* सूचना का अधिकार कानून में बदलाव
।। योगेंद्र यादव ।।
सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ) में बदलाव के लिए पेश हुए बिल पर अगले हफ्ते बहस होनी है, लेकिन फैसला सबको मालूम है. कानून में बदलाव के मुद्दे पर सारे दल एकजुट हैं, सो संशोधन होकर रहेगा. मंशा कानून को ऐसे बदलने की है कि राजनीतिक दल आरटीआइ के घेरे में आने से बचे रहें. पार्टियों के इस रवैये से आम आदमी को एक बार फिर लगेगा कि कायदे–कानून सिर्फ उसके लिए हैं. नेता तो होते ही हैं कानून से ऊपर.
प्रस्तावित संशोधन के निशाने पर केंद्रीय सूचना आयोग वह फैसला है, जिसमें राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था करार देकर आरटीआइ के दायरे में माना गया. और, पार्टियां तैयार हैं कि हर हाल में आयोग के फैसले को गलत साबित करना है. आयोग ने राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के अपने ऐतिहासिक फैसले में तीन तर्क रखे.
* पहला तर्क था कि मान्यता–प्राप्त पार्टियों को सरकारी कोष से आर्थिक सहायता मिलती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी अन्य सार्वजनिक संगठन को. उन्हें दफ्तर मिलता है, सार्वजनिक जगह मिलती है. राज्य–स्तर पर भी मान्यता प्राप्त दलों को ऐसी तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं. प्रतिवाद में कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों को मिलनेवाली सरकारी सहायता तो ऊंट के मुंह में जीरा के समान है. पार्टियों ने कहा भी यही. लेकिन यहां असली सवाल पार्टियों को मिलनेवाली सरकारी सहायता की कमी–बेशी का नहीं, बल्कि सिद्धांत का है. अगर सरकारी खजाने से आंशिक सहयोग पानेवाले एनजीओ आरटीआइ के दायरे में हैं, तो राजनीतिक दलों पर भी यही नियम लागू होना चाहिए, वे इससे कैसे बच सकते हैं?
* आयोग का दूसरा तर्क था कि राजनीतिक दलों की उत्पत्ति का आधार कानूनी है. पहली नजर में यह दलील कमजोर है. पार्टी बनाने का काम व्यक्ति और समूह करते हैं, कानून नहीं. पार्टी बनाने के बाद कानून के तहत पंजीयन करवाना होता है, लेकिन यह बात तो हर संस्था, संगठन या कंपनी पर लागू होती है. यहां असली बात यह है कि किसी राजनीतिक दल के मान्यता प्राप्त होने का दर्जा केवल कानून से ही पैदा होता है, इसलिए मान्यता–प्राप्त पार्टियों को मिलनेवाली तमाम सुविधाओं पर कानूनी निगरानी का दायित्व बनता है. मान्यता–प्राप्त पार्टियों के उम्मीदवारों को तमाम तरह की छूट मिलती है. विशेष चिह्न् मिलता है, उम्मीदवार मर जाये, तो नया उम्मीदवार देने की छूट मिलती है, रेडियो टीवी पर मुफ्त समय मिलता है. इतने विशेषाधिकार पानेवाले संगठन पर कुछ विशेष जिम्मेवारियां भी लागू होनी चाहिए.
* तीसरी दलील सबसे महत्वपूर्ण थी. आयोग ने कहा कि राजनीतिक दल मूल रूप से सार्वजनिक संस्थाएं हैं, क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र और उद्देश्य सार्वजनिक है. लोकतंत्र चलाने में राजनीतिक दलों की भारी भूमिका है. संविधान में राजनीतिक दलों का जिक्र भले न हो, मगर राजनीतिक दल लोकतंत्र के ढांचे के जरूरी कल–पुर्जे हैं. शासन के जनादेश का सारा ताना–बाना इन्हीं के इर्द–गिर्द बुना गया है. इसलिए चाहे पार्टियों को सरकार से कोई पैसा, सहायता या विशेषाधिकार मिले या न मिले, उनके काम में पारदर्शिता अनिवार्य है. राजनीतिक दलों को पारदर्शी बनाये बिना लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही संभव नहीं है.
इस दलील को एक दूसरे रूप में भी रखा जा सकता है. आज देश में राजनीति, राजनेताओं और राजनीतिक संगठनों के प्रति घोर अविश्वास का माहौल है. अधिकतर पार्टियां या तो किसी परिवार या किसी खास समूह की गिरफ्त में हैं. आम जनता की कौन कहे, खुद पार्टी के सदस्यों, कार्यकर्ताओं और कई दफे तो नेताओं तक को पता नहीं होता कि पार्टी के भीतर क्या खिचड़ी पक रही है? ऐसे में पार्टियों के अंदरूनी चाल–चलन पर छाये कुहासे को छांटनेवाली कोई किरण तो चाहिए ही. सब कुछ आर–पार दिखे वैसी पारदर्शिता तो दूर, धुंधलके की एकाध परत ही छंटे, इसके लिए जनता के हाथ में कुछ न कुछ होना ही चाहिए.
हो सकता है आरटीआइ इसके लिए नहीं बना हो. तकनीकी व्याख्या से लग सकता है कि यह आरटीआइ को हद से बेहद करनेवाली बात है. लेकिन, सच यह भी है कि राजनीति को पारदर्शी बनाने का काम पार्टियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. आज की राजनीति और राजनेता से कैसे उम्मीद लगायें कि वे अपनी पोल–पट्टी खोलनेवाला हथियार जनता के हाथ में खुद थमा देंगे? सो, अगर पारदर्शिता आनी है, तो बाहर से ही आयेगी. सूचना आयोग के निर्णय से लोकतंत्र रूपी मंदिर के गर्भगृह की सफाई का एक मौका आया है, अगर इसे गंवा दिया, तो अगला मौका न जाने कब आयेगा.
बेशक, राजनेताओं और पार्टियों की कुछ चिंताओं पर गौर करना जरूरी है. पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में लाने का अर्थ यह नहीं कि उन्हें सरकारी दफ्तर मान लिया जाये. हर छोटे–बड़े मुद्दे पर फाइलें बनाने और चलाने की अनिवार्यता बन जाये. जमीनी स्तर पर देश की कोई पार्टी सिर्फ लिखा–पढ़ी के आधार पर न चलती है, न चल सकती है. गांव–कसबे की हर सभा का सिलिसलेवार ब्योरा अक्सर नहीं रखा जाता. अनुशासन और अनुशासनहीनता से जुड़े तमाम ऐसे पक्ष हैं, जहां हर बात को सार्वजनिक करना जरूरी नहीं है. पार्टियों के कामकाज को पूरी तरह से लिखा–पढ़ी में बांध देने और हर कागज को सार्वजनिक करने की बाध्यता से आंतरिक लोकतंत्र बढ़ने के बजाय घट सकता है.
पार्टियों को सूचना का अधिकार के दायरे में लाने का असली मकसद है उनके पैसों के लेन–देन, आंतरिक चुनाव और चुनावी राजनीति में उनकी भागीदारी को पारदर्शी बनाना. पार्टियों को चंदा कहां से मिलता है, खर्च कहां होता है, इसे सार्वजनिक होना चाहिए. जरूरी है कि संगठन के चुनाव की प्रक्रिया और परिणाम सार्वजनिक हों, चुनावों में पार्टियों के उम्मीदवार कैसे और किस आधार पर तय होते हैं, यह जानकारी सार्वजनिक हो. सूचना का अधिकार का आंदोलन अगर इन मांगों पर फोकस हो, तो राजनीति में पारदर्शिता का उद्देश्य पूरा भी हो जायेगा और नेताओं की वाजिब चिंताओं का समाधान भी निकल सकता है.
बहरहाल, बड़ी बात यह नहीं कि राजनीतिक दल आरटीआइ कानून में संशोधन करके खुद के लिए कोई छूट ले पाते हैं या नहीं, बड़ी बात यह है कि क्या एक ऐसे निर्णायक मौके पर जब संसद बहस को बैठी है, राजनीतिक दल सूचना का अधिकार की हदों में खुद को बांध कर राजनीति पर जनता का भरोसा फिर से कायम कर सकते हैं?
(लेखक सीनियर फेलो, सीएसडीएस और आम आदमी पार्टी की कार्यकारिणी के सदस्य)