विद्रोहियों से चल रहा संघर्ष एक दशक पुराना है. हूती उत्तरी हिस्से के शिया अल्पसंख्यक हैं और पिछले सप्ताह केंद्रीय सरकार को गिराने में कामयाबी हासिल कर काफी ताकतवर हो गये दिखते हैं. मगर अभी कई सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं, जैसे अंतत: देश का शासन किस तरह और किसके द्वारा चलेगा. दूसरी ओर भूराजनीतिक नजरिये से अधिक अहम लड़ाई दो बाहरी ताकतों के बीच छिड़ी है, जिसके बड़े और दूरगामी क्षेत्रीय प्रभाव होंगे और जो आनेवाले लंबे वक्त के लिए मध्यपूर्व के शक्ति-संतुलन में बदलाव ला सकते हैं.
रणनीतिक स्पर्धा
सऊदी अरब और ईरान भूमध्य सागर से लेकर खाड़ी और अरब सागर तक के क्षेत्र में अपनी ताकत और प्रभाव बढ़ाने की दशकों पुरानी स्पर्धा में लगे हैं. यह अफगानिस्तान में आज से 100 साल से भी पहले ग्रेट ब्रिटेन और रूस द्वारा खेले गये ‘महाखेल’ की याद ताजा कर देता है.
सऊदी अरब और ईरान की यह स्पर्धा दो सांप्रदायिक तथा वैचारिक धाराओं की है. सऊदी अरब सुन्नी मुसलिम जगत का नेता है, जबकि शिया मुसलिम दुनिया का नेतृत्व ईरान के हाथों में है. हालांकि, अभी दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच वार्ता भी हुई है, मगर निकट भविष्य में इनके बीच किसी दूरगामी समझौते की संभावना बनती नहीं दिख रही. अभी तो यही लग रहा है कि वे मध्यपूर्व की सियासी बिसात पर अपनी अगली चालें तय करने में ही लगे हैं.
परस्पर विरोधी हितों के टकराव
दोनों देश एक दूसरे को कमजोर करने की कोशिशों में पूरे मध्यपूर्व में जगह-जगह ऐसी लड़ाइयों में उलङो हैं, जो उनके प्रतिनिधियों द्वारा कहीं शीतयुद्ध, तो कहीं सक्रिय रूप में लड़ी जा रही हैं. लेबनान में जहां ईरान हिजबुल्ला का समर्थन कर रहा है, वहीं सीरिया में वह लंबे समय से असद सरकार के समर्थन में है.
इराक, जो 2003 में अमेरिकी आक्रमण के पूर्व मजबूती से सुन्नी धड़े में शामिल था, अभी ईरान द्वारा समर्थित शिया सरकार के अंदर है. बहरीन और खुद सऊदी अरब के पूर्वी प्रांत में शिया समुदायों को अपना समर्थन प्रदान कर ईरान परदे के पीछे से दोनों सरकारों को कमजोर करने में लगा है. और अब यमन की घटनाएं सामने हैं, जो ईरान के पक्ष में जाती प्रतीत होती हैं.
यमन में ईरान के लंबे रणनीतिक हित बिल्कुल साफ हैं. खाड़ी प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी सिरे पर स्थित यह देश लंबे समय से कुशासन और विभिन्न समुदायों के झगड़ों का शिकार रहा है. सऊदी अरब से अपनी स्पर्धा में ईरान के लिए 35 प्रतिशत शिया आबादी के यमन में अपनी समर्थक सरकार का होना बहुत फायदेमंद हो सकता है. मगर क्या ईरान का वास्तविक मकसद बस यही है?
सऊदी अरब के बड़े दावं
मार्च, 2012 में ऐसी खबरें आयी थीं कि ईरानी सशस्त्र बलों की एक एजेंसी यमन के हूती विद्रोहियों को चोरी-छिपे हथियारों की बड़ी खेपें पहुंचा रही है. अपनी दक्षिणी ओर यमन से लगी 1,770 किमी की असुरक्षित सीमा की वजह से यहां सऊदी अरब के बड़े दांव लगे हैं. सऊदी अरब में तस्करी के लिए पुराने समय से इस सीमा का इस्तेमाल होता रहा है. एक्यूएपी (अरब प्रायद्वीप में अल कायदा) के उग्रवादी भी इसी सीमा से होकर इस देश में प्रवेश पाते रहे हैं, जिन्हें वह अपने लिए सबसे बड़ा आतंकवादी खतरा मानता है.
दरअसल, सऊदी अरब 2011 में यमन के राष्ट्रपति पद से अपने एक लंबे वक्त के समर्थक रहे अली अब्दुल्ला सालेह को बलपूर्वक हटाये जाने के झटके से नहीं उबर पाया है. उसके नजरिये में तब से ही यमन में स्थितियां लगातार विपरीत होती जा रही हैं. यही वजह है कि उसकी सुरक्षा एजेंसियां यमन में अपनी समर्थक केंद्रीय सरकार को वित्तीय तथा हथियारों की सहायता देती रहीं. यमन से लगती अपनी सीमा के अंदर वह विद्रोहियों के विरुद्ध अपनी सेना तथा वायुसेना के हमले भी करता रहा है.
बालू पर लकीरें
तो फिर इन सारी घटनाओं के कौन से निहितार्थ होंगे? क्या सऊदी अरब तथा ईरान के लिए यमन इतना अधिक अहम है? इसका संक्षिप्त उत्तर तो हां में है. दोनों ताकतें अभी उस काम में लगी हैं, जिसे लोकोक्तियों में बालू पर अपनी-अपनी लकीरें खींचना कहा जाता है. सऊदी अरब अपनी संवेदनशील दक्षिणी सीमा पर अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता. वह यमन में अशांति का फायदा उठा कर न तो ईरान को इस प्रायद्वीप में अपने पांव जमाने का मौका देना चाहेगा और न ही एक्यूएपी को उत्तर की ओर बढ़ने की आजादी.
दूसरी ओर ईरान के लिए यह लकीर इराक और सीरिया हैं, जो दोनों देश उसके तथा मध्यपूर्व के शेष सुन्नी हिस्सों के बीच ‘बफर’ का काम करते हैं. इसलिए इन दोनों में भरोसेमंद शिया सरकारों का होना उसे एकदम जरूरी लगता है. और यही वह बिंदु है, जहां ईरान के लिए सौदेबाजी के एक बड़े मोहरे के रूप में यमन में हो रही घटनाओं की अहमियत साफ होती है, जो अभी लंबे समय तक इस देश को अशांत बनाये रखेगी.
ईरान इस मोहरे का इस्तेमाल कर सऊदी अरब पर यह दबाव बनायेगा कि वह इराक और सीरिया की सरकारों को कमजोर करने की अपनी कोशिशों से बाज आये.
अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या सऊदी अरब यमन में अड़ेगा अथवा चुप ताकता रहेगा? और इस तरह यह महाखेल चालू है.
(लेखक न्यूयॉर्क स्थित स्ट्रेटजिक सिक्योरिटी एंड इंटेलिजेंस कंसल्टेंसी, सौफान समूह के वरीय उपाध्यक्ष और कतर इंटरनेशनल एकेडमी फॉर सिक्योरिटी स्टडीज के वरीय निदेशक हैं. उन्हें अमेरिका के फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन में 21-वर्षो के कार्यकाल का अनुभव और दहशतगर्दी-विरोधी कार्रवाइयों में विशेषज्ञता हासिल है.)
(अल जजीरा से साभार)
(अनुवाद : विजय नंदन)

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